राहुल गांधी-अभिजीत बनर्जी संवाद: मांग बढ़ाने के लिए लोगों के हाथ में दिया जाए पैसा तभी पटरी पर आएगी अर्थव्यवस्था

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी का मानना है कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए लोगों के हाथ में पैसा देकर मांग बढ़ाने की दिशा में सरकार को सोचना होगा। उन्होंने यह बात कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ संवाद में कही।

फोटो : Getty Images
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नवजीवन डेस्क

देश में इस समय लॉकडाउन का तीसरा दौर चल रहा है। इस दौरान अर्थव्यवस्था बुरी तरह पटरी से उतर चुकी है, गरीबों का हाल बुरा है, प्रवासी मजदूरों की हालत खराब है, छोटे और मझोले उद्योग धंधे दिवालिया होने के कगार पर हैं। ऐसे में क्या उपाय हो सकते हैं कि देश को फिर से विकास के पथ पर लाया जा सके, गरीबों की स्थिति बेहतर हो सके, प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिल सके और काम धंधे दोबारा शुरु हो सकें। इन्हीं सब मुद्दों पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्रियों से संवाद कर रहे हैं ताकि इन सारे मुद्दों और समस्याओं का कोई ठोस, तार्किक और व्यवहारिक समाधान निकल सके। इसके लिए राहुल गांधी ने पिछले सप्ताह आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से बातचीत की थी, और आज उन्होंने अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ अभिजीत बनर्जी से बातचीत की। पढ़िए दोनों के बीच हुई पूरी बातचीत: 

राहुल गांधी - सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपना समय देने के लिए। आप बहुत बिजी रहते हैं

डॉ बनर्जी - नहीं...नहीं...आपसे ज्यादा नहीं

राहुल गांधी - यह थोड़ा सपने जैसा नहीं लगता कि सबकुछ बंद है

डॉ बनर्जी - हां ऐसा ही है, सपने जैसा, लेकिन भयावह, दरअसल यह ऐसा है कि किसी को कुछ पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है

राहुल गांधी - आपके तो बच्चे हैं, तो उन्हें इस सबको देखकर कैसा लग रहा है?

डॉ बनर्जी - मेरी बेटी थोड़ा परेशान है। वह अपने दोस्तों के साथ जाना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह तो खुश है कि हर वक्त उसके मां-बाप साथ में हैं। उसके लिए तो यह कुछ भी गलत नहीं है।

राहुल गांधी - लेकिन वहां भी पूरा ही लॉकडाउन है। तो वे बाहर तो जा नहीं सकते?

डॉ बनर्जी - नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, हम बाहर जा सकते हैं। टहलने पर कोई बाबंदी नहीं है, साइक्लिंग और ड्राइव करने पर भी रोक नहीं है। बस इतना है कि साथ-साथ नहीं जा सकते, शायद इस पर पाबंदी है

राहुल गांधी - इससे पहले कि मैं शुरु करूं, मेरी एक उत्सुकता है। आपको नोबेल पुरस्कार मिला। क्या आपको उम्मीद थी? या फिर यह एकदम अचानक हो गया?

डॉ बनर्जी - एकदम अचानक था यह। मुझे लगता है कि यह ऐसी चीज है कि जिसके बारे में सोचते रहो तो आप इसे बहुत ज्यादा मन में लेकर बैठ जाते हो। और मैं चीजों को मन में लेकर बैठने वाला व्यक्ति नहीं हूं, खासतौर से उन चीजों के लिए जिनका मेरे जीवन पर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ता है। मुझे किसी चीज की उम्मीद नहीं रहती है...यह एकदम से सरप्राइज था मेरे लिए।

राहुल गांधी - भारत के लिए यह एक बड़ी बात थी, आपने हमें गौरवान्वित किया है

डॉ बनर्जी - थैंक्यू... हां यह बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह बड़ी बात नहीं है, मेरा मानना है कि आप इसे मन में लेकर बैठ जाते हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई प्रक्रिया है जो हर किसी को समझ आए। तो, हो जाती हैं चीजें

