झेंपते-झिझकते खाना मांगते लोगों की नजर से देखें, ढाई महीने के लॉकडाउन में क्या से क्या हो गया
मई के पहले सप्ताह में सीएमआईई के सर्वे में बताया गया कि लॉकडाउन के बाद बेरोजगार होने की दर 27.1 प्रतिशत है। लॉकडाउन में ढील के बाद अभी कुछ चीजें खुली तो हैं लेकिन सीएमआईई का जून के पहले हफ्ते का आकलन है कि 2.1 करोड़ लोगों को ही रोजगार मिल सका है। बेरोजगारी की दर अब भी 23.5 प्रतिशत ही है।
उस दिन निकला और सड़क किनारे जैसे ही गाड़ी रोकी, लगा कि किनारे खड़ा एक व्यक्ति टकटकी लगाए देख रहा है। डर लगा कि पता नहीं, यह आदमी घूर क्यों रहा है। लॉकडाउन के बाद से बेरोजगारी वगैरह इतनी बढ़ गई है कि लगा, यह आदमी खतरनाक न हो। पर सड़क पर आवाजाही ठीकठाक थी और यह आदमी अकेला लगा, तो साहस बढ़ा।
उतरने से पहले गाड़ी का शीशा थोड़ा नीचे उतारकर इशारे से उसे पास बुलाया और सिर उचका कर इशारे से पूछा कि क्या है। लगा, वह लजा गया है। उसने अपना पेट सहलाया। समझ में आ गया कि उसे भूख लगी है। वॉलेट से पचास का नोट निकालकर मैंने बहुत सतर्कता के साथ शीशे से बाहर निकालकर लेने को कहा। उसने धीमे से कहाः ‘पैसे मत दो, बाबूजी। खाने को दे दो।’
संयोगवश गाड़ी जहां रुकी थी, वहीं पर खोखा था जिस पर चिप्स, बिस्कुट वगैरह के पैकेट लटके थे। खोखा वाले को बुलाकर कहा कि इसे जो चाहिए, दे दो और पैसे मुझसे ले लो। उसने ब्रेड का एक पैकेट लिया और आभार की नजरों से हम लोगों की ओर देखा। मैंने खोखे वाले को उसे बिस्किट और मिक्स्चर के भी दो पैकेट देने का कहा। लगा, उसकी आंखों में पानी छलक आए हैं। वह थोड़ी दूर जाकर ब्रेड खाने लगा। उसकी आंखें झु की रहीं, पर जितनी देर हम लोग वहां रुके, लगा कि वह कृतज्ञ भाव से धन्यवाद ही कह रहा है।
ऐसा आम तौर पर नहीं होता। जो पारंपरिक भिखारी हैं, उनके मांगने की अदा से ही समझ में आ जाता है कि यह उनका पेशा है। भागलपुर के राजीव रंजन ने मध्य अप्रैल में ही जब यह फेसबुक पोस्ट किया था, तो लगा था, छोटे शहरों में ही यह हो रहा होगाः ‘वर्षों बाद रोटी के लिए किसी को भीख मांगते हुए मैंने देखा’। मुझे याद नहीं आता कि हाल के वर्षों में किसी भिखारी ने दरवाजे पर रोटी के लिए दस्तक दी हो। यज्ञ के नाम पर या फिर अजमेर शरीफ में चादर चढ़ाने के लिए जरूर चंदा मांगने लोग आए, मगर रोटी के लिए कोई व्यक्ति बहुत दिनों बाद आया।’ लेकिन, लगता है, अब तो ऐसा सब जगह है।
रवि अरोड़ा गाजियाबाद में रहते हैं। उनका कहना है किः ‘मैंने दशकों पहले भीख देनी बंद कर दी, क्योंकि सयाने लोग बताते रहे हैं कि भिखारियों के गिरोह होते हैं और ये लोग हमसे ज्यादा कमाते हैं। लॉकडाउन खुलने के बाद पहली बार जब घर से बाहर निकला तो मांगने वाले पहले व्यक्ति को देखकर मैंने उपेक्षा का आजमाया हुआ अपना हथियार निकाल लिया। मगर यह क्या, वह गिड़गिड़ाया नहीं, पास आकर चुपचाप ऐसे खड़ा हो गया जैसे उसके अनकहे शब्दों को समझने की जिम्मेदारी भी मेरी ही है। मैं हैरान रह गया। मैंने गौर से उसका हुलिया देखा, तो मांगने के उसके तरीके और झेंप से साफ नजर आ रहा था कि उसे भीख मांगने का अनुभव भी नहीं है।
उस दिन कई जगह गया। अधिकांश जगहों पर मांगने का तरीका देखकर यही लगा कि ये नए मांगने वाले लोग हैं, इन्हें भीख मांगनी नहीं आती और शायद पहली बार यह काम कर रहे हैं। कई महिलाएं ऐसी भी दिखीं जो भले घर की लगीं। छोटे बच्चे खाने-पीने के सामान की दुकानों के बाहर या आसपास झुंड बनाकर खड़े मिले जो आते-जाते लोगों से खाने की किसी चीज की फरमाइश कर रहे थे। दो महीने में ही यह क्या हालत हो गई देश की। भले लोग भी अब भीख मांगने पर मजबूर हो रहे हैं!’
