विपक्ष को खारिज कर बीजेपी की जीत को जो तय मान रहे थे, अब वह भी कहने को मजबूर हैं शाबाश 'इंडिया'!
आखिरी चरण का प्रचार आज थम गया। अब एग्जिट पोल से अधिक 4 जून के नतीजों का इंतजार है। लेकिन चुनाव की शुरुआत में जहां लोग जिस विपक्ष को मुकाबले तक में नहीं मान रहे थे, उसने इस चुनाव उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां उलटफेर की संभावना तक व्यक्त की जा रही है।
एक्जिट पोल को पहली नजर में गले उतारने से बेहतर है कि आप जो जानते-समझते हैं, उसे बेहतर मानें- वोटिंग के आधार पर नतीजा निकालने वाले अपने पूर्वाग्रहों की पुष्टि के लिए अपने डेटा का इस्तेमाल करते हैं; जो 'हमारे' पूर्वाग्रहों की पुष्टि करते हैं, हम उन चुनाव सर्वेक्षकों की ओर खिंचे चले जाते हैं। ऐसे में, होशियार और संयत लोग तो रिजल्ट के दिन का इंतजार करेंगे।
कम-से-कम कुछ लोगों को तो याद ही होगा कि एक्जिट पोल 2004 में साफ तौर पर गलत साबित हुए थे- भारतीय जनता पार्टी के 'इंडिया शाइनिंग' अभियान की याद है? विभिन्न विधानसभा चुनावों में भी वे गलत साबित हुए हैं- कुछ उदाहरण, 2015 में बिहार और दिल्ली में, 2017 में उत्तर प्रदेश में, 2023 में कर्नाटक में।
2024 चुनाव में कुछ कहना तो और भी मुश्किल है क्योंकि लोग सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने में हिचकिचा रहे थे- जो बोल रहे उनके बीच भी डर और शक-शुबहा था। बदलाव चाहने वाले और इस तरह से वोटिंग करने वाले भी यह स्वीकार करने तक में झिझक रहे थे कि 'इंडिया' गठबंधन की जीत हो सकती है।
मतदान का पहला चरण 19 अप्रैल को था। उससे पहले कम ही लोगों को उम्मीद थी कि 'इंडिया' गठबंधन नरेन्द्र मोदी की भाजपा के 'पराक्रम' को आधे-अधूरे तरीके से भी प्रभावशाली चुनौती दे पाएगा। इस दफा निर्वाचन आयोग और चुनाव प्रक्रिया जिस तरह पक्षपाती रही है, वैसी कभी नहीं रही। उससे भी यह आशंका गहरी हो गई थी कि जनता के मत में धांधली होगी।
अगर विपक्ष इसे खींच ले जाता है (30 मई को जब यह लिखा जा रहा, ऐसी संभावना प्रबल है) तो यह समझदार मतदाता का कमाल होगा जिसने लूटमार करने वाले ऐसे शासन का प्रतिकार किया जिसने राजनीतिक विपक्ष को बिल्कुल ही नाकाम कर देने के लिए घृणित हद तक काम किए।
राहुल गांधी 'इडिया' गठबंधन का अघोषित चेहरा हैं जबकि शरद पवार, उद्धव ठाकरे, तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव ने विपक्ष को अस्थिर करने की हरसंभव कोशिश को सक्षम तरीके से संभाले रखा। इन सबने मिलकर इन चुनावों का एजेंडा तय करने में महती भूमिका निभाई। इन लोगों ने मतदाताओं की रोजाना की चिंताओं के मद्देनजर उनके दिलोदिमाग में जगह बनाने के लिए संघर्ष किया- महंगाई और बेरोजगारी के साथ-साथ यह भी कि अगर बीजेपी तीसरी बार सत्ता में आ गई तो वह संविधान पर किस तरह कुठाराघात करेगी। इन सबने बीजेपी की शक्तिशाली प्रोपेगैंडा मशीनरी- जिसमें मुख्य धारा की मीडिया सबसे आगे-आगे थी- के खिलाफ जुझारू तरीके से लड़ाई लड़ी।
एकदम विपरीत स्थितियों में भी आशा रखे रहने वाले लोग भी अप्रैल की शुरुआत तक बस इतना ही दांव लगा रहे थे कि 'इंडिया' गठबंधन अच्छे तरीके से लड़ सकेगा। अधिकतर टिप्पणीकारों को लगता था कि जल्दबाजी में किए गए आधे-अधूरे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के जरिये बीजेपी को विजय तो मिल ही चुकी है। 22 जनवरी को हुए इस कार्यक्रम के एक हफ्ते के अंदर-अंदर ही 'इडिया' गठबंधन की दो पार्टियों के नेता- जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार और आरएलडी के जयंत चौधरी एनडीए में शामिल हो गए। यही नहीं, मिलिंद देवड़ा समेत कई प्रमुख कांग्रेसियों ने भी वही राह पकड़ी।