राहुल गांधी - तो जो कुछ अहम बातें जिनपर मैं आपके साथ चर्चा करना चाहता हूं उनमें से एक है कोविड और लॉकडाउन का असर और इससे गरीब लोगों की आर्थिक तबाही। हम इसे कैसे देखें। भारत में कुछ समय से एक पॉलिसी फ्रेमवर्क है, खासतौर से जब हम यूपीए में थे तो हम गरीब लोगों को एक मौका देते थे, मसलन मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि...और अब ये बहुत सारा काम जो हुआ था, उसे दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि महामारी बीच में आ गई है और लाखों-लाखों लोग गरीबी में ढहते जा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है...इसके बारे में क्या किया जाए?

डॉ बनर्जी - मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देशभर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल कर पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

इसके बाद सवाल है गरीबी का। मुझे नहीं पता कि अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तो इसका गरीबी पर कोई टिकाऊ असर होगा। बड़ी चिंता यह है कि क्या अर्थव्यवस्था उबरेगी, और खासतौर से जिस तरह यह बीमारी समय ले रही है और जो प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं उसमें। मेरा मानना है कि हमें आशावादी होना चाहिए कि देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बस यह है कि सही फैसले लिए जाएं।

राहुल गांधी - लेकिन इसमें से अधिकतर को छोटे और मझोले उद्योगों और कारोबारों में काम मिलता है। इन्हीं उद्योगों और कारोबारों के सामने नकदी की समस्या है। इनमें से बहुत से काम-धंधे इस संकट में दिवालिया हो सकते हैं। ऐसे में इन काम-धंधों के आर्थिक नुकसान का इनसे सीधा संबंध है क्योंकि इन्हीं में से बहुत से कारोबार इन लोगों को रोजगार-नौकरी देते हैं।

डॉ बनर्जी - यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान- यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि हमें एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा। जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी - यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे

डॉ बनर्जी - बिल्कुल। यह सिर्फ गरीबों के लिए ही हो, इस पर बहस हो सकती है। मैं तो बड़ी बात कह रहा हूं...मेरा मानना है कि टारगेटिंग ही सबसे अहम होगी। आप एक झमेले के बीच लक्ष्य तय कर रहे हो। ऐसे भी लोग होंगे जिनकी दुकान 6 सप्ताह से बंद है और वह गरीब हो गया है। मुझे नहीं पता कि ऐसे लोगों की पहचान कैसे होगी। मैं तो कहूंगा कि आबादी के निचले 60 फीसदी को लक्ष्य मानकर उन्हें पैसे देने चाहिए, इससे कुछ बुरा नहीं होगा। हम उन्हें पैसा देंगे, उन्हें जरूरत है, वे खर्च करेंगे, इसका एक प्रभावी असर होगा। मैं आपके मुकाबले इसमें कुछ और आक्रामकता चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि पैसा गरीबों से आगे जाकर भी लोगों को दिया जाए।

राहुल गांधी - तो आप लोगों की बड़े पैमाने पर ग्रुपिंग की बात कर रहे हैं सीधे-सीधे। यानी जितना जल्दी संभव हो मांग को बढ़ाना चाहिए।

डॉ बनर्जी - बिल्कुल। मैं यही कह रहा हूं। संकट से पहले से मैं यही कह रहा हूं कि मांग की समस्या हमारे सामने है। और अब तो यह और बड़ी समस्या हो गई है, क्योंकि यह असाधारण है। मेरे पास पैसा नहीं है, मैं खरीदारी नहीं करूंगा क्योंकि मेरी तो दुकान बंद हो चुकी है। और मेरी दुकान बंद हो चुकी है तो मैं आपसे भी कुछ नहीं खरीदूंगा।

