आखिर क्यों छिपा रही है सरकार कोरोना से हर रोज होने वाली मौतों की संख्या, श्मशान घाटों पर तो नजर आ रही असली तस्वीर
मार्च-अप्रैल में जब लगभग कुछ नहीं था, तब इतना डरा दिया था कि जैसे प्रलय आ गया हो। और अब जब मौत का तांडव शहर- शहर, गली-गली हो रहा है, तब सरकार ऐसे दिखा रही है जैसे कुछ हो ही ही नहीं रहा है। हे ईश्वर! या तो इन्हें सदबुद्धि दे या हमें इन्हें समझने की समझ
कोरोना का खौफ ऐसा दिलो दिमाग पर तारी है कि पिछले कई महीने से मैं किसी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हुआ। मगर इस बार नजदीकी रिश्तेदारी में मौत के चलते जाना ही पड़ा। हालांकि गाजियाबाद में हिंडन नदी किनारे के इस अंत्येष्टि स्थल पर पिछले पचास सालों से जा रहा हूं लेकिन पहली बार ऐसा दृश्य देखा। प्रतिबंध के बावजूद श्मशान घाट पर बेतहाशा भीड़ थी और जीते जी लाइनों के फेर में पड़े रहे लोग मरकर अपनी अंत्येष्टि के लिए भी जमीन पर लाइन लगाकर पड़े हुए थे। सोशल डिस्टेन्सिंग किस चिड़िया का नाम है, कम-से-कम यह तो वहां किसी को नहीं पता था। आदमी पर आदमी चढ़ने जैसी हालत थी।
मेरे रिश्तेदार बेचैन हो रहे थे, इसलिए उनकी तसल्ली के लिए मोक्ष स्थली के प्रभारी पंडित मनीष शर्मा को फोन लगाना पड़ा। गनीमत रही कि वह तुरंत आ भी गए। उन्होंने बताया कि इस समय कोरोना से मरे लोगों का अंतिम संस्कार हो रहा है और सामान्य मृतकों का नंबर बाद में आएगा। हमारा नंबर सामान्य वालों में छठा था। सुबह के साढ़े ग्यारह बजे थे और मनीष के अनुसार, अब तक कोरोना से मरे बारह लोगों का संस्कार हो चुका है। लंबी चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि आजकल बीस-बीस घंटे काम करना पड़ रहा है। सामान्य दिनों में पंद्रह से बीस शव यहां आते थे। मगर आजकल इनकी संख्या साठ तक पहुंच जाती है।
उनके मुताबिक, कोरोना से संक्रमित शव केवल वे माने जाते हैं जो सीधे विभिन्न अस्पताल से कोरोना मृतक के रूप में यहां आते हैं। घर में मरे व्यक्ति को- चाहे वह कोरोना से ही क्यों न मरा हो, सामान्य मृतक ही माना जाता है। उन्होंने बताया कि शवों की अधिक संख्या के कारण आजकल तकरीबन 20-22 शव यहां से प्रतिदिन लौट भी जाते हैं जिनका अंतिम संस्कार संभवतः यहां से 70 किलोमीटर दूर गढ़ गंगा ले जाकर किया जाता है।
कहना न होगा कि इस श्मशान घाट पर मुस्लिमों और ईसाइयों के शव नहीं लाए जाते। अतः उनकी प्रतिदिन की गिनती की किसी को कोई जानकारी नहीं थी। दफनाए अथवा नदी में बहाए गए बच्चों के शवों का आंकड़ा भी किसी के पास नहीं। शहर से सटे अधिकांश बड़े गांवों में अपने अलग श्मशान घाट हैं और वहां हो रहे अंतिम संस्कारों का भी कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इस घाट के स्टाफ की मानें तो शहर में आजकल प्रतिदिन कम-से-कम 100 लोगों की मौत हो रही है और उनमें से लगभग एक तिहाई कोरोना के मरीज होते हैं। मगर नवंबर के आखिरी दिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक गाजियाबाद जिले में ही मात्र 93 लोगों की मौत कोरोना से हुई है। हां, यह बात और है कि कोरोना पिछले आठ महीने से मौत का तांडव कर रहा है। और हम-आप जानते हैं, हम सबका ऐसा अनुभव भी है कि ऐसा लगभग रोज और हर शहर में दिख रहा है।
आलम यह है कि कोरोना से मरे लोगों की इतनी बड़ी तादाद को देखते हुए यहां अंत्येष्टि के लिए बिजली के संयंत्र को पूरी तरह ऐसे शवों के लिए ही रिजर्व कर दिया गया है। मगर अकेले उससे काम नहीं चल रहा, इसलिए पास की जमीन पर लकड़ियां लगाकर भी प्रतिदिन कोरोना से कुछ मरे लोगों की अंत्येष्टि की जा रही है। देर से ही सही, शुक्र है कि इस पुराने हिंडन श्मशान घाट पर अंत्येष्टि के लिए आधा दर्जन नए चबूतरे तत्काल बनाने पर दिसंबर के पहले सप्ताह में काम शुरू करने की तैयारी चल रही है ताकि अंतिम संस्कार के लिए लोगों को कतार में न लगना पड़े।