जनवरी नाटकीय महीना था भी। जब विपक्षी नेताओं ने अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में न जाने का फैसला किया, तो बीजेपी ने इसे उदाहरण के तौर पर प्रसन्नतापूर्वक पेश किया कि 'इंडिया' गठबंधन 'राम विरोधी' और 'हिन्दू विरोधी' है। टीवी स्टूडियो में बहस के लिए आमंत्रित किए जाने वाले कथित विशेषज्ञ इस 'बहिष्कार' को विपक्ष के लिए आत्मघाती बता रहे थे।
30 जनवरी को बीजेपी ने चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में खुली धांधली की। 31 जनवरी को अपनी गिरफ्तारी से कुछ ही देर पहले हेमंत सोरेन ने झारखंड के मुख्यमंत्री-पद से इस्तीफा दे दिया। फरवरी में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी हुई। उससे पहले आयकर विभाग ने कांग्रेस के बैंक खाते को फ्रीज करने के लिए कदम उठाए।
विपक्ष को बिल्कुल किनारे कर दिया गया और उस वक्त यही लग रहा था कि चुनाव तो महज औपचारिकता हैं। वैसी स्थितियों में कौन कल्पना भी कर सकता था कि 'इंडिया' गठबंधन उस तरह से मुकाबला कर पाएगा जैसा उसने किया? चुनाव सर्वेक्षक और यहां तक कि मुख्यधारा की मीडिया हीलाहवाली के साथ ही यह कहां मानने वाले थे कि मुकाबला कड़ा है? किसने सोचा होगा कि चुनाव में जब सबकुछ ठीक था, तब भी टीवी चैनलों को लाइन में लगकर प्रधानमंत्री का नाटकीय तरीके से इंटरव्यू करना होगा?
फरवरी में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विजयी भाव वाले दिख रहे थे, तो इसकी वजह थी। संसद में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए उन्होंने यह चाह जताई थी कि अधिकांश विपक्षी सदस्य चुनाव बाद दर्शक दीर्घा में नजर आएंगे। उन्होंने कहा था कि कई विपक्षी सदस्य चुनाव लड़ने से बचेंगे और बचने के लिए राज्यसभा का रास्ता लेंगे। उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी सरकार की तीसरी पारी शुरू होने में महज 125 दिन बचे हैं; एनडीए का आंकड़ा 400 पार करेगा और बीजेपी अपने दम पर कम-से-कम 370 सीटें पाएगी।
नहीं लग रहा था कि वह संसद में हैं, लगता था कि वह किसी राजनीतिक रैली को संबोधित कर रहे हैं। उन्होंने विपक्ष की मांग के बावजूद महंगाई और बेरोजगारी-जैसे मुद्दों पर बोलने से लगभग तिरस्कारपूर्वक मना ही कर दिया। इसकी जगह उन्होंने 'लोकतंत्र के मंदिर' में ऐसे सेंगोल की स्थापना कर नए संसद भावन का देश को 'उपहार' देने की बात की जो, दरअसल, मध्यकालीन समय का, शासन का सामंतवादी प्रतीक है।
सच कहें, तो विपक्ष मुश्किल में दिख भी रहा था। सीटों के बंटवारे का मसला मुश्किल में था। जनवरी के मध्य में 'इंडिया' गठबंधन की बैठक बीच में छोड़कर निकल जाने और एक पखवारे बाद ही बीजेपी से हाथ मिला लेने वाले नीतीश कुमार ने दावा किया कि उन्होंने कोशिश की, पर गठबंधन को कामलायक बनाने में विफल रहे। ममता बनर्जी ने घोषणा की कि उनकी तृणमूल कांग्रेस बंगाल में अकेले ही लड़ेगी। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पंजाब में सीटों के बंटवारे की संभावना से बिल्कुल इनकार कर दिया था। केरल में लेफ्ट और कांग्रेस किसी तरह साथ नहीं आने वाले थे। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने सबको ऊहापोह में रखा और अंततः, 'इंडिया' गठबंधन से अलग रहने की अपनी इच्छा की घोषणा की। ऐसे में, 'इंडिया' गठबंधन अधर में लग रहा था।
14 जनवरी को जब राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले, तो इसे 'असमय' किया गया प्रयास बताया गया। हमने कई 'विशेषज्ञों' को यह कहते सुना कि राहुल में वक्त की नजाकत समझने में कमी है। वे कह रहे थे कि चुनाव नजदीक हैं और (20 मार्च तक) दिल्ली से उनकी लंबी अनुपस्थिति जवाबदेही से अलग रहने की तरह है; इससे विपक्ष को धक्का पहुंचेगा। मुख्यधारा का मीडिया यात्रा को ब्लैक आउट कर रहा था और ऐसे में, यह कहना मुश्किल था कि यह जनता की लामबंदी में किस तरह कारगर हो पा रहा है।