राहुल गांधी - मुझे लगता है कि आप कह रहे हैं कि जो भी करना है उसे तेजी से करने की जरूरत है। जितना जल्दी कर पाएंगे उतना ही यह प्रभावी होगा। यानी हर सेकेंड जो जा रहा है वह नुकसान को बढ़ा रहा है

डॉ बनर्जी - आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। मैं नहीं चाहता की हम मदद से पहले हर किसी की योग्यता देखें कि वह पात्र है कि नहीं। मैं मानता हूं कि हम सप्लाई और डिमांड की एक बेमेल चेन खड़ी कर लेंगे, क्योंकि पैसा तो हमने दे दिया लेकिन रेड जोन में होने के कारण रिटेल सेक्टर तो बंद है। इसलिए हमें बेहतर ढंग से सोचना होगा कि जब आप खरीदारी के लिए बाहर जाएं तभी आपको पैसा मिले न कि पहले से। या फिर सरकार वादा करे कि आप परेशान न हों, आपको पैसा मिलेगा और भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी, ताकि आपके पास कुछ बचत रह सके। अगर लोगों को यह भरोसा दिया जाए कि दो महीने या जब तक लॉकडाउन है, उनके हाथ में पैसा रहेगा, तो वे परेशान नहीं होंगे और खर्च करना चाहेंगे। इनमें से कुछ के पास अपनी बचत होगी। इसलिए जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि अभी तो सप्लाई ही नहीं है। ऐसे में पैसा दे भी दें तो वह बेकार होगा, महंगाई अलग बढ़ेगी। इस अनुरोध के साथ, हां जल्दी फैसला लेना होगा।

राहुल गांधी - यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी - लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा। आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।


राहुल गांधी - भारत के संबंध में जो दूसरी अहम बात है वह बै भोजन का मुद्दा, और इसके स्केल की बात। बेशुमार लोग ऐसे हैं जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। एक तर्क यह है कि गोदामों में जो कुछ भरा हुआ है उसे लोगों को दे दिया जाए, क्योंकि फसल का मौसम है और नई फसल से यह फिर से भर जाएंगे। तो इस पर आक्रामकता के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है

डॉ बनर्जी - दरअसल मैंने, रघुराम राजन और अमर्त्य सेन ने एक पेपर लिखा था। इसमें यही बात कही थी कि जिसको भी जरूरत हो उसे अस्थाई राशन कार्ड दे दिया जाए। असल में दूसरे राशन कार्ड के अलग ही कर दिया जाए, सिर्फ अस्थाई राशन कार्ड को ही मान्यता दी जाए। जिसको भी चाहिए उसे यह मिल जाए। शुरु में तीन महीने के लिए और इसके बाद जरूरत हो तो रीन्यू कर दिया जाए, और इसके आधार पर राशन दिया जाए। जो भी मांगने आए उसे राशन कार्ड दे दो और इसे बेनिफिट ट्रांसफर का आधार बना लो। मुझे लगता है कि हमारे पास पर्याप्त भंडार है, और हम काफी समय तक इस योजना को चला सकते हैं। रबी की फसल अच्छी हुई है तो बहुत सा अनाज (गेंहू, चावल) हमारे पास है। कम से कम हम गेहूं और चावल तो दे सकते हैं। मुझे नहीं पता है कि हमारे पास पर्याप्त मात्रा में दाल है या नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार दाल का भी वादा करे। खाने के तेल की भी व्यवस्था हो। लेकिन हां इसके लिए हमें अस्थाई राशन कार्ड हर किसी को जारी करने चाहिएय़

राहुल गांधी - सरकार को पैकेज में और क्या-क्या करना चाहिए? हमने छोटे और मझोले उद्योगों की बात की, प्रवासी मजदूरों की बात की, भोजन की बात की। इसके अलावा और क्या हो सकता है जो आप सोचते हैं सरकार को करना चाहिए ?

