पश्चिम बंगाल की हड़ताल राजनीति से थी प्रेरित? आईएमए की नीयत पर देश भर में उठे सवाल
आईएमए के हड़ताल अभियान को पश्चिम बंगाल में हाल फिलहाल घट रहे राजनीतिक घटनाक्रम से जोड़ा जा रहा है। जानकार मानते है कि यह हड़ताल पूरी तरह राजनीति से प्रेरित थी और एक राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने के लिए की गई।
देश भर में डॉक्टरों की हड़ताल के बाद उनके हितों की रक्षा करने का दावा करने वाली संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की नीयत पर लगातार सवाल उठ रहे है। यह सवाल जनता खड़ा कर रही है। आईएमए के हड़ताल अभियान को पश्चिम बंगाल में हाल फिलहाल घट रहे राजनीतिक घटनाक्रम से जोड़ा जा रहा है। जानकार मानते है कि यह हड़ताल पूरी तरह राजनीति से प्रेरित थी और एक राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने के लिए की गई।
बता दें कि एक हफ्ते पहले कोलकाता में एक जूनियर डॉक्टर से मारपीट के बाद पश्चिम बंगाल, गुजरात समेत कई राज्यों के हजारों डॉक्टर हड़ताल पर चले गए थे। ऐसा आईएमए के आह्वान पर हुआ था। एम्स भी इससे प्रभावित हुआ था। यह हड़ताल ऐसे समय पर हुई थी, जब देश बिहार में चमकी बुखार से गमजदा था और भारी आशंका से घिरा हुआ था। दो दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के डॉक्टरों के साथ की गई बातचीत के बाद हड़ताल खत्म कर दी गई थी।मगर आज पश्चिम बंगाल के ही हल्दिया में कुछ और डॉक्टरों के साथ हुई मारपीट के बाद हड़ताल फिर से हो रही है।
आईएमए की इस हड़ताल के बाद देश भर में उनकी आलोचना हो रही है। इस आलोचना का असर सोशल मीडिया पर भी देखा जा सकता है। सबसे पहला सवाल गोरखपुर में बच्चों के लिए अपने पास से ऑक्सीजन की व्यवस्था करने वाले निलबंन झेल रहे डॉक्टर कफील खान ने उठाया है।
उन्होंने 15 जून को ट्वीट करते हुए अपने उत्पीड़न पर आईएमए के चुप रहने पर सवाल खड़ा किया।डॉ. कफील खान के मुताबिक, उन्होंने ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की हो रही मौत को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया था, लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने गलत तरीके से निलंबित कर दिया। उन्होंने कहा कि बेगुनाह होने के बावूजद मैं 6 महीने तक जेल में रहा। उन्होंने कहा कि इस मामले की जानकारी होने और मामला चर्चित होने के बावूजद आईएमए की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई। फिलहाल डॉक्टर कफील मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार के कहर से मानवता के नाते लड़ रहे हैं और बच्चों का मुफ्त इलाज कर रहे हैं।
महाराष्ट्र की दलित एक्टिविस्ट डेजी कुमारी के मुताबिक, इसी तरह की चुप्पी आईएमए ने डॉक्टर पायल तड़वी के मामले में भी दिखाई है। गौरतलब है कि जून महीने में आदिवासी भील समाज से आने वाली पहली डॉक्टर पायल तड़वी ने अपने सीनियर डॉक्टर के जातीय टिपण्णी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। डेजी कुमारी के मुताबिक, यह एक बेहद दर्दनाक घटना थी। इसपर आईएमए को जबरदस्त प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी क्योंकि यह हजारों सपनों का क़त्ल था मगर आश्चर्यजनक से आईएमए नींद से नही जाग पाया।
इसके अलावा पिछले एक साल में एक दर्जन से ज्यादा मामलों में डॉक्टरों के मारपीट हुई है। जैसे 13 जुलाई को 2018 को दिल्ली के राव तुलाराम अस्पताल में डॉक्टर और पुलिसकर्मियों की पिटाई के समय आईएमए ने कोई प्रतिक्रिया नही दी थी।
सेक्युलर फ्रंट के गौहर सिद्दीकी के मुताबिक, 2017 में बीजेपी के सांसद अनंत हेगड़े ने कारवाड़ में डॉक्टर की पिटाई कर दी। यह मामला काफी गरमाया था, लेकिन आईएमए यहां भी सोती रही। जाहिर आईएमए का विरोध सेलेक्टिव है। यही नही इसी साल 25 मई को पुणे के डीवाई पाटिल अस्पताल में एक डॉक्टर और उसके सहयोगियों को मरीजों के तीमारदारों ने दौड़ा-दौड़ाकर पीटा।इसके बाद भी आईएमए की प्रतिक्रिया नही आई।
सहारनपुर के एडवोकेट सज्जाद हुसैन के मुताबिक, स्थानीय मेडिकल कॉलेज में जूनियर डॉक्टर्स सालों से तनख्वाह न मिलने से जूझ रहे हैं कई बार वे धरने पर बैठ चुके हैं। उन्होंने अपनी तरफ से हर तरह का प्रयास किया है। कई दूसरे मेडिकल कॉलेज में इसी तरह की स्थिति है मगर आईएमए ने इस और भी कभी ध्यान नही दिया है।
दरअसल आईएमए के खिलाफ सोशल मीडिया पर पूरा एक तूफान खड़ा हो गया है। लोग पूछ रहे हैं कि 2018 की शुरुवात में अहमदाबाद में ही एक डॉक्टर की पिटाई की गई थी लेकिन तब वहां के डॉक्टर हड़ताल पर नही गए थे जबकि आज कोलकाता में घटना होने के बाद गुजरात के डॉक्टर हड़ताल पर है।
आईएमए का इतिहास कहता है कि वो महिला डॉक्टरों की पिटाई पर भी शांत रही है जैसे जयपुर के एच डी कावंड़िया अस्पताल में इसी 5 जून माह को खून लेनी पहुंची एक महिला डॉक्टर के साथ मारपीट की गई थी।आईएमए कोलकाता की घटना से मात्र 10 दिन पुरानी है।
रिटायर्ड चिकित्सा अधिकारी आरबी सिंह के मुताबिक आईएमए डॉक्टरों के हितों के लिए संघर्ष करने वाली संस्था है उसका मकसद यही होना चाहिए मगर हाल फिलहाल ऐसा लगता है कि वो भी राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना बन गई है।
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