हिंदुस्तान को दूसरा म्यांमार बनाने की कोशिश न की जाएः मौलाना अरशद मदनी
असम में नागरिकता को लेकर गंभीर होते हालात पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए जमियत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने सरकार को चेतावनी दी है कि वह भारत को दूसरा म्यांमार बनाने की कोशिश न करे।
असम के हालात से लोगों को रूबरू कराने के लिए दिल्ली एक्शन कमिटी फॉर असम (डीएसीए) ने 13 नवंबर को दिल्ली में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इससे पहले एक प्रेस कांफ्रेंस में मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि असम में नागरिकता मुद्दा गंभीर रूप लेता जा रहा है। उन्होंने बताया कि एक तरफ तो नेशनल रजिस्ट्रेशन सिटिजनशिप (एनआरसी) का काम चल रहा है, दूसरी तरफ गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक ऐसा फैसला दे दिया है जिसके बाद तकरीबन 29 लाख महिलाओं की नागरिकता पर तलवार लटक गई है।
मौलाना मदनी ने बताया कि शिक्षा की कमी और गरीबी के कारण मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ने कभी भी जन्म प्रमाणपत्र नहीं बनवाया और लड़कियों की शादी के वक्त वहां का प्रधान, जिसे बोरा कहते हैं, वह जो प्रमाणपत्र देता था वही उस लड़की की नागरिकता का सबूत था। लेकिन हाईकोर्ट ने नागरिकता के लिए ऐसे सभी प्रमाणपत्रों को अवैध करार दे दिया है। वैसे ऐसी महिलाओं की तादाद लगभग 48 लाख है लेकिन उनमें से करीब 17.40 लाख महिलाओं ने वहां की नागरिकता के संबंध में सबूत दे दिए हैं। इस वजह से हाईकोर्ट के ताजा फैसले से प्रभावित होनेवाली महिलाओं की संख्या अब 29 लाख रह गई है।
मौलाना ने कहा कि अगर उन महिलाओं के साथ दो बच्चे भी हों तो कम से कम 80 लाख लोगों की नागरिकता पर तलवार लटक गई है। जमियत अध्यक्ष ने कहा, ‘मैं इस मामले को म्यांमार से जोड़कर इसलिए देख रहा हूं क्योंकि म्यांमार में भी तमाम वैश्विक दबाव के बावजूद 8 लाख लोगों को नागरिकता नहीं दी गई थी और उनको बांग्लादेश भेज दिया गया था।आज इस मामले ने गंभीर रूप ले लिया है और हमारे यहां तो 80 लाख लोगों की नागरिकता का मामला है। अगर इन लोगों को नागरिकता नहीं मिलती है तो इनके साथ क्या किया जाएगा, कौन से देश में भेजा जाएगा और कौन सा देश उन्हें नागरिकता देगा।’
मौलाना मदनी ने कहा कि इस मुद्दे को मजहबी चश्मे से न देखा जाए, ये महिलाएं किसी भी धर्म की हो सकती हैं। उन्होंने कहा, ‘सरकारी पदों पर बैठे लोगों की तरफ से अगर यह बयान दिया जाए कि हिंदू महिलाओं की नागरिकता 2014 की सीमा से तय होगी और मुस्लिम महिलाओं की नगारिकता पर सवाल खड़े किये जाएं तो क्या इस मामले को सांप्रदायिकता की निगाह से नहीं देखा जा रहा है।’
पूरे मामले पर प्रोफेसर बरुआ ने नवजीवन को बताया कि असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 तक जो लोग वहां आ गए हैं उनको नागरिकता देने की बात तय हुई थी। मगर अब सरकार इस मामले में अड़चनें पैदा करने की कोशिश कर रही है। उन्होंने कहा कि असम के तमाम लोग एनआरसी को अपडेट करने के पक्षधर हैं लेकिन बीजेपी की सरकार तरह तरह से इसमें रुकावट डालने की कोशिश कर रही है। उन्होंने बताया कि इस मामले में मुख्यमंत्री सर्बांनंद सोनवाल को अदालत से एक बार चेतावनी दी चुकी है।
बरुआ ने कहा कि महिलाओं की नागरिकता के मामले का भी किसी धर्म से कोई संबंध नहीं होना चाहिए बल्कि ये तो महिलाओं के अधिकार का मुद्दा है। उन्होंने कहा, ‘डीएससीए की मांग है कि एनआरसी के काम-काज में रुकावट ना डाली जाए और नागरिकता के लिए 25 मार्च 1971 की जो तारीख तय की गई है उसमें छेड़छाड़ न की जाए। शादी के वक्त महिलाओं को जो प्रधान के जरिये सर्टिफिकेट दिया जाता था उसे अवैध नहीं ठहराया जाए।’ बरुआ ने साफ कहा कि मामला अभी अदालत में है इसलिए वह मुख्यमंत्री या अन्य किसी भी नेता से मुलाकात नहीं करेंगे। असम के हालात से लोगों को रूबरू कराने के लिए डीएसए द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी और स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव ने भी हिस्सा लिया।
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