डॉ बनर्जी - आखिरी बात इसमें यह होगी कि हम उन लोगों तक पैसा पहुंचाएं जिन्हें मशीनरी आदि की जरूरत है। हम असल में लोगों तक पैसा नहीं पहुंचा सकते। जिन लोगों के जनधन खाते हैं, उन्हें तो पैसा मिल जाएगा। लेकिन बहुत से लोगों के खाते नहीं है। खासतौर से प्रवासी मजदूरों के पास तो ऐसा नहीं है। हमें आबादी के उस बड़े हिस्से के बारे में सोचना होगा जिनकी पहुंच इस सब तक नहीं है। ऐसे में सही कदम होगा कि हम राज्य सरकारों को पैसा दें जो अपनी योजनाओं के जरिए लोगों तक पहुंचे, इसमें एनजीओ की मदद ली जा सकती है। मुझे लगता है कि हमें कुछ पैसा इस मद में भी रखना होगा कि वह गलत लोगों तक पहुंच गया या इधर-उधर हो गया। लेकिन अगर पैसा हाथ में ही रखा रहा, यानी हम कुछ करना ही नहीं चाहते तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

राहुल गांधी - केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बीच संतुलन का भी मुद्दा है। हर राज्य की अपनी दिक्कतें और खूबियां हैं। केरल एकदम अलग तरीके से हालात संभाल रहा है। यूपी का तरीका एकदम अलग है। लेकिन केंद्र सरकार को एक खास भूमिका निभानी है। लेकिन इन दोनों विचारों को लेकर ही मुझे कुछ तनाव दिखता है

डॉ बनर्जी - आप बिल्कुल सही कह रहे हैं कि तनाव है और प्रवासी मजदूरों के पलायन का मुद्दा सिर्फ राज्य सरकारें नहीं संभाल सकतीं। यह थोड़ा अजीब है कि इस मोर्चे को इतना द्विपक्षीय बनाकर देखा जा रहा है। मुझे लगता है कि यह एक समस्या है। यहां आप विकेंद्रीकरण नहीं करना चाहते क्योंकि आप सूचनाओं को साझा करना चाहते हो। अगर आबादी का यह हिस्सा संक्रमित है तो आप नहीं चाहोगे कि वह देश भर में घूमता फिरे। मुझे लगता है कि लोगों को जिस स्थान से ट्रेन में चढ़ाया जा रहा है उनका टेस्ट वहीं होना चाहिए। यह एक केंद्रीय प्रश्न है और इसका जवाब सिर्फ केंद्र सरकार के पास है। मिसाल के तौर पर यूपी सरकार को साफ बतादो कि आप अपने यहां के मजदूरों को घर नहीं ला सकते। यानी अगर मजदूर मुंबई में हैं तो यह महाराष्ट्र सरकार की या फिर मुंबई शहर की म्यूनिसिपैलिटी की समस्या है, और केंद्र सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती। मुझे लगता है कि आप सही कह रहे हैं। लेकिन फिलहाल इस पर आपकी क्या राय है? ऐसा लगता है कि इस समस्या का कोई हल नहीं है। लेकिन लंबे समय में देखें तो संस्थाएं मजबूत हैं। लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं हो रहा जो हम कर सकते हैं।

राहुल गांधी -मुझे लगता है कि आपको विकल्प तलाशने होंगे। जितना संभव हो विकेंद्रीकरण हो, मुझे लगता है स्थानीय स्तर पर इनसे निपटा जा सकता है, जो कि अच्छी बात है। सोच यह होनी चाहिए कि जो चीजें जिला स्तर पर या राज्य स्तर पर संभल सकती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिए। हां, बहुत सी चीजें हैं जिन्हें कोई जिला कलेक्टर नहीं तय कर सकता, जैसे की एयरलाइंस या फिर रेलवे आदि। तो मेरा मानना है कि बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर हों, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर फैसले , जैसे कि लॉकडाउन उसे राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। राज्यों के विकल्प को अहमियत मिले और राज्य तय करें कि वे क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते। और जब जोखिम राज्यों पर आएगा तो वे इसे बेहतर तरीके से संभाल सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार का नजरिया अलग है। वे चीजों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वे चीजों के देखते हैं और उसका केंद्रीकरण कर देते हैं। यह दो नजरिए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें से कोई गलत या सही है। मैं तो विकेंद्रीकरण का पक्षधर हूं।

