उत्तराखंडः हल्द्वानी में बेघर होने की आशंका में 50 हजार लोग सड़कों पर, सुप्रीम कोर्ट में 5 जनवरी को सुनवाई
जिस 78 एकड़ जमीन पर रेलवे दावा कर रहा है वहां करीब 100 साल से लोग रह रहे हैं और यहां लगभग 4300 मकान, दो मंदिर, 8 मस्जिद, 2 गेस्ट हाउस, 3 सरकारी स्कूल और 5 प्राइवेट स्कूल के अलावा कई धर्मशालाएं और पानी की टंकी, एक सरकारी स्वास्थ्य केंद्र भी मौजूद है।
उत्तराखंड के हल्द्वानी में कड़ाके की सर्दी के बीच करीब 50 हजार लोग सड़कों पर हैं। इनमे औरते और बच्चे भी शामिल है। अपने सिर से छत छिनने की आशंका ने 5000 परिवारों की रातों की नींद उड़ा दी है। सियासी पार्टियों में भी इसे लेकर गहरी हलचल है। यह स्थिति एक जनहित याचिका पर उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले से सामने आई है। इस फैसले के अनुसार यहां बनभूलपुरा में 78 एकड़ में फैली इस बस्ती को रेलवे की भूमि माना गया हैं और इसके बाद बस्ती को अतिक्रमित बताते हुए हटाने के आदेश दे दिए गए हैं।
हालांकि, उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ हल्द्वानी के कांग्रेस के विधायक सुमित हृदयेश की कोशिशों से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई है, जिसपर 5 जनवरी को सुनवाई होगी। याचिका वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने दायर की है। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते समय हल्द्वानी के कांग्रेस के विधायक सुमित हृदयेश के अलावा कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी भी मौजूद थे।
78 एकड़ में फैला यह इलाका हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के पास स्थित है। हाईकोर्ट ने इसे रेलवे की संपत्ति बताते हुए वहां की बस्ती को अतिक्रमण बताया है। लेकिन जिस 78 एकड़ ज़मीन पर रेलवे दावा कर रहा है वहां लगभग 100 सालों से लोग रह रहे हैं। 78 एकड़ में फैले इलाके में लगभग 4300 मकानों के अलावा दो मंदिर, 8 मस्जिद, 2 गेस्ट हाउस, 3 सरकारी स्कूल और 5 प्राइवेट स्कूल के अलावा कई धर्मशालाएं और पानी की टंकी, एक स्वास्थ्य केंद्र और 1970 में बिछाई गई सीवर लाइन भी मौजूद है।
20 दिसंबर 2022 को आए फैसले के मुताबिक उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बनभूलपुरा इलाके में जिन मोहल्लों को रेलवे की ज़मीन पर माना हैं, उनमें गफूर बस्ती, इन्दिरा नगर, किदवई नगर, नई बस्ती शामिल हैं। इन चार मोहल्लों में लगभग 4,365 मकान हैं, जिनमें करीब 50 हजार लोग सैकड़ो सालों से रहते आए हैं। कुल आबादी में 80 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की हैं। यहां के लगभग 70 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं। यानी की रोज खाते और रोज कमाते हैं, इसके अलावा वो जीवनयापन के लिए सरकारी योजनाओं पर भी निर्भर रहते हैं। एक स्थानीय निवासी जमील अहमद मंसूरी का कहना है कि “अब लोगों में बेइंतहा निराशा भर गई है। समझ नही आ रहा है कि क्या करें! बच्चों के सर से छत जाने का खतरा बन गया है ! हम यह नही होने दे सकते! क्या हम अपनी जान दे दें!”
हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक बस्ती को खाली करने के लिए एक हफ्ते का समय दिया गया है। अगर समय सीमा के अंदर लोगों ने इलाके को नहीं खाली किया तो बुलडोजर के दम पर 50 हज़ार लोगों के आशियाने को जमींदोज कर दिया जाएगा। वहीं बनभूलपुरा के लोग अपने घरों को बचाने को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इलाके में मुस्लिम समुदाय की अधिक संख्या होने के चलते मुस्लिम समुदाय के लोग अधिक संख्या में सड़कों पर हैं, वे कैंडल मार्च निकालकर विरोध जता रहे हैं तो कभी ख़ुदा से उम्मीद लगाकर घरों को बचाने की गुहार लगा रहे हैं।
बनभूलपुरा की शहनाज के पति राजू अंसारी मोबाइल की दुकान चलाते हैं, पिछले कई दिनों से वो दुकान को बंद करके अपना घर बचाने के लिए सड़कों पर बैठे हैं। शहनाज कहती हैं कि उनका परिवार यहां उनके परदादा के समय से रह रहा है, उनको खुद यहां रहते हुए 45 साल हो गए हैं। वो कहती हैं, “ 2016 में रेलवे ने कहा था कि सिर्फ 22 एकड़ रेलवे की जमीन पर कब्जा हैं लेकिन उस समय तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोर्ट में हलफनामा देकर बताया था कि यह पूरी ज़मीन सरकार के अधीन है। 2016 में सरकार ने इस भूमि को नजूल की माना था। जो ज़मीन 6 साल पहले तक सरकार की थी वो अब रेलवे की कैसी हो गई! मौजूदा सरकार ने जानबूझ कर इस मामले में हाईकोर्ट में कोई जवाब नहीं दाखिल किया, जिससे यह ज़मीन रेलवे को अधिकृत हो जाए!”
