धर्मनिरपेक्षता के शिखर से गर्त की ओर निरंतर गहरे गिरते हम
75 साल की यात्रा में हिन्दुओं की एक बड़ी आबादी ने मुसलमानों और ईसाइयों से मुंह मोड़ लिया है। क्योंकि उन्हें यह यकीन दिलाया गया है कि वे उस अपमान का बदला लेने की लड़ाई में हैं जो उनके पूर्वजों को मुसलमानों के पूर्वजों के हाथों सहना पड़ा था।
“जय हिन्द! वंदे मातरम्! ”
हमें पटना लेकर जा रही फ्लाइट के पायलट ने हमें यह जानकारी देने के बाद कि विमान अब 35 हजार फुट की ऊंचाई से नीचे उतर रहा है, इन शब्दों के साथ अपना संबोधन पूरा किया। वे शब्द मुझे एक अलग तरह की गर्त में धंसने का एहसास करा गए। यह न तो विमान के उतरने जैसा सहज था और न सुरक्षित। यह एक अलग तरह का ‘टर्बुलेंस’ था जो मुझे मथ रहा था। फिर तंद्रा टूटी और मेरा ध्यान अपने सहयात्रियों की ओर गया कि क्या वे भी ऐसा ही महसूस कर रहे हैं? यह भी कि मुझे खुद को महफूज रखने के लिए किस तरह की सुरक्षा पेटी की जरूरत है?
क्रू से पूछने की इच्छा हुई कि ‘जय हिन्द’ के प्रचलित अभिवादन में ‘वंदे मातरम्’ जोड़ने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन यह सोचकर ठहर गया कि कहीं मैं जरूरत से ज्यादा तो नहीं प्रतिक्रिया कर रहा? इस 26 जनवरी को मेरी यूनिवर्सिटी कॉलोनी में झंडा फहराने के बाद जब ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष किया गया, तब तो मैंने विरोध नहीं किया! क्यों? क्या मैं अब ज्यादा संवेदनशील हो गया हूं?
हम क्यों नहीं समझ पाते कि ‘वंदे मातरम्’ मुसलमानों के लिए दर्दनाक हिंसक यादों से जुड़ा है। ‘भारत में रहना है तो वंदे मातरम् कहना होगा’ एक लोकप्रिय नारा रहा है, जिसमें तमाम हिन्दुओं को कोई दिक्कत नहीं दिखती।
एक ही विमान में बैठे हम संवेदनाओं के दो परस्पर अलग क्षेत्रों में थे। क्या यह विभाजन सामान्य है? इसे विचारते हुए मुझे जयपुर का एक वाकया याद आया। सत्तारूढ़ बीजेपी के एक विधायक लड़कियों के एक सरकारी स्कूल में गए, जिसमें मुस्लिम लड़कियों की अच्छी-खासी तादाद थी। मौका शायद स्कूल के वार्षिक दिवस का था, जिसमें अभिभावक भी थे। विधायक चाहते थे कि उनके पीछे लड़कियां भी ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष करें।
लेकिन वह यहीं नहीं रुके। उन्होंने ‘सरस्वती माता की जय’ का नारा लगाया और लड़कियों से इसे दोहराने की उम्मीद की। लेकिन चारों ओर सन्नाटा! बिफरे विधायक ने पारे को थोड़ा और चढ़ाते हुए नारा लगाया- ‘जय श्री राम’। मुस्लिम लड़कियां खामोश रहीं। फिर क्या था, विधायक ने छात्रों को हिजाब पहनने की इजाजत देने के लिए प्रिंसिपल को खरी-खोटी सुनाई।
बाद में लड़कियों ने विधायक के खिलाफ खुलकर विरोध जताया और साफ किया कि हिजाब पहनना उनका अधिकार है। उधर, भाजपाइयों ने विधायक की इस मांग का समर्थन किया कि स्कूलों में हिजाब पर रोक लगाई जानी चाहिए।
यह बहुत उत्साहजनक है कि लड़कियां अपने अधिकारों के लिए खड़ी हुईं और सार्वजनिक रूप से विरोध करने का साहस दिखाया। वे अपने प्रिंसिपल के अपमान से नाराज हैं। उनका कहना है कि वे पूरे 5 दिन सरस्वती वंदना गाती हैं, फिर भला जुमे को पढ़ी जाने वाली ‘दुआ’ से दिक्कत क्यों है?