डॉ बनर्जी - मैं सोचना हूं कि मैं क्या करता। मैं जो कुछ भी पैसा मेरे पास है उसके आधार पर कुछ अच्छी योजनाओं का ऐलान करता कि यह पैसा गरीबों तक पहुंचेगा और फिर इसका असर देखते हुए इसमें आगे सुधार करता। मुझे लगता है कि हर राज्य में बहुत से अच्छे एनजीओ हैं जो इसमें मदद कर सकते हैं। जैसा कि आपने कहा कि जिला मजिस्ट्रेट के पास भी कई बार अच्छे आइडिया होते हैं। हमें इन सबका फायदा उठाना चाहिए।

राहुल गांधी - क्या कुछ दूसरे देशों में कुछ ऐसे अनुभव आपने देखे जिनसे फायदा हो सकता हो?

डॉ बनर्जी - मैं आपको बताता हूं कि इंडोनेशिया इस वक्त क्या कर रहा है। इंडोनेशिया लोगों को पैसा देने जा रहा है और यह सब कम्यूनिटी स्तर पर फैसला लेने की प्रक्रिया के तहत हो रहा है। यानी कम्यूनिटी तय कर रही है कि कौन जरूरतमंद है और फिर उसे पैसा ट्रांसफर किया जा रहा है। हमने इंडोनेशिया की सरकार के साथ काम किया है और देखा कि केंद्रीकृत प्रक्रिया के मुकाबले यह कहीं ज्यादा सही प्रक्रिया है। इससे आप किसी खास हित को सोचे बिना फैसला लेते हो। यहां स्थानीय स्तर पर लोग ही तय कर रहे हैं कि क्या सही है। मुझे लगता है कि यह ऐसा अनुभव है जिससे हम सीख सकते हैं। उन्होंने कम्यूनिटी को बताया कि देखो पैसा है, और इसे उन लोगों तक पहुंचाना है जो जरूरतमंद हैं। आपात स्थिति में यह अच्छी नीति है क्योंकि कम्यूनिटी के पास कई बार वह सूचनाएं और जानकारियां होती हैं तो केंद्रीकृत व्यवस्था में आपके पास नहीं होतीं।

राहुल गांधी - भारत में तो आपको जाति की समस्या से दोचार होना पड़ता है, क्योंकि यहां तो असरदार जातियां पैसे को अपने तरीके से इस्तेमाल कर लेती हैं

डॉ बनर्जी - हो सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, आप इसे रोक भी सकते हैं। ऐसे में मैं कुछ अतिरिक्त पैसा रखूंगा ताकि गांव के पात्र लोगों तक यह पहुंच जाए। बिल्कुल उसी तरह जैसा कि आप कह रहे हैं कि पीडीएस मामले में हो। यानी इसे एक सिद्धांत बना लें। इस तरह इससे बचा जा सकता है।

लेकिन आप लोगों तक पैसा पहुंचाने से अधिक किए जाने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के जनधन खाते हैं और कुछ के नहीं है। कुछ लोगों को नाम मनरेगा में हैं, यह एक और तरीका है लोगों तक पहुंचने का। कुछ के पास उज्जवला है कुछ के पास नहीं है। एक बार आप सूची देखिए और आपको पता चल जाएगा कि लाखों लोग इनसे वंचित हैं, तो फिर इन तक लाभ कैसे पहुंचाया जाए। हां एक बात साफ है कि स्थानीय प्रशासन के पास पैसा होना चाहिए जो लोगों की पहचान कर उन्हें लाभ दे सके। मैं आपसे सहमत हूं कि प्रभावी जातियां इसका फायदा उठा सकती हैं। हमने इंडोनेशिया में भी ऐसी ही आशंका थी, लेकिन यह बहुत ज्यादा बड़ी नही थी। मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए, यह जानते हुए भी इसमें से कुछ तो गड़बड़ होगी ही. अगर कोशिश नहीं करेंगे तो ज्यादा बड़ी दिक्कत होगी।

