जन समस्याओं के प्रति घोर बेखबरी वाला बजट

आय और संपदा की असमानता इतनी ऊंचाइयों पर पहुंच गई है कि सारी दुनिया में इसके चर्चे हो रहे हैं। कोई भी यही सोचेगा कि इस सब के बीच पेश किए जा रहे बजट में इन मुद्दों से निपटने के प्रति कुछ चिंता, कुछ हिम्मत दिखाई जाएगी। लेकिन इस बजट में ऐसा कुछ नहीं है।

जन समस्याओं के प्रति घोर बेखबरी वाला बजट
जन समस्याओं के प्रति घोर बेखबरी वाला बजट
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प्रभात पटनायक

देश में व्याप्त भारी बेरोजगारी से युवा त्रस्त हैं। खाने-पीने की चीजों की कीमतों में भारी महंगाई बराबर बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र में गहरा और अभूतपूर्व संकट है। लघु उत्पादन क्षेत्र संकट में है। आय और संपदा की असमानता इतनी ऊंचाइयों पर पहुंच गई है कि सारी दुनिया में इसके चर्चे हो रहे हैं। कोई भी यही सोचेगा कि इस सब के बीच पेश किए जा रहे बजट में इन मुद्दों से निपटने के प्रति कुछ चिंता, कुछ हिम्मत दिखाई जाएगी। लेकिन नहीं, एनडीए सरकार द्वारा संसद में पेश किए गए 2024-25 के बजट ने ऐसा कुछ नहीं किया।

जीडीपी के अनुपात के रूप में न तो कुल मिलाकर राजकीय खर्च में बढ़ोतरी हुई है (जिससे सकल मांग तथा इसलिए रोजगार में बढ़ोतरी होती) और न रोजगार पैदा करने की खास योजनाओं पर खर्च में बढ़ोतरी हुई है। कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च में बढ़ोतरी नहीं हुई है और न ही शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए आवंटन में कोई बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत आम तौर पर कटौती ही की गई है। इस सब के लिए राजकोषीय संसाधनों की कमी का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि किसी तरह का राजकोषीय प्रयास दिखाई ही नहीं दिया है।

इस बजट के पीछे ठीक वही रणनीति है जो पिछले वर्षों के बजट के पीछे रही है। रणनीति यह है कि अतिरिक्त राजकोषीय संसाधन जुटाने के लिए कोई प्रयास करो ही मत। गैर-कर राजस्व में बढ़ोतरी का (जिसका बड़ा हिस्सा भारतीय रिजर्व बैंक के मुनाफों से आ रहा है) का इस्तेमाल एक हद तक पूंजी खर्च में बढ़ोतरी के लिए करो जिसमें बुनियादी ढांचे पर खर्च में बढ़ोतरी भी शामिल है। अगर कुछ खास मदों में कल्याणकारी खर्च में बढ़ोतरी होती है, तो अन्य मदों में इसी खर्च में कटौतियां कर दो। जो भी ज्वलंत समस्याएं सामने खड़ी हों, उनका हल निकालने के लिए बड़ी पूंजी के लिए बजटीय हस्तांतरणों का प्रावधान करो।

मैं एक-एक कर अपने उपरोक्त तथ्यों को साबित करूंगा। 2023-24 (संशोधित अनुमान) और 2024-25 (बजट अनुमान) के बीच केंद्र सरकार के कुल खर्च में जिसमें राज्यों के लिए हस्तांतरण भी शामिल हैं, कुल 7.5 फीसदी बढ़ोतरी की जानी है। इसका अर्थ है जीडीपी के अनुपात के रूप में केन्द्र सरकार के खर्च में गिरावट आना। यह अर्थव्यवस्था में रोजगार को उत्प्रेरित करने के लिए जिसकी जरूरत थी, उससे ठीक उल्टा है। यह उलट-चाल किसी राजकोषीय तंगी की वजह से नहीं है।


वास्तव में, जीडीपी के अनुपात के रूप में कर प्राप्तियां जो अब मुख्यत: केंद्र सरकार के विवेक पर निर्भर हैं, 2021-22 के 11.5 फीसदी से बढ़कर, 2023-24 में 11.7ी फीसद हो गई थीं और अब 2024-25 में 11.8 फीसदी हो जाने वाली हैं। इससे साफ होता है कि सरकार की ओर से राजकोषीय प्रयास सिरे से गायब है और अतीत के अनुभव को ही आगे के लिए प्रक्षेपित किया जा रहा है। सकल गैर-कर राजस्व ही है जिसमें 2023-24 और 2024-25 के बीच 6 फीसद की बढ़ोतरी का अनुमान है। इसमें सबसे बड़ा आइटम लाभांशों तथा मुनाफों का है और इसमें सबसे बढ़कर भारतीय रिजर्व बैंक से आने वाले मुनाफे शामिल हैं। बजट में लाभांशों और मुनाफों के हिस्से में 70 फीसद की बढ़ोतरी का प्रस्ताव है।

जहां तक खर्चों का सवाल है, जहां केन्द्र सरकार के कुल खर्चों में सिर्फ 7.35 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव है, उसके पूंजी खर्चों में जिनमें पूंजीगत परियोजनाओं के लिए राज्यों के लिए किए जाने वाले उसके हस्तांतरण शामिल नहीं हैं, 17 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव है। यह ऐसा रुझान है जो पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। किसी को यह एक सकारात्मक घटना विकास लग सकता है लेकिन इसमें से ज्यादातर निवेश ऐसी परियोजनाओं पर किया जाता है जिनका मेहनतकश जनता की जिंदगी पर शायद ही कोई असर पड़ता है। इतना ही नहीं, उनका बहुगुणनकारी प्रभाव बहुत हद तक रिसकर विदेश में चला जाता है और इस तरह उनसे घरेलू तौर पर शायद ही कोई रोजगार पैदा होता है। दूसरी ओर, इस निवेश के चलते खर्चे के अन्य आइटमों में जो कटौतियां की जाती हैं, उनका घरेलू अर्थव्यवस्था में कहीं बड़ा बहुगुणनकारी प्रभाव हो सकता था। यह स्थिति कुल मिलाकर रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में बेरोजगारी की समस्या का जिक्र तो किया है लेकिन इसका जो समाधान उन्होंने पेश किया है, इस मामले की कोई समझ ही नहीं होने को ही दिखाता है। उन्होंने रोजगार के लिए तीन योजनाओं की घोषणा की है जो नए रोजगार पैदा करने को प्रोत्साहित करने के लिए, कर्मचारियों तथा मालिकान के लिए हस्तांतरणों की योजनाएं हैं। ये योजनाएं औपचारिक क्षेत्र के लिए हैं और जहां इनमें कर्मचारियों के हाथों में हस्तांतरण का प्रावधान किया गया है वहां भी, उनके लाभ रिसकर पूरी तरह से मालिकान के हाथों में पहुंच जाने की ही संभावना है। यह कर्मचारियों को होने वाले इन हस्तांतरणों को बराबर करने के लिए, वेतन भुगतान में से कटौतियां कर लेंगे। इसके अलावा, उन्होंने कौशल-प्रदान करने के कार्यक्रम की घोषणा की है जिससे उनके दावे के अनुसार, रोजगार में मदद मिलेगी।

इस योजना के पीछे सैद्घांतिक पूर्व-धारणा यह है कि अगर मालिकान को कम मजदूरी का भुगतान करना पड़ेगा, तो रोजगार बढ़ जाएंगे। यह पूंजीवादी अर्थशास्त्र की पसंदीदा थीम है लेकिन इसे सच मानने का रत्तीभर कोई कारण नहीं है। होगा यह कि मालिकान इन हस्तांतरणों को अपनी जेब में डाल लेंगे और रोजगार उतने ही बने रहेंगे जितने अन्यथा रहे होते। इसी प्रकार, कौशल मुहैया कराने की योजना भी पूंजीवादी अर्थशास्त्र की ही एक उपशाखा है जो यह कहती है कि बेरोजगारी तो कौशल अनुपयुक्तता के सिवाय और कुछ नहीं है, कि सकल मांग की कमी जैसी कोई चीज तो कभी होती ही नहीं है, कि हमेशा ही बेरोजगारों के लिए पर्याप्त रोजगार उपलब्ध रहते हैं, बस समस्या यह होती है कि उपलब्ध काम के लिए जरूरी कौशल और बेरोजगारों के पास उपलब्ध कौशल का परस्पर मेल नहीं बैठता। मोदी सरकार का बौद्धिक स्तर, करीब एक सदी पहले के पिटे हुए विचारों से आगे नहीं जाता है। व्यवहार में उसने बेरोजगारी को कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया है।