मुझे बिहार के एक राजनेता मित्र से बातचीत याद आ गई। उन्होंने अपने गांव में स्कूल बनवाया है। उन्हें अभिभावकों की शिकायत मिली कि स्कूल में प्रार्थना के रूप में दुआ होती है। यह और बात है कि वह नहीं झुके और उनके स्कूल में अब भी दुआ होती है। लेकिन उनमें बेचैनी रही कि आखिर मुस्लिम पहचान वाली किसी भी चीज के लिए ऐसी नफरत क्यों?
वापस आते हैं जयपुर वाले मामले पर। इस प्रकरण का स्कूल के सामूहिक और साझा जीवन पर असर देखिए- पता चला है कि अब हिन्दू लड़कियां अपनी मुस्लिम सहपाठियों से कह रही हैं कि अगर वे हिजाब पहनने पर जोर देंगी तो वे भगवा पहनकर आएंगी। हिन्दू लड़कियां जो कभी भगवा स्टोल या स्कार्फ नहीं पहनतीं, अब हिजाब की प्रतिक्रिया में एक नई प्रथा शुरू करने की धमकी दे रही हैं! पहले ऐसा नहीं था। उन्हें हिजाब से कोई दिक्कत नहीं थी। अब वे महसूस करती हैं कि उन्हें अपने स्वयं के पहचान चिह्न के साथ अपनी सहपाठियों से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। देखिए, साझा जगहों पर क्या हो रहा है। अब इन्हें संवेदनाओं के दो अगल-बगल मौजूद परस्पर विरोधी हिस्सों में बांटा जा रहा है।
या…, मैं गलत हूं। यह कहना कि वे परस्पर विरोधी हैं, वास्तविकता की संभवत: गलत व्याख्या है। बात इतनी है कि संवेदनशीलता का एक ऐसा हिन्दू क्षेत्र तैयार किया जा रहा है जो दूसरे क्षेत्र- चाहे वह मुस्लिम हो या ईसाई, का विरोधी हो। अगर वे मांस खाते हैं, तो शाकाहारी समुदाय को इसे मुद्दा बनाना होगा। अगर वे क्रिसमस मनाते हैं तो तुलसी पूजन का प्रस्ताव रखा जाता है। वैलेंटाइन-डे के प्रतिवाद के रूप में, लोगों को इसे ‘माता-पिता दिवस’ के रूप में मनाने के लिए कहा जाता है। हिन्दू मस्जिद के सामने संगीत बजाना या भड़काऊ नारे लगाना सुनिश्चित करते हैं।
हमने मुसलमानों के नमाज पढ़ने से पहले हिन्दुओं को हनुमान चालीसा का जोर-शोर से पाठ करते देखा है। हनुमान चालीसा का सामूहिक पाठ उस तरह से हिन्दुओं के दैनिक जीवन का हिस्सा कभी नहीं रहा जैसा मुसलमानों की दिनचर्या में नमाज पढ़ना रहा है। लेकिन मुसलमानों को डराने के लिए हिन्दू ऐसा कर रहे हैं। हिन्दुओं द्वारा एक मुस्लिम को घेरकर हनुमान चालीसा का पाठ करना अजीब दृश्य है। यह मुसलमानों को शांति से न रहने देने की हिन्दुओं के एक बड़े वर्ग की कुत्सित इच्छा की भी अभिव्यक्ति है। किसी की पूजा में बाधा डालना पाप माना जाता है लेकिन संघी हिन्दुओं के लिए यह सबसे पवित्र काम है।
हमने मुसलमानों या ईसाइयों को अपने महत्वपूर्ण दिनों को तो इस तरह मनाते नहीं सुना या देखा जिससे हिन्दुओं को अपमानित या असुविधा का सामना करना पड़ा हो। वे ताकत दिखाने के लिए किसी मंदिर के सामने नहीं रुकते या अपने धार्मिक जुलूसों में हिन्दू विरोधी नारे नहीं लगाते। इसलिए यह नफरत या अलगाव का दोतरफा मामला नहीं।