राहुल गांधी - यानी हिम्मत से आगे बढ़े, जोखिम उठाएं, क्योंकि हम बहुत खराब स्थिति में हैं।

डॉ बनर्जी - जब आप मुसीबत में हों तो हिम्मत से ही काम लेना चाहिए

राहुल गांधी - आपको क्या लगता है, मानो अगर अब से 6 माह में यह बीमारी खत्म हो गई तो गरीबी को मोर्चे पर क्या होगा? इसका बुरा प्रभाव होगा, लोग दिवालिया होंगे। हम इस सबसे मीडियम टर्म में कैसे निपटें?

डॉ बनर्जी - देखिए यही सब जो हम बात कर रहे हैं। मांग में कमी का मसला है। दो चिंताएं हैं, पहली कि कैसे दिवालिया होने की चेन को टालें, कर्ज माफी एक तरीका हो सकता है, जैसा कि आपने कहा। दूसरा है मांग में कमी का, और लोगों के हाथ में पैसा देकर अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाया जा सकता है। अमेरिका बड़े पैमाने पर ऐसा कर रहा है। वहां रिपब्लिकन सरकार है जिसे कुछ फाइनेंसर चलाते हैं। अगर हम चाहें तो हम भी ऐसा कर सकते हैं। वहां समाजवादी सोच वाले उदारवादी लोगों की सरकार नहीं है, लेकिन ऐसे लोग हैं जो वित्तीय क्षेत्र में काम करते रहे हैं। लेकिन उन्होंने फैसला किया कि अर्थव्यवस्था बचाने के लिए लोगों के हाथ में पैसा देना होगा। मुझे लगता है हमें इससे सीख लेनी चाहिए।

राहुल गांधी - इससे विश्व में सत्ता संतुलन में भी कुछ हद तक बदलाव की संभावना बनती है, यह भी साफ ही है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

डॉ बनर्जी - मुझे इटली और फ्रांस जैसे देशों की ज्यादा चिंता है। खासतौर से इटली की जहां की हालत बहुत खराब है और इसके लिए कुछ हद तक सरकार जिम्मेदार है क्योंकि वहां वहां की सरकार कुछ खास लोग नहीं चला रहे हैं। नतीजतन स्वास्थ्य सेवा बिल्कुल चरमराई हुई थीष अमेरिका ने एक राष्ट्रवादी नजरिया अपनाया है जो कि दुनिया के लिए सही नहीं है। चीन का उभार उसके लिए खतरा है और अगर अमेरिका ने इस पर प्रतिक्रिया करना शुरु कर दिया तो इससे अस्थिरता का खतरा बन जाएगा। यह सबसे चिंताजनक बात है।

राहुल गांधी - यानी मजबूत नेता इस वायरस से निपट सकते हैं। और ऐसा समझाया जा रहा है कि सिर्फ एक आदमी ही इस वायरस को मात दे सकता है

डॉ बनर्जी - यह घातक होगा। अमेरिका और ब्राजील दो ऐसे देश हैं जो बुरी तरह अव्यवस्था का शिकार हैं। यहां दो दो कथित मजबूत नेता हैं, और ऐसा दिखाते हैं कि उन्हें सबकुछ पता है,लेकिन वे हर रोज जो भी कहते हैं उस पर हंसी ही आती है। अगर किसी को मजबूत नेता के सिद्धांत में भरोसा है तो उन्हें इसे बारे में सोचना चाहिए।

राहुल गांधी - थैंक्यू वेरी मच। जब भी आप भारत में हों, तो प्लीज साथ में चाय पीते हैं। घर में सबको प्रणाम

डॉ बनर्जी - आपको भी, और अपना ध्यान रखना

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