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मई के पहले सप्ताह में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि लॉकडाउन के बाद बेरोजगार होने की दर 27.1 प्रतिशत है। जिस तरह से कारखाने ही नहीं, तमाम चीजें बंद हो गईं, समझा जा सकता है कि असंगठित क्षेत्र के लोगों की कितनी बड़ी आबादी किस तरह बेरोजगार हो गई। असंगठित क्षेत्र में कम-से-कम 35 करोड़ लोगों के काम करने का अनुमान है। लॉकडाउन में ढील के बाद अभी कुछ-कुछ चीजें खुली तो हैं लेकिन सीएमआईई का जून के पहले हफ्ते का आकलन है कि 2.1 करोड़ लोगों को ही रोजगार मिल सका है। उसने बेरोजगारी की दर अब भी 23.5 प्रतिशत ही रखी है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने भी 10 सिविल सोसाइटी संगठनों के साथ मिलकर कई शहरों में किए सर्वेक्षणों के बाद मई के दूसरे हफ्ते में पाया था कि लॉकडाउन के दौरान शहरी क्षेत्रों में 10 में से 8 व्यक्ति जबकि ग्रामीण इलाकों में 10 में से 6 लोगों की नौकरी चली गई। शहरी क्षेत्रों में स्वरोजगार सेक्टर के 84 लोगों के रोजगार जाते रहे, जबकि 76 प्रतिशत सैलरी वालों और 81 प्रतिशत कैजुअल कर्मचारियों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। ग्रामीण इलाकों में भी 66 प्रतिशत कैजुअल और 62 प्रतिशत सैलरी वालों की नौकरी जाती रही। सोचिए, जब चतुर्दिक यह हाल हो, तो आदमी करेगा क्या!
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ऐसी ही वजह से वे मजदूर मौका मिलते ही फिर शहर लौटने को अभी ही विवश हो रहे हैं जो एक-डेढ़ माह पहले ही बीवी-बच्चों के साथ जी-जान हदकर पांव-पैदल अपने गांव-घर लौट थे। बिहार के एक गांव वाले से हालात जानने पर कई परतें खुलती हैंः ’रात के करीब 11 बजे एक बेहद लक्जरी बस मेरे गांव आई और करीब 70 लोगों को मजदूरी करने हरियाणा और पंजाब ले गई- उसी मालिक के पास जहां से वे आए थे।’’
जा रहे एक व्यक्ति ने पहले तो कहा कि उसे अपने मालिक पर पूरा भरोसा है, लेकिन जरा-सा कुरेदने पर वह फट पड़ा कि ‘जाना कौन चाहता है? करीब दो माह से कोई काम नहीं मिला। यहां तो 100 रुपये की मजदूरी पर भी काम नहीं मिल रहा। यदि अब भी नहीं गया, तो परिवार भूखा मर जाएगा।’
यह हाल उस राज्य का है जहां सुशासन के दावे कर इस मुश्किल समय में भी खम ठोककर अगले चुनाव की तैयारी कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके मंत्री दूसरे राज्यों से लौटने वाले सभी मजदूरों को रोजगार देने की बात कहते नहीं थक रहे। लगभग उद्योगविहीन राज्य में ऐसा कर पाने को सोचने की बात पर शायद किसी को भी हंसी ही आएगी। लेकिन यही हाल तो मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश- सब जगह है। किस-किस पर हंसेंगे और किस-किस पर रोएंगे!
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