घर खाली करने का नोटिस पाने वालों में अब्दुल मतीन भी शामिल हैं। अब्दुल मतीन समाजवादी पार्टी के उत्तराखंड के प्रभारी हैं। अब्दुल मतीन के बेटे उमैर सिद्दीकी कह रहे हैं कि “जिस आबादी या इलाके को अतिक्रमण बताया जा रहा है, वहां 100 सालों से लोग यहां रह रहे हैं। मेरा ख़ुद का परिवार यहां 50 सालों से रहता आया है। हमारे पास मकान के कागज़, रजिस्ट्री सब पेपर मौजूद हैं लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है, हाईकोर्ट ने मकानों के कागज़ देखने से इन्कार कर दिया है।”
उमैर बताते हैं कि “साल 2016 में रेलवे ने हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से ट्रेन की पटरी के आसपास के इलाके को अपनी भूमि बताते हुए स्टेशन से नीचे इंदिरा नगर जहां पर 50 वर्षों से भी अधिक समय से लोग आबाद हैं, को अपनी जगह बताते हुए पिलरबंदी कर दी थी। तब वो जगह 22 एकड़ की थी जो उनको दे दी गई थी। लेकिन अब लगभग 78 एकड़ ज़मीन को रेलवे की जमीन बता दिया गया, वो भी बिना पैमाईश के, यह सरासर ग़लत है। अब प्रशासन उस पूरे जगह पर काबिज लोगों के मकानों पर बुलडोजर चलाने की तैयारी कर रहा है।”
उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ता राशिद अली कहते हैं कि “स्थानीय निवासियों को हाईकोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए और ऐसा करने में बिल्कुल समय नही गंवाना चाहिए! राशिद अली बताते हैं कि कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद और इमरान प्रतापगढ़ी ने इसकी पहल की है जो सही तरीका है। हाईकोर्ट के निर्णय को तर्कों की कसौटी hj तौलकर सर्वोच्च न्यायालय में जाकर अपील करनी चाहिए। सड़कों पर आंदोलन करने से समाधान नही निकलेगा। बताया जा रहा है कि यहां 1937 से यह ज़मीन लीज पर है, बस्ती में लोग कई दशकों से रह रहे हैं। रेलवे के दावे से पुराने दावे बस्ती के लोगों के पास मौजूद हैं, तो वो अपना तर्क सुप्रीम कोर्ट में बताएं।”
बता दें कि 2013 में उत्तराखंड हाईकोर्ट में रविशंकर जोशी नाम के व्यक्ति ने एक जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि गौला नदी के पुल के आसपास जो बस्तियां हैं वहां रहने वाले लोग नदी में बालू और मिट्टी का खनन करते हैं जिसके कारण गौला नदी का पुल गिर गया था। हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए रेलवे और तत्कालीन सरकार को नोटिस जारी किया था। इसके बाद एक तरफ रेलवे ने हाईकोर्ट को बताया था कि 29 एकड़ ज़मीन रेलवे की है और उस पर लोगों का अवैध कब्जा हैं दूसरी तरफ तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोर्ट में जमीन को नजूल की बताया था। तब 2016 में ही हाईकोर्ट ने अवैध कब्जा को हटाने का आदेश दिया था। वहां के कुछ लोगों ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी।
इस मामले की लोकल कोर्ट में पैरवी करने वाले शोएब अहमद बताते हैं कि सरकार रेलवे विस्तार करने के बहाने वहां की बस्ती उजाड़ना चाहती है। वहां रेलवे का मालिकाना नहीं बनता है। रेलवे द्वारा हाईकोर्ट में सिर्फ चार नक्शे जमा किए गए हैं। इसके अलावा उसके पास सरकार से जमीन अधिग्रहण करने के कोई कागज़ भी नहीं हैं। शोएब बताते हैं कि 2016 में कांग्रेस सरकार मलिन बस्ती अधिनियम लेकर आई थी। इसके तहत पूरे राज्य में 582 मलिन बस्तियों को शामिल किया गया था जिसमें वनभूलपुरा इलाके की गफूर बस्ती और इंदिरा नगर भी शामिल थे। लेकिन 2021 में वनभूलपुरा की दोनों बस्तियों को मलिन बस्ती को अधिनियम से बाहर कर दिया गया।
शोएब बताते हैं कि 2016 में उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने इस मामले की हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पैरवी की थी। मौजूदा उत्तराखंड की बीजेपी सरकार प्रभावित लोगों के पक्ष में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कोई पैरवी नहीं कर रही है। यह बीजेपी सरकार का असली चेहरा है जो बड़ी आबादी को बेघर करने का काम कर रही है। वनभूलपुरा इलाके में हजारों की संख्या में छात्र आबादी रहती है उनके भविष्य के बारे में फैसले में नहीं सोचा गया।
इधर इस मामले में राजनीति भी काफी तेज हो गई है। कांग्रेस ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को याचिका दायर की है। कोर्ट दायर याचिका की सुनवाई 5 जनवरी को करेगा। कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर बीजेपी पर मुखर नज़र आ रही है। इसके अलावा समाजवादी पार्टी भी इस मामले को लेकर बीजेपी को घेर रहीं हैं। समाजवादी पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल 4 जनवरी को वनभूलपुरा जाकर वहां के लोगों से मिलेगा।
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