यह विभाजन और भी तरह से दिखता है। कर्नाटक से राष्ट्रीय ध्वज और हनुमान ध्वज को लेकर टकराव की खबर आ रही है। वही राजनीतिक दल जिसने लालकिला में एक खंभे पर ‘निशान साहिब’ फहराए जाने पर हाय-तौबा मचाया था, चाहता है कि राष्ट्रीय ध्वज के लिए निर्धारित खंभे पर हनुमान ध्वज फहराया जाए और इस पर पूरे राज्य में आंदोलन कर रहा है।
संवेदना क्षेत्रों में यह विभाजन मणिपुर में सबसे खराब स्थिति में है। एक कुकी जोन है और इसके बरक्स एक मैतेई जोन है। एक बार फिर यह बीजेपी सरकार प्रेरित विभाजन है। असम में हम मुख्यमंत्री को रोजाना यह दावा करते सुनते हैं कि मियां मुसलमान असमिया पहचान के नहीं हैं। वह संवैधानिक पद पर बैठे इंसान हैं जो अपने ही लोगों को असम की जनता से अलग कर रहे हैं।
अयोध्या में ध्वस्त बाबरी मस्जिद की जमीन पर हाल ही में राज्य प्रायोजित और बीजेपी नियंत्रित नए राम मंदिर के उद्घाटन के देशव्यापी जश्न ने समाज के आम जीवन की इस खाई को और चौड़ा कर दिया है। इस मंदिर को लेकर हिन्दू जनता में उत्साह मीडिया और सरकार द्वारा प्रेरित था। इस मौके पर अपार्टमेंटों और कॉलोनियों में जगमग फ्लैटों और घरों के बीच उन घरों की पहचान की जा सकती थी जो अंधेरे में थे।
अपार्टमेंट और कॉलेजों और संस्थानों में मंदिर के उद्घाटन के जश्न के लिए दान एकत्र किया गया। ऐसे कई लोग थे जिन्हें इसके लिए दान देने को मजबूर किया गया। मुसलमानों को इसमें भाग लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। प्रधानमंत्री ने इसे 500 सौ साल की मानसिक गुलामी का अंत बताया। कैबिनेट ने इसे राष्ट्र की आत्मा की मुक्ति बताया। यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह भावना देश के एक बहुत बड़े वर्ग की नहीं है। ऐसे में क्या ये लोग मायने रखते हैं?
जब मैं अपने राष्ट्र के बारे में सोचता हूं तो यही विचार मुझे जकड़ लेते हैं। हमें इंसान बनाने की 75 साल की यात्रा में हम देखते हैं कि हिन्दुओं की एक बड़ी आबादी ने मुसलमानों और ईसाइयों से मुंह मोड़ लिया है। उनके दिल कठोर हो गए हैं। उन्हें यह यकीन दिलाया गया है कि वे उस अपमान का बदला लेने की लड़ाई में हैं जो उनके पूर्वजों को मुसलमानों के पूर्वजों के हाथों सहना पड़ा था।
मेरी वापसी की उड़ान उसी एयरलाइंस से थी और इस बार ‘वैसी’ कोई घोषणा नहीं हुई। हमें नहीं पता था कि कब कितनी ऊंचाई पर पहुंचे, कब किस ऊंचाई से उतरना शुरू किया। पायलट ने चालक दल के सदस्यों को केवल लैंडिंग के लिए तैयार होने के लिए कहा। मैंने राहत की सांस ली। लेकिन क्या मैं इससे बच निकला हूं?
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक हैं)
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