यात्रा मणिपुर में इम्फाल से शुरू हुई। इसे तब ही जाकर प्रचार मिला जब असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सर्मा ने काले झंडे लेकर विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया, गुवाहाटी में राहुल के रोड शो को अनुमति देने से इनकार कर दिया और राहुल के खिलाफ एफआईआर दायर करने का पुलिस को आदेश दिया। सर्मा ने दंभपूर्वक कहा कि 'सार्वजनिक तौर पर गड़बड़ी फैलाने के लिए मैं चुनाव के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लूंगा।' इतना ही नहीं, तब भी ममता को सहयोगी माना जा रहा था, पर उन्होंने उत्तर बंगाल से गुजरने वाली न्याय यात्रा में शामिल होने से मना कर दिया।
सीएसडीएस-लोकनीति के संजय कुमार ने अभी हाल में साफ तौर पर स्वीकार किया कि जब राहुल गांधी और 'इंडिया' गठबंधन के नेता लोकतंत्र और संविधान पर खतरे के बारे में बोल रहे थे, तब उन्हें हंसी आई। (कांग्रेस घोषणा पत्र में भी इस पर बात की गई है।) उन्होंने टीवी पर एक लाइव डिस्कशन में यह स्वीकार किया कि वह पहले गलत थे और कहा कि ये मुद्दे मतदाताओं को समझ में आए। संजय कुमार अकेले ऐसे नहीं हैं।
आखिर, किसी पार्टी के घोषणा पत्र को कब लोगों ने इतनी गंभीरता से लिया है- ध्यान दें, कि कब इस तरह उसे डाउनलोड किया गया और उस पर बातचीत की गई? अप्रैल के पहले हफ्ते में कांग्रेस घोषणा पत्र को जारी किया जाना निश्चित तौर पर टर्निंग प्वाइंट था। हाल के किसी चुनाव में लोगों की राय बनाने में शायद ही इस तरह किसी घोषणा पत्र ने भूमिका निभाई।
हम कांग्रेस घोषणा पत्र से तुलना करें, तो कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर खास समाधान पेश करने वाला कोई घोषणा पत्र हमें नहीं मिलता। उदाहरण के लिए, रोजगार के मसले को ही लें। यह रिक्तियों को भरने, ठेके पर रोजगार को खत्म करने, स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण विकास क्षेत्रों में अधिक वेतन पर अधिक लोगों को जोड़ने, सेना में कम अवधि वाली अग्निवीर योजना को खत्म करने और यह सुनिश्चित करने की बात करती है कि सभी ग्रैजुएट और डिप्लोमा वालों को पेड एपरेंटिस के तौर पर एक साल की ट्रेनिंग दी जाएगी।
'इंडिया' गठबंधन ने प्रधानमंत्री-पद के अपने उम्मीदवार को प्रोजेक्ट करने से मना कर युक्तिसंगत तरीके से भी बीजेपी को चतुराई से मात दिया। इसने मोदी को तमिलनाडु में स्टालिन, कर्नाटक में सिद्दारमैया, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे, बिहार में तेजस्वी यादव और 'यूपी के लड़के' अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बरक्स खड़ा कर दिया। वंशवाद के खिलाफ उनका नैरेटिव नहीं चला। वह कांग्रेस घोषणा पत्र पर गलतबयानी को बाध्य हुए और उनके पास बीजेपी के संकल्प पत्र पर कहने को कुछ नहीं था।
संभव है, बीजेपी और एनडीए की जीत अब भी हो जाए। सिर्फ इसलिए नहीं कि बीजेपी अधिक पैसे वाली और बेहतर ढंग से नियोजित है बल्कि इसलिए कि इसने हमारी लोकतंत्रिक संस्थाओं में आसानी से वश में आ जाने वाले यस-मेन भर दिए हैं। मीडिया, पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों पर इसका दमघोंटू शिकंजा है और सारी चुनावी मशीनरी उसके बचाव में आ सकती है। लेकिन अब जब एक्जिट पोल तथा उसके बाद वास्तविक चुनाव परिणाम आने वाले हैं, इसकी प्रबल संभावना है कि विपक्ष आश्चर्यचकित करे।
ऐसी संभावना बना देने के लिए भी 'इंडिया' का अभिवादन!
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia