शासन-कुशासन के 4 साल: गोडसे और गांधी-अंबेडकर के विचारों के बीच होगा 2019 का संघर्ष
कानून के राज की जगह आरएसएस का राज चल रहा है। सत्ताधारी पार्टी और उसके सहयोगियों द्वारा सवाल पूछने वालों के खिलाफ विद्वेषपूर्ण प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत पर भीड़तंत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है। मोदी सरकार के चार सालों की यही मुख्य झलक है।
मुझे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘विकास’ या ‘नए भारत’ के दावे की सच्चाई को लेकर कभी भ्रम नहीं रहा, लेकिन फिर भी मुझे इस बात को लेकर हैरत होती है कि पिछले चार साल मेरे सबसे बुरे शंकाओं से भी ज्यादा बुरे ज्यादा साबित हुए।
एकाधिकारवाद एक सामान्य चीज हो गई है, संस्थाएं टूट रही हैं और मजबूत विपक्ष को सरकारी एजेंसियों के क्रूर इस्तेमाल द्वारा ‘फिक्स’ किया जा रहा है। उनके लिए इतना काफी नहीं था, इसलिए समाज के हाशिए पर मौजूद वर्ग द्वारा पिछले कुछ सालों में प्राप्त अधिकार और सामाजिक गरिमा को पलटने की कोशिश की जा रही है। शासन की समझ में दिक्कतें हैं और कमजोर वर्गों पर सबसे ज्यादा हिंसक रूप से हमला किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि कानून के राज की जगह आरएसएस का राज चल रहा है। सत्ताधारी पार्टी और उसके सहयोगियों द्वारा उनके खिलाफ विद्वेषपूर्ण प्रचार अभियान चलाया जा रहा है जो इससे सवाल पूछते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत पर भीड़तंत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है। मोदी सरकार के चार सालों की यही मुख्य झलक है।
किसी भी मुद्दे को ले लें – रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानों के मुद्दे, सामाजिक सौहार्द, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा – आरएसएस-समर्थित नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में इन सभी को सही तरीके से बताने के लिए इसे ‘असफलताओं का काल’ कहना होगा।
18 से 35 साल के युवा देश की जनसंख्या का 31.3 फीसदी है और इस तरह से हर तीसरा नागरिक इस आयु वर्ग में आता है, इसलिए रोजगार को हमारे नीति और उद्देश्य का मुख्य बिंदु होना चाहिए, लेकिन मौजूदा सत्ता ने उस मोर्चे पर सारी उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया है।
खुद को प्रधान सेवक कहने वाले पीएम मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान आगरा की एक रैली में एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था, लेकिन आंकड़े कुछ और बताते हैं। 2014-16 के श्रम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, यह सरकार वादे से बहुत कम नौकरियां दे रही है। 2015 में सिर्फ 1.55 लाख नई नौकरियां सृजित हुई हैं और 2016 में सिर्फ 2.31 लाख। 2009 में यूपीए शासन के दौरान सृजित हुए 10 लाख नौकरियों से इसकी तुलना करें। हमारी अर्थव्यवस्था 2004-09 के यूपीए-1 के शासन के दौरान 8.4 फीसदी की दर से आगे बढ़ी (आरजेडी उस गठबंधन सरकार का एक बड़ा अंग था)।
नोटबंदी के रूप में इस सरकार की आर्थिक नासमझी और गलत तरीके बनाई गई और बुरे ढंग से लागू हुई जीएसटी ने बड़े पैमाने पर आर्थिक विकास दर को धीमा कर दिया, कुछ त्रैमासिक आंकड़ों में यह 6 फीसदी से भी कम रहा।
दादरी में अखलाक की भीड़ द्वारा की गई हत्या सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी थी जो उदार, लोकतांत्रिक, समग्र और सबको जगह देने वाले भारत में भरोसा रखते हैं और एक फासीवादी और एकाधिकारवादी सत्ता ने केंद्रीय स्थान प्राप्त कर लिया है।
दो साल के भीतर मेरे राज्य बिहार में आरएसएस की दंगा मशीन 70 छोटी-बड़ी साम्प्रदायिक घटनाओं के लिए जिम्मेदार रही है जब से उन्होंने जनादेश को धोखा देकर सत्ता हासिल की है।
देश 1947 में जितना विभाजित था उतना ही आज है। मुसलमानों के अलावा दलित-आदिवासी संघ परिवार के निशाने पर हैं। नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण को अलग-अलग तरीके से कमजोर किया जा रहा है।
जहां तक किसानों का सवाल है, बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में यह वादा किया था कि उनके उत्पाद की लागत पर कम से कम 50 फीसदी लाभ उन्हें प्राप्त होगा। दुखद है कि सरकार ने किसानों से किए अपने ज्यादातर वादे को पूरा नहीं किया। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो 2015 में 12602 और 2016 में 11360 किसानों ने आत्महत्या कर ली।
यह वैश्विक रूप से स्वीकृत तथ्य है कि स्वास्थ्य और शिक्षा दो ऐसे मापडंद हैं जिनके आधार पर किसी भी शासन या सत्ताधारी पार्टी के काम का मूल्यांकन किया जाता है। भारत जैसा विकासशील देश जो बड़े पैमाने पर आगे बढ़ना चाहता है और वैश्विक नेता बनना चाहता है, वह इन मोर्चों पर बिना किसी असाधारण प्रदर्शन के ऐसा नहीं कर सकता। किसी को आश्चर्य नहीं होगा कि इन क्षेत्रों में तस्वीर काफी निराशाजनक हैं।
सत्ता में आने के बाद अपने पहले बजट के दौरान मोदी सरकार ने जन स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में 20 फीसदी कटौती कर दी। भारत फिलहाल अपनी सालाना जीडीपी का सिर्फ 1 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है।
शिक्षा में भी 2014-18 के दौरान आरएसएस-निर्देशित इस सरकार ने 50 फीसदी बजट की कटौती कर दी। उसके अलावा शिक्षा संस्थानों को संघर्ष का क्षेत्र बना दिया। असहमति की आलोचनात्मक आवाजों को व्यापक संघ परिवार के प्रशासकों द्वारा दबा दिया गया।
हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि इस बीजेपी सरकार में देश किधर जा रहा है। 2019 के लिए लड़ाई साफ है। यह गोडसे की भारत की समझ का प्रतिनिधित्व करने वाले आरएसएस-बीजेपी और गांधी-अंबेडकर के सपनों का भारत बनाने के लिए काम कर रहे सेकुलर और लोकतांत्रिक ताकतों के बीच होगा।
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