मोदी सरकार के पिछले पांच बजट का लेखा-जोखा: हर बजट भाषण से निकलीं योजनाएं, लेकिन जमीन पर हो गईं सब धड़ाम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार ने जब मई 2014 में सत्ता संभाली तो देश को एक उम्मीद बंधी थी कि अब देश में विकास को पंख लगेंगे और चौतरफा प्रगति होगी। लेकिन पांच साल बाद अब आम मत यह है कि एक स्पष्ट जनादेश को व्यर्थ कर दिया गया।

फोटो : सोशल मीडिया
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राहुल पांडे

वित्त व्यवस्था की दुर्गति हो चुकी है, गांवों की हालत खराब है, नौकरियां देने में सरकार नाकाम रही है और सरकार द्वारा शुरु की गई योजनाएं आम लोगों को फायदा पहुंचाने में विफल रही हैं।

वित्त मंत्री अरुण जेटली के पहले दो बजट भाषण नई सरकार की प्राथमिकताओं को बताने में निकले तो बाकी के तीन सरकार की नाकामियों पर माफी मांगने में।

पहले पांच बजट भाषणों में बीजेपी सरकार का पूरा फोकस स्मार्ट सिटी, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया आदि पर रहा। लेकिन अब समस्या यह है कि इन सारे मोर्चों पर दिखाने के लिए बीजेपी के पास कुछ नहीं है। सरकार अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में बेहद व्यस्त नजर आती रही, लेकिन अब उसकी हालत उस छात्र की तरह है जिसे परीक्षा में पास होने लायक नंबर पाने के लिए अतिरिक्त समय चाहिए।

लेकिन इस अतिरिक्त समय से परीक्षा पास हो पाएगी?

हवा हो गया वित्तीय घाटा कम करने का दावा

जुलाई 2014 में जब सरकार संभालने के कुछ ही महीने बाद सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया था तो वित्त मंत्री ने संकेत दिए थे कि वित्तीय अनुशासन का सख्ती से पालन करेंगे और वित्तीय घाटे को 4.5 फीसदी पर ले आएंगे। उन्होंने कहा था कि, “यह एक मुश्किल काम लगता है, लेकिन मैं इस लक्ष्य को एक चुनौती की तरह ले रहा हूं। कोशिश ही न की जाए तो नाकामी होती ही है। मैंने जो रोडमैप चुना है उसमें मेरा लक्ष्य 2015-16 में वित्तीय घाटे को 3.6 फीसदी और 2016-17 में 3 फीसदी पर लाने का है।”

चार साल बाद जब पहली फरवरी 2017 को वित्त मंत्री सदन में खड़े हुए तो उन्होंने कहा था, “मैंने वर्ष 2017-18 के लिए वित्तीय घाटे का लक्ष्य 3.2 फीसदी रखा है और इसे अगले साल 3 फीसदी पर लाने के लिए मैं कटिबद्ध हूं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मैंने बिना सरकारी निवेश को छेड़े वित्तीय व्यवस्था की है।”

लेकिन यह बात जुमला साबित हुई और इस साल अक्टूबर तक ही वित्तीय घाटा 3.3 फीसदी को पार कर गया। अनुमान है कि सरकार अपने लक्ष्य से 15-20 फीसदी डिगी हुई दिखती है।

सिर्फ कागज़ों पर बनीं स्मार्ट सिटी

पहले बजट में मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया और सबके लिए आवास आदि की जो योजनाएं लागू की थीं उनके लिए 50 से 100 करोड़ रुपए तक का ही प्रावधान रखा गया। इनमें से बहुत सी योजनाएं तो बिल्कुल पटरी से उतर चुकी हैं।

पहले बजट में सरकार ने कहा था कि, “एक नेशनल इंडस्ट्रियल कॉरिडोर प्राधिकरण बनाया जा रहा है जिसका मुख्यालय पुणे में होगा और इससे स्मार्ट सिटीज़ जुड़ी होंगी। यह कॉरिडोर देश की मैन्यूफैक्चरिंग ग्रोथ शहरीकरण की जरूरतों को पूरा करेगा।” लेकिन दो साल बाद इस घोषणा को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

हालांकि 100 करोड़ योजना का 2014 में खूब मजाक बना था, लेकिन यह तर्क भी सामने आया कि चूंकि सरकार के पास बजट बनाने का समय नहीं था, इसलिए अगले बजट में इस पर स्पष्टता आएगी।

जनधन योजना से लगा बैंकों को झटका

लेकिन, दूसरा बजट तो और भी निराशाजनक साबित हुआ। इसमें भी सिर्फ वादे थे और कोई वास्तविक योजना नहीं थी। कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात अनुकूल नहीं हैं। फिर भी उन्होंने जनधन योजना के लिए सरकार की पीठ थपथपाई। उन्होंने कहा, “किसने सोचा होगा कि सिर्फ 100 दिन में 12.5 करोड़ परिवारों को वित्तीय मुख्यधारा से जोड़ दिया जाएगा।”

लेकिन, आज जनधन योजना की धज्जियां उड़ चुकी हैं। जनवरी 2019 के आंकड़ों के मुताबिक 7.85 करोड़ या 23 फीसदी जनधन खाते निष्क्रिय पड़े हैं या उनमें कोई पैसा नहीं है। इसके अलावा करोड़ों खाते ऐसे हैं जिनमें नाम मात्र को पैसे हैं, वह भी उनमें जिन्हें बैंक कर्मचारियों ने खुद पैसे जमा कराके सक्रिय रखा है।

दूसरे बजट में ही सरकार ने 13 सूत्रीय योजना बनाकर 2022 तक हर किसी के सर पर छत देने का वादा किया। लेकिन यह सब भी सिर्फ वादा ही रह गया। सिर्फ ग्रामीण विद्युतीकरण का काम हुआ, वह भी इसलिए क्योंकि इसका 96 फीसदी काम तो पिछली सरकार पूरा कर चुकी थी।

फसल बीमा योजना में किसानों को नहीं बीमा कंपनी को फायदा

तीसरे बजट में भी जेटली के पास अपनी कामयाबी साबित करने का कोई आंकड़ा नहीं था। ऐसे में उन्होंने एