शासन-कुशासन के 4 साल: मोदी सरकार में बंधुत्व की भावना को सबसे ज्यादा नुकसान

नफरत फैलाने वाले भाषणों, धमकियों, उकसावे और हमलों के जरिये एक डरावना माहौल बनाया जा रहा है। इसका मकसद यह है कि सभी भारतीयों को भय दिखाकर एक तरह की जीवनशैली अपनाने के लिए बाधित किया जाए, जो समान आस्था और सांस्कृतिक व्यवहार पर आधारित हो।

फोटो: सोशल मीडिया
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हर्ष मंदर

जैसा कि हम जानते हैं भारत में तेजी से नफरत और कट्टरता फैलाई जा रही है और यह अब सामान्य बात हो गई है। नफरत फैलाने की इस कार्रवाई को ताकतवर उच्च नेतृत्व द्वारा समर्थन प्राप्त है जो लोगों को खुलकर और सार्वजनिक रूप से अपनी कट्टरता और नफरत को सामने रखने का माहौल मुहैया करा रही है। 70 साल पहले समानतावादी एकता के आधार पर बहुलतावादी, मानवीय और समग्र लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने के लिए जब हम साथ आए तो हमने शोषित, अपमानित जातियों और महिलाओं के खिलाफ क्रूरता और अलगाव के इतिहास को पीछे छोड़ने का संकल्प लिया और यह दावा किया कि हमारी सभ्यता के इतिहास का ज्यादातर हिस्सा विविधता और सहिष्णुता के साथ सहज था। हमने जो संविधान खुद को दिया उसमें यह वादा निहित था कि यह राष्ट्र उन सभी लोगों का है जो यहां पैदा हुए और जिन्होंने इसे चुना चाहे वे किसी भी आस्था, जाति, लिंग या वर्ग से ताल्लुक रखते हों। यह समतावादी, लोकतांत्रिक, मानवीय राजनीतिक संकल्प सभी लोगों की बिना भेदभाव के समान रूप से रक्षा करेगा और जिन्होंने भी यहां जन्म लिया या इस धरती को चुना, उन्हें जीवन में न्यायपूर्ण मौके मिले इसे सुनिश्चित करेगा।

लेकिन आज मोदी के भारत में मुसलमानों और ईसाईयों पर यह खतरा है कि वे सेकंड क्लास नागरिक न बन कर रह जाएं। हर जगह चाहे वह सड़क हो, कार्यस्थल हो, लोगों के कमरे हों, पड़ोसियों का घर हो, टेलीविजन स्टुडियों हों या इंटरनेट हो, वहां न सिर्फ मुसलमानों, बल्कि दलितों, आदिवासियों, ईसाईयों, महिलाओं, अफ्रीकीयों, पूर्वोतर के लोगों और उदारवादियों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली भाषा और भीड़ की हिंसा को बढ़ावा देने का माहौल बनाया जा रहा है।

नफरत फैलाने वाले भाषणों, धमकियों, उकसावे और हमलों के जरिये एक डरावना माहौल बनाया जा रहा है। इसका मकसद यह है कि सभी भारतीयों को भय दिखाकर एक तरह की जीवनशैली अपनाने के लिए बाधित किया जाए, जो समान आस्था और सांस्कृतिक व्यवहार पर आधारित हो। इसमें आपके खाने, पहनने, काम करने, प्यार करने और सोचने पर हिंसक रोक लगी है।

इस तरह के मुश्किल समय से जूझने के मामले में भारत के लोग अकेले नहीं हैं। यह समय पूरे विश्व में अशांति का है। दुनिया के कई देश नफरत और कट्टरता के जाल में फंस गए हैं। एक के बाद एक कई देशों में ऐसे नेता आ रहे हैं और लोग उन्हें चुन रहे हैं जो एकाधिकारवादी, उग्र-राष्ट्रवादी, विस्थापितों, अल्पसंख्यकों और इस्लाम के विरोधी और गरीबों के प्रति बेपरवाह हैं। एकाधिकारवादी तानाशाहों ने एकाधिकारवादी नेताओं को आगे बढ़ाया है जिन्हें मतदाताओं के पर्याप्त हिस्से का समर्थन भी प्राप्त है, जिससे यह नेता सत्ता प्राप्त कर रहे हैं या जैसा कि फ्रांस में हुआ, वे सत्ता प्राप्त करने के करीब पहुंच रहे हैं। कई देशों में जहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है, उन देशों के नागरिक भी एकाधिकारवादी सत्ता के अधीन रह रहे हैं जो अल्पसंख्यकों की राजनीतिक और धार्मिक असहमति के प्रति असहिष्णु है। दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र भारत और अमेरिका, और युरोप का एक बड़ा हिस्सा भी मुस्लिम नाम वाले लोगों के लिए एक धमकी देने वाली और प्रतिकूल जगह बनता जा रहा है। विश्व के कई देशों में मुसलमान के रूप में जन्म लेना कलंक, भेदभाव, अलगाव और हिंसा की लटकती तलवार के असहनीय और अन्यायपूर्ण बोझ तले होना है।

आज के भारत में हम देख रहे हैं कि कैसे मुसलमानों, ईसाईयों और कई दलित लोगों को व्यवस्थित ढंग से समान नागरिकता से वंचित किया जा रहा है। भारतीय संवैधानिक संकल्पों का ऐसा क्षरण और विनाश भारतीय राजनीतिक और राज्य संस्थानों के बिना पर्याप्त विरोध के हुआ, जिसमें न्यायालय, मीडिया और आम लोग शामिल हैं। यह मुझमें गहरी तकलीफ और असंतोष पैदा करता है। इन सबमें मुझे एकजुटता की भावना की गहरी असफलता दिखती है। मैं यह मानता हूं कि हमारे भीतर चलने वाला यह संघर्ष एक निर्णायक दौर में पहुंच गया है, और यह बहुत लंबे समय से हो रहा था क्योंकि तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाईं, इसलिए भारतीय जनता खुद को इस स्थिति में पा रही है। इन राजनीतिक पार्टियों के लिए सेकुलर और समानतावादी लोकतंत्र एक नैतिक सिद्धांत की बजाय अवसरवाद और चुनावी गणित का औजार रहा है।

हाल के वर्षों में ध्रूवीकरण करने वाले नेतृत्व के उभार को लेकर मैं चिंतित हूं – कई देशों में इसी तरह के नेतृत्व ने सत्ता हासिल की है जो विभाजन को खत्म नहीं करते, बल्कि नफरत और कट्टरता को सही ठहराते हैं। इसके अलावा मैं सबसे ज्यादा चिंतित इस बात से हूं कि भारत में जन प्रतिरोध की आवाजें काफी दबी और कम हैं। हाल के वर्षों में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ संगठित तौर पर नफरत फैलाने की कोशिशों के बीच मुझे इस बात की भी चिंता है कि बहुसंख्यक आबादी ने अपने पड़ोसियों पर हमला करने और उन्हें कलंकित करने के अभियान में तो हिस्सा नहीं लिया, लेकिन हमने ऐसी कोशिशों का विरोध भी बहुत कम किया।

हमने कथित गौ-रक्षकों – और हरियाणा और उत्तर प्रदेश में वर्दीधारी पुलिस वालों – को इस अफवाह के बहाने मुसलमानों और दलितों पर हमला करने दिया कि वे गौ-मांस खाते हैं। नफरती हिंसा के चलते मुजफ्फरनगर से 50 हजार मुसलमान बाहर निकाल दिए गए, और एकमात्र विरोध हमने यह सुना कि हिंदुओं ने दूसरी जगह पर उनके बसने को इसलिए गलत ठहराया कि वे जहां भी जाते हैं, वहां समस्याएं पैदा करते हैं और इससे अपराध की स्थिति खराब हो गई है। देश के कई हिस्सों से यह खबरें आईं कि कई सारे मुसलमान बकरीद पर पशु बलि देने के अपने सालाना अनुष्ठान को करने से डरे हुए थे क्योंकि उन्हें ऐसा लगा कि गौ-हत्या के नाम पर उन पर हमला किया जाएगा। युवा मुसलमानों को आतंकी हिंसा के गलत आरोपों के आधार पर अभी भी सालों जेल में रखा जा रहा है और कोई भी कट्टरता द्वारा चुरा लिए गए उनके वर्षों को वापस नहीं लौटा सकता, लेकिन हम यह भरोसा करते हैं कि अगर मुसलमान युवक निर्दोष हैं तब भी सरकार का आतंकी अपराधों के मामले में उन पर संदेह करना वाजिब है। उच्च-सुरक्षा वाले भोपाल जेल में बंद 8 लोगों को 2016 की सर्दियों में पास से गोली मार दी गई और यह दावा किया गया कि उन्होंने चम्मच से टूथब्रश और चाकू के जरिये चाभी बना ली थी, फिर भी कोई विरोध नहीं हुआ। 2016 के ही शरद में, देश की सुरक्षा एजेंसियों ने कश्मीर के जन प्रतिरोध में छात्रों द्वारा पत्थर फेंकने का जवाब पेल्लेट बंदूकों से दिया, जिससे कई युवा अंधे और अपंग हो गए। युवा नागरिक प्रतिरोधों के खिलाफ अपनाए गए इस ताकतवर सैन्यवाद को देशभक्ति करार दिया गया। भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूद गुड़गांव में इन दिनों बड़े पैमाने पर खुले में शुक्रवार की नमाज पढ़ने वाले मुसलमानों के खिलाफ एक अभियान चलाया जा रहा है, जबकि कई दशकों से बिना किसी रोक-टोक के यह होता रहा है क्योंकि शहर के बेतहाशा फैलने की वजह से वहां कई विस्थापित मुस्लिम मजदूर काम करने के लिए आए।

दर्शनशास्त्री-अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने इन सबको लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि अल्पसंख्यक समुदाय भारत में जो डर झेल रहे हैं उसे कतई बंधुत्व की खेती नहीं कहा जा सकता।

फिर भी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ताकतवर और उत्साही नेतृत्व के दौरान हम देखते हैं कि संवैधानिक सिद्धांतों को लेकर कई टकराव तो हुए, लेकिन बंधुत्व को लेकर कोई नहीं। लोकतंत्र को समृद्ध करने और आगे बढ़ाने में बंधुत्व की केन्द्रीयता बाबासाहेब अंबेडकर का एक बहुत मूल्यवान और गहरा विचार था। हमारे बीच आस्था, जाति, वर्ग, लिंग, भाषा, पहनावा, खान-पान, प्रेम, विवाह, तलाक, उत्सव, शोक को लेकर कई तरह की भिन्नता होते हुए भी हम आखिरकार एक हैं, क्योंकि हम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

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