बिलकिस बानो केस में जो हुआ, वो कोर्ट, सरकार और समाज सबके लिए शर्मिंदगी का कारण

सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को सजा देने के साथ सरकार को बिलकिस बानो को 50 लाख रुपये देने, उसकी मर्जी वाले शहर में घर देने और उसे सरकारी नौकरी देने को कहा था। बिलकिस को पैसे तो मिल गए, लेकिन आदेश के अनुसार अन्य चीजें 5 साल बाद भी नहीं मिली हैं।

फोटोः GettyImages
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शालिनी सहाय

बिलकिस बानो की अधिवक्ता शोभा गुप्ता कहती हैं कि वह ऊपर वाले के हस्तक्षेप की वजह से ही बच पाईं। वह पूछती हैं कि उसके बच जाने की और क्या वजह हो सकती है जबकि उसकी आंखों के सामने उसके परिवार के लोगों और उसकी पहली बच्ची की हत्या कर दी गई, उसकी मां और अन्य महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए, उसके साथ गैंगरेप किया गया और उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। उसने शव से कपड़े खींचकर अपना तन ढंका और न्याय के लिए संघर्ष करते हुए अपनी कहानी दुनिया को बताई।

बिलकिस बानो अब 35 साल की हो गई है। वह दवाओं के सहारे जिंदा है। उसे लोगों और खास तौर से किसी किस्म की भीड़ का सामना करने में मुश्किल होती है। गुप्ता याद करती हैं कि सिर्फ इस वजह से लीगल टीम ने फांसी की सजा की मांग करने और आजीवन कारावास की सजा के खिलाफ अपील न करने का फैसला किया क्योंकि उन लोगों ने निर्णय लिया कि जो हो गया, वह बहुत है- बिलकिस बानो शांति से रहने की अधिकारी है और उसे एक अन्य संघर्ष और दिल दहला देने वाली घटना के विवरणों को दुहराना नहीं चाहिए।

इस मुकदमे में 11 लोगों को आजीवन कारावास का दंड दिया गया। उससे उन्हें मुक्त कर दिया गया है और वे सभी 15 अगस्त को आजाद हो गए हैं। इसके साथ ही घड़ी की सुई वापस वहीं पहुंच गई है। इस दंडमुक्ति के खिलाफ पूर्व सीपीएम सांसद सुभाषिनी अली, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोईत्रा, पूर्व कुलपति और सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा समेत कई लोगों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दी गई हैं। कानूनी विशेषज्ञ कह रहे हैं कि बिलकिस बानो भी इस ‘कानूनी लेकिन अन्यायपूर्ण’ दंडमुक्ति को चुनौती दे सकती हैं।

पूर्व आईएएस अफसर और सोशल ऐक्टिविस्ट हर्ष मंदर ने अपनी किताब ‘बिटवीन मेमोरी एंड फॉरगेटिंगः मैसैकर एंड द मोदी ईयर्स इन गुजरात’ में उन लोमहर्षक पीड़ाओं के बारे में विस्तार से जानकारी दी है जिन्हें बिलकिस बानो ने झेला। बिलकिस का परिवार एक ट्रक में गांव जा रहा था, जब 20 से 30 लोगों की भीड़ ने उन पर हमला किया। लोगों ने बिलकिस से तीन साल की बच्ची को छीन लिया और उसका सिर जमीन पर पटक दिया। उस बच्ची की जान निकल गई। उस वक्त बिलकिस की उम्र 21 साल थी और वह पांच माह की गर्भवती थी। उसके गांव के ही तीन लोगों ने बिलकिस का बलात्कार किया।

सेड्रिक प्रकाश ने काउंटर व्यू में उस घटना को लेकर बिल्किस के शब्दों में ही विवरण दिया हैः ‘हमलोगों के साथ जो चार पुरुष थे, उन सबकी हत्या कर दी गई। मेरी 3 साल की बच्ची मेरी गोद में थी। उनलोगों ने उसे झपट लिया और उसे पूरे जोर से हवा में उछाल दिया। उसका सिर पत्थर से कुचल गया। चार लोगों ने मेरे हाथों और पैरों को पकड़ लिया और कई अन्य लोगों ने मेरे साथ बलात्कार किया। जब उनकी वासना पूरी हो गई, तो उनलोगों ने मुझे लात मारी और मेरे सिर पर लोहे की रॉड दे मारी। उन लोगों को लगा कि मैं मर गई हूं इसलिए उन लोगों ने मुझे झाड़ियों में फेंक दिया।’ ‘चार या पांच घंटे बाद मुझे होश आया। मैंने इधर-उधर बिखरे कपड़ों से अपना तन ढंकना चाहा लेकिन ऐसा कुछ मिला नहीं। मैंने पहाड़ी पर बिना भोजन-पानी के डेढ़ दिन बिताए। मैं मृत्यु चाहती थी। अंततः, मुझे एक आदिवासी कॉलोनी दिखी। मैंने वहां खुद को हिन्दू बताकर शरण चाही।’