फिर भी, कई तरह की अन्य व्यवस्थाओं पर भी तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है। अब जैसे, हम लोग जब यहां इंतजार कर रहे थे, तो यह पता ही नहीं किया जा सकता था कि कौन कोरोना मरीज के साथ आया है और कौन सामान्य मृतक के साथ। सभी एक ही जगह खड़े या बैठे थे। लोगों को अलग-अलग बैठाने की कोई व्यवस्था कम-से-कम यहां तो नहीं ही थी। भगवान न करे कि रोज ऐसा हो, पर उस दिन तो भीड़ भी सामान्य दिनों से दोगुनी दिखाई पड़ी। सामान्य दिनों में एक से डेढ़ घंटे में किसी शव का नंबर आ जाता है, पर अतिरिक्त व्यवस्था के बावजूद मेरे रिश्तेदार को अंत्येष्टि में पांच घंटे से अधिक समय लगा।
इन दिनों शवों को अंत्येष्टि स्थल तक लाना भी दुश्कर हो गया है। चूंकि मरने वालों की संख्या ज्यादा है, तो स्वयं सेवी संस्थाओं के शव वाहनों को व्यस्त रहना पड़ रहा है। यूपी सरकार ने फ्री एम्बुलेंस की व्यवस्था की हुई है, पर सब जानते हैं कि इस फ्री सेवा के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है और कितना खर्च करना पड़ता है। इसका फायदा वैसे कई लोग उठा रहे हैं जो एम्बुलेंस सर्विस का कारोबार करते हैं।
वैसे, दशकों तक विभिन्न अखबारों में फील्ड रिपोर्टिंग की है, तो मरने वालों की संख्या के सरकारी आंकड़ों की हकीकत मैं भली-भांति समझता हूं। उस दौरान हुए किसी भी हादसे या दंगों में मरने वालों की तादाद बेशक हम संवाददाताओं को अपने-अपने अखबारों में कुछ भी छापनी पड़ी हो, हम रिपोर्टर आपस में तो यही चर्चा करते थे कि सरकारी आंकड़े में एक शून्य और जोड़ लें तो मरने वालों की सही संख्या निकल आएगी। और पत्रकार ही क्यों, यह बात तो आम आदमी भी अब जानता-बोलता है। सोशल मीडिया की कृपा से देश भर के श्मशान घाटों की खबरें और वीडियो लगभग रोज ही आंखों के सामने से गुजर रहे हैं, मगर मृतकों का सरकारी आंकड़ा ऐसे ही मैनेज हो रहा है जैसे तमाम प्रदेश सरकारें अपने यहां हुए अपराधों के आंकड़ों को करती हैं। जैसा राजधानी के बाजू वाले गाजियाबाद में दिख रहा है, देश भर का सूरते हाल वैसा नहीं होगा, यह मानने की कोई वजह मेरे पास नहीं है।
समझ नहीं आ रहा कि सच्चाई को छुपाया क्यों जा रहा है? महामारी दुनिया भर में फैली है तो इसमें नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ या किसी भी अन्य सरकार का क्या दोष? सही जानकारी लोगों तक पहुंचे, तो शायद लोग-बाग डरें भी और कोरोना को लेकर कम-से-कम ऐसी लापरवाही न बरतें जैसी आजकल दिखाई पड़ रही है। लोग बिना मास्क लगाए या बिना सोशल डिस्टेन्सिंग का खयाल रखे, ऐसे बिंदास घूम रह हैं, मानो उन्हें किसी रोग का कोई डर ही न हो जबकि हर आदमी को आसपास, नाते-रिश्तेदार, दोस्त-करीबी के अचानक गुजर जाने की सूचनाएं बराबर मिल रही हैं।
सच कहूं तो इन दिनों सरकारों की माया किसी की भी समझ से बाहर है। मार्च-अप्रैल के महीने में जब लगभग कुछ नहीं था, तब इतना डरा दिया था कि जैसे प्रलय आ गया हो। और अब जब मौत का तांडव शहर- शहर, गली-गली हो रहा है, तब ऐसा अभिनय कर रहे हैं कि जैसे कुछ हो ही ही नहीं रहा है। हे ईश्वर! या तो इन्हें सदबुद्धि दे या कम-से-कम हम-जैसे सामान्य लोगों को ही इतना हुनर दे दे कि हम इनकी माया को समझ सकें।
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