राम पुनियानी का लेख: बापू के राष्ट्रवाद को दरकिनार कर गोडसे की विचारधारा को प्रोत्साहित करने का अभियान
आज के शासक जहां एक ओर महात्मा गांधी को राजघाट पर फूल चढ़ाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर वे ऐसी विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे हैं जो गांधीजी की हत्या की जड़ में थी।
इस वर्ष गांधी जयंती (2 अक्टूबर 2020) पर ट्विटर पर ‘नाथूराम गोडसे जिन्दाबाद‘ के संदेशों का सैलाब आ गया और इसने इसी प्लेटफार्म पर गांधीजी को दी गई श्रद्धांजलियों को पीछे छोड़ दिया। इस वर्ष गोडसे पर एक लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए, जबकि पिछले वर्ष इनकी संख्या करीब बीस हजार थी। इस वर्ष बहुसंख्यक ट्वीट, बॉट एकाउंटस से भेजे गए। इन्हीं बॉट्स से पिछले कुछ हफ्तों से ‘जस्टिस फॉर सुशात’ के संदेश भेजे जा रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से गोडसे को कुछ ज्यादा ही याद किया जा रहा है।
यहां उल्लेखनीय है कि तत्कालीन आरएसएस प्रमुख राजेन्द्र सिंह ने कहा था, “गोडसे अखंड भारत का सपना देखता था। उसका इरादा नेक था, परंतु जो रास्ता उसने अपनाया वह उचित नहीं था” (अप्रैल 27, 1998 आउटलुक)। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने संसद में कहा था कि, “नाथूराम गोडसे देशभक्त था, है और रहेगा।” इसी तरह, बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने गोडसे को राष्ट्रवादी बताया था।
गोडसे को समर्पित एक मंदिर की नींव 2014 में मेरठ में रखी गई थी। कुछ वर्षों पहले ‘मी नाथूराम बोलतोय‘ नाटक का महाराष्ट्र में मंचन हुआ था, जिसे देखने भारी संख्या में लोग आते थे। पिछले वर्ष 30 जनवरी को हिन्दू महासभा के कार्यकताओं ने गांधीजी की हत्या के दृश्य का मंचन किया था, जिसके दौरान महासभा की पूजा शकुन पांडे ने गांधीजी के पुतले पर तीन बार गोली दागी। गोली लगते ही पुतले से खून बहने लगा और इसके तुरंत बाद दर्शकों को मिठाई बांटी गई।
पिछले दिनों अनेक ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि गांधीजी को राष्ट्रपिता मानने वाले देश में उनके हत्यारे के हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। यह तब जब कि संयुक्त राष्ट्रसंघ ने गांधीजी के सिद्धांतों को सम्मान देते हुए 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस घोषित किया है। गोडसे के विचारों का प्रचार उस समय किया जा रहा है जब सारी दुनिया में शांति और अहिंसा को समर्पित संस्थाएं स्थापित हो रही हैं। कई विश्वविख्यात नेताओं जैसे मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उनके आंदोलन गांधीजी से प्रेरित थे। यहां यह स्मरणीय है कि नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद पर आधारित शासन व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका था।
हमारे देश को भारतीय पहचान के आधार पर एक सूत्र में बांधना गांधी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान था। गांधी ने अपने साम्राज्यवाद एवं ब्रिटेन विरोधी आंदोलन में अहिंसा और सत्याग्रह के अपने सिद्धांतों का उपयोग किया।
अपने आंदोलन के सिद्धांतों के विकास की प्रक्रिया में नस्ल और जाति की अपनी समझ के आधार पर उन्होंने सबकी समानता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उनके इस चिंतन ने उस समय ठोस स्वरूप लिया जब उन्होंने छुआछूत विरोधी आंदोलन और दलितों के लिए आरक्षण का समर्थन किया तथा संविधान का प्रारूप बनाने वाली समिति की अध्यक्षता के लिए डा. अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया।
इसके ठीक विपरीत, मुस्लिम और हिन्दू राष्ट्रवादी अपने-अपने समुदायों के संपन्न वर्ग के हितों के अलम बरदार बने रहे और उन्होंने वर्ग, जाति और लिंग के प्राचीन पदक्रम को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। नाथूराम गोडसे, जो आरएसएस का प्रचारक था, हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल्यों में आस्था रखता था। स्पष्ट है कि प्राचीन मूल्यों से प्रेरित हिन्दू राष्ट्रवादियों के भारत का मुख्य आधार असमानता थी।
“मैंने गांधी की हत्या क्यों की” नामक पुस्तक, जो गोडसे के अदालत में दिए गए बयानों का संग्रह है, किताबों की दुकानों पर बड़े पैमाने पर उपलब्ध करवाई जा रही है। यह किताब देश के अतीत और आजादी के आंदोलन को साम्प्रदायिक चश्में से देखती है। किताब में गोडसे कहता है, “गांधी का व्यक्तित्व विरोधाभासी था। वे आक्रामक शांतिवादी थे, जिन्होंने सत्य और अहिंसा के नाम पर देश पर कई विपत्तियां लादीं। वहीं दूसरी ओर राणा प्रताप, शिवाजी और गुरू गोविंद सिंह, आजादी के लिए उनके योगदान के कारण देशवासियों के मन में हमेशा बसे रहेंगे। पिछले 32 वर्षों के घटनाक्रम, जिसकी पराकाष्ठा गांधीजी के मुस्लिम समर्थक अनशन से हुई, ने मुझे इस नतीजे पर पहुंचने पर मजबूर किया कि गांधी का तुरंत खात्मा किया जाए।” “उनके अनुयायी यह समझ ही न सके कि शिवाजी, राणा प्रताप और गुरू गोविंद सिंह के सामने गांधी बौने हैं और इसी कारण मैंने उनकी हत्या की। मेरी यह मान्यता है कि देश की आजादी के आंदोलन में गांधीजी का योगदान लगभग शून्य है।”
गोडसे की इस विचारधारा के ठीक विपरीत, गांधी, भारतीय इतिहास को विभिन्न धर्मों के मानने वालों का इतिहास मानते थे। महात्मा गांधी ने कहा था कि, “मुस्लिम राजाओं के शासन में हिन्दू और हिन्दुओं के शासनकाल में मुसलमान, फले-फूले। दोनों ने महसूस किया कि परस्पर वैमनस्य आत्मघाती है और दोनों को यह पता था कि तलवार की नोंक पर दूसरे को उसका धर्म त्यागने के लिए बाध्य करना संभव नहीं होगा। दोनों ने शांतिपूर्वक साथ रहने का निर्णय किया। अंग्रेजों के आने के बाद झगड़े प्रारंभ हो गए...”(हिन्द स्वराज)।
यह अफसोस की बात है कि हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायवादी, देश को लूटने में साम्राज्यवादियों की भूमिका, समानता के लिए सामाजिक परिवर्तन और देश को आजाद करने के लिए साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के महत्व को नहीं समझते।
आज हमारे देश में विरोधाभासी प्रक्रियाओं का प्रभाव नजर आ रहा है। जहां पूरी दुनिया में सामाजिक आंदोलन, अहिंसा और सत्याग्रह के संबंध में गांधी के विचारों के महत्व को महसूस किया जा रहा है वहीं भारत में राष्ट्रवाद के बारे में गांधी के नजरिए की उपेक्षा हो रही है। आज के शासक जहां एक ओर गांधी को राजघाट पर फूल चढ़ाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर वे ऐसी विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे हैं जो गांधीजी की हत्या की जड़ में थी। एक ओर ट्विटर के जरिए योजनाबद्ध तरीके से गोडसे के विचारों का प्रचार किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर आरएसएस, जो गोडसे की विचारधारा का मूल स्त्रोत था और जिसका वह प्रचारक था, से दूरी बनाने का प्रयास कर रहा है।
अभी तक हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा पर्दे के पीछे थी परंतु अब खुल्लम-खुल्ला गोडसे की स्तुति की जा रही है। आज के समय में सत्ताधारियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से गोडसे की विचाराधारा को स्थापित किया जा रहा है। दूसरी ओर हिन्दुत्व के नाम पर गांधी के महत्व को कम किया जा रहा है। यह हिन्दुत्व न तो संतों की परंपरा का है और ना गांधी की। ऐसा लग रहा है कि गोडसे के भारत के सामने गांधी का भारत कमजोर पड़ रहा है। गांधी का भारत एकता, समावेशिता, स्नेह और करूणा पर आधारित है। आज के सत्ताधारियों द्वारा इन मूल्यों की अवहेलना की जा रही है।
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी अवार्ड से सम्मानित हैं)
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