बिलकिस आगे कहती हैं, ‘जिन लोगों ने मुझ पर हमला किया, वे गालियां बक रहे थे। मैं उन्हें कभी दोहरा नहीं सकती। मेरे सामने उन लोगों ने मेरी मां, बहन और 12 अन्य रिश्तेदारों को मार डाला। हम लोगों के साथ बलात्कार करते और हत्या करते हुए वे सेक्सुअल गालियां दे रहे थे। जिन लोगों ने मेरे साथ बलात्कार किया, उन्हें मैं कई साल से जानती थी। हम उन्हें दूध बेचते थे। वे हमारे ग्राहक थे। मैं कैसे उन्हें माफ कर सकती हूं?’

इस मामले को दर्ज करने में आनाकानी, एफआईआर में घटना और साक्ष्य को इस तरह दर्ज करना ताकि दोषियों को संदेह का लाभ मिले, मेडिकल और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट्स में जरूरी विवरणों को गायब करना, चूंकि सभी शवों को पुलिस ने ही दफनाया था इसलिए जरूरी साक्ष्यों को नष्ट करना; सबके सिरों को कुचल देना, उसकी तीन साल की बच्ची के शव को गायब कर देना- सबकुछ हुआ। अभियोजन पक्ष ने आरोपियों की ही मदद की। शायद इन सब वजहों से भी निचली अदालत ने आरोपियों को निर्दोष करार दिया। और मुकदमा बंद हो गया!

भला हो, एनएचआरसी का

वह तो शुक्र हो न्यायमूर्ति जे एस वर्म का जो उस वक्त एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) के अध्यक्ष थे जिन्होंने 2003 में बिलकिस का आवेदन पाने के बाद स्वतत्रं जांच की। एनएचआरसी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने बिलकिस का मामला उठाने के लिए हाई-प्रोफाइल अधिवक्तता हरीश साल्वे से अनुरोध किया। 2004 में केस दोबारा खुला और इसे सीबीआई को भेज दिया गया। उसी साल 20 में से 12 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और सुनवाई अहमदाबाद में आरंभ हुई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि उचित सुनवाई अहमदाबाद में संभव नहीं है, तो उसने सुनवाई मुंबई में करने का आदेश दिया।

मामले में 2008 में 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस मुकदमे में साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने के लिए डॉक्टरों और पुलिस वालों को छोड़ दिया गया था लेकिन मई, 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने उन्हें दोषी माना। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस को 50 लाख रुपये देने का आदेश दिया। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में इतनी बड़ी राशि किसी बलात्कार पीड़िता को कभी नहीं दी गई है। उस वक्त के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने राज्य सरकार को बिलकिस को उसकी इच्छा की जगह पर घर और एक नौकरी देने को भी कहा। पैसे तो बिलकिस को मिल गए लेकिन पांच साल बाद भी गुजरात सरकार इन दोनों में से किसी आदेश को पूरा नहीं कर पाई है। बिलकिस ने अनुरोध किया है कि चूंकि वह निरक्षर है, उसके पति को नौकरी दे दी जाए। उसे अब तक इसका कोई उत्तर नहीं मिला है।

इस मामले में 11 दोषियों को दंडमुक्ति देने वाली गोधरा जिले की 11 सदस्यीय जेल सलाहकार समिति के सदस्य हैं पूर्व बीजेपी विधायक सीके राउलजी। वैसे, इस समिति में एक और पूर्व बीजेपी विधायक सुमनबेन चौहान भी सदस्य हैं। इस समिति ने सर्वसम्मति से सजा में माफी का फैसला किया है। राउलजी यह कहते हुए माफी को उचित बताते हैं कि दोषियों पर ‘जानबूझकर झूठा आरोप लगाया गया हो सकता है।’ इसके साथ ही उन्हें मीडिया में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि ‘मैं नहीं जानता कि उन्होंने अपराध किया या नहीं। लेकिन उनका व्यवहार अच्छा था। उनके परिवार की गतिविधि अच्छी थी। वे लोग ब्राह्मण हैं। उनके संस्कार अच्छे होते हैं।’