पूंजीपति सिर्फ इसलिए अतिरिक्त निवेश नहीं करते हैं कि उनके हाथों में ज्यादा मुनाफा आ जाता है। वे अतिरिक्त निवेश तभी करते हैं, जब उन्हें बाजार के बढऩे की अपेक्षा होती है। पूंजीपति तो यही चाहेंगे कि मुनाफे का इस्तेमाल अचल संपत्ति या वित्तीय परिसंपत्तियां खरीदने के लिए करें जिन पर उल्लेखनीय पूंजी लाभ भी बटोर सकते हैं। इसलिए मोदी सरकार का पूरा का पूरा आर्थिक चिंतन ही गलत है।

इस सरकार की नीयत का पता मनरेगा के लिए आवंटन से चलता है। इसे 86,000 करोड़ रुपये ही रखा गया है जो कि उतना ही है जितना 2023-24 में इस पर खर्च किया गया था। बेशक, दावा किया जाएगा कि ज्यादा मांग आएगी, तो राशि बढ़ा दी जाएगी। लेकिन अगर मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं होता है और आवंटन कम रखे जाने से ठीक ऐसा ही होता है, तो इस कार्यक्रम के अंतर्गत रोजगार की मांग खुद ही घट जाती है। इसके अलावा, पिछले साल बहुतों को मनरेगा के तहत काम से वंचित रखा गया था। इस तरह, पिछले साल का खर्च ही वास्तविक मांग के मुकाबले कम था। 2024-25 में इसी को दोहराने की कोशिश की जा रही है जो कि अक्षम्य है।

यही बात एनएसएपी आवंटन के संबंध में सच है जिसके तहत पेंशन तथा विकलांगता लाभ आते हैं। अव्वल तो हरेक लाभार्थी को दी जाने वाली राशि हास्यास्पद तरीके से थोड़ी है। इसके ऊपर से 2024-25 के लिए आवंटन, 2023-24 के खर्च के स्तर पर ही रखा गया है।

खाद्य सब्सीडी को 2023-24 के (संशोधित) अनुमान से, जो 2.12 लाख करोड़ रुपये था, 2024-25 (बजट अनुमान) में कटौती कर 2.05 लाख करोड़ कर दिया गया है। व्यवहार में इसका अर्थ यह है कि खाद्य सब्सीडी का एक हिस्सा किसानों के कंधों पर डाल दिया गया है जिन्हें दिए जाने वाले समर्थन मूल्य का अनुचित तरीके से नीचा बनाए रखा गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का कानून बनाने की किसानों की मांग को मानना तो दूर रहा, एनडीए सरकार वास्तव में उन्हें और निचोडऩे में ही लगी है ताकि खाद्य सब्सीडी में कमी कर सके। इस तरह की कंजूसी का मतलब यह भी है कि जहां बिहार तथा आंध्र प्रदेश को बढ़े हुए हस्तांतरणों का लाभ मिल सकता है, उनके लिए गुंजाइश बनाने के लिए अन्य राज्यों को अनुचित तरीके से निचोड़ा जा रहा होगा।

इस बजट की सबसे खास बात है देश की जनता सामने खड़ी भारी समस्याओं के प्रति इसकी घोर बेखबरी। फ्रांस के बोबोन राजाओं के संबंध में (जिनका 1789 की क्रांति में तख्तापलट दिया गया था) यह कहा जाता था कि वे कुछ भी सीखते नहीं थे और वे कुछ भी भूलते नहीं थे। एनडीए सरकार के संबंध में भी सच है। बजट यही स्वांग करता है कि अर्थव्यवस्था के मामले में ऐसा कुछ तो हुआ ही नहीं है जिस पर तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत हो। ढीठपने का यह प्रदर्शन हैरान करने वाला है। 

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(जाने-माने अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का लेख न्यूज क्लिक से साभार)

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