गुजरात और केंद्र ने जानबूझकर मूंद ली आंखें

विभिन्न कोर्टों और एनएचआरसी ने समय-समय पर गंभीर मामलों, खास तौर से यौनिक हिंसा के दोषियों की सजाओं को माफ न करने की हिदायत दी हुई है। इनकी अनदेखी किसी तरह मान भी लें, तब भी गुजरात और केन्द्र सरकारों ने अपने ही नीतिगत फैसलों को लेकर किस तरह आंखें मूंद लीं, इसे समझने के लिए रॉकेट साइंस के ज्ञान की जरूरत नहीं है। 2013 में जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब राज्य सरकार ने 1992 की सजा माफी नीति में बदलाव किया और बलात्कार के आरोपियों और दोषियों को किसी किस्म की राहत के प्रावधान को समाप्त कर दिया था।

अभी जून, 2022 में केन्द्र सरकार ने आजादी के 75 साल पूरे होने पर जेल से रिहाई के संबंध में जो निर्देश राज्य सरकारों को जारी किए, उसमें भी बलात्कार के आरोपियों और दोषियों को माफी नहीं देने की बात कही गई थी। ऐसे में, इस बात पर आश्चर्य करने की जरूरत नहीं लगती कि मोदी या केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बिलकिस बानो मामले में अब तक एक शब्द भी बोलने की जरूरत क्यों नहीं समझी है!

वैसे भी, इंडियन एक्सप्रेस ने इनमें से कई दोषियों को बेटे की शादी, मां की सर्जरी आदि के नाम पर नियमित पैरोल या फरलो दिए जाने की रिपोर्ट दी है। इस सिलसिले में अधिकांश अनुरोध जिला प्रशासन से किए गए जो उन्हें जेल से बाहर निकलने की सुविधा उपलब्ध कराने में दरियादिली दिखाता रहा। लेकिन जब कभी जिला प्रशासन ने इस किस्म की सुविधा नहीं दी और उन लोगों ने कोर्ट में याचिका दी, तो अधिकांशतः उन्हें यह सुविधा नहीं ही मिली।

इस मुकदमे में दोषी पाया गया राधेश्याम शाह दबंग माना जाता है। उसने ‘गृह प्रवेश समारोह’ में भाग लेने के लिए 28 दिनों के लिए पैरोल का अप्रैल, 2022 में निवेदन किया। गुजरात हाई कोर्ट के न्ययायाधीश एस.एस. सेफिया ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि शाह 29 जनवरी से 30 मार्च के बीच 60 दिन पैरोल पर गुजार चुका है। एक अन्य दोषी- केशर वोहानिया ने अपने बेटे की शादी में भाग लेने के लिए पैरोल की मांग की। मई, 2019 में गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश उमेश त्रिवेदी ने इस निवेदन को ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि वह सितंबर, 2018 और फरवरी, 2019 के बीच के छह महीनों में 90 दिन पैरोल पर रह चुका है।

गवाह भी मुश्किल में

इस मुकदमे में गवाह फिरोज घांची ने 11 दोषियों को पैरोल और फरलो दिए जाने के विवरण को लेकर आरटीआई आवेदन दायर किया। 20 अगस्त, 2020 को जेल के जन सूचना अधिकारी ने जवाब दिया कि यह ‘तीसरे पक्ष की सूचना’ है और अभियुक्तों की सहमति के बिना इसे साझा नहीं किया जा सकता। 2017 में गवाहों ने दाहोद के एसपी से शिकायत की थी कि दोषी पाए गए दो लोगों- राधश्याम शाह और केशर वोहनिया के परिवार के लोग उन्हें जान से मार डालने की धमकियां दे रहे हैं। दोषी लोग बदला लेने वाले हैं और जान लेने की धमकियां लगातार दे रहे हैं। 2018 में अभियोजन पक्ष के 8 गवाहों समेत रंदिकपुर गांव के कम-से-कम 16 लोगों ने दाहोद के कलेक्टर को शिकायत की कि पुलिस उन लोगों पर दोषियों के पक्ष में बयान दर्ज कराने का दबाव बना रही है।

फरवरी, 2021 में गुजरात के गृह राज्यमंत्री प्रदीपसिंह जडेजा को लिखे पत्र में रंदिकपुर के अब्ददुल रज्जाक अंसारी ने शिकायत की कि इस मुकदमे में दोषी सिद्ध किए गए लोग गवाहों को धमकाने के अलावा ‘राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने, अपना व्यापार संभालने और अपने बंगले बनवाने में जेल से बाहर रहने का समय बिता रहे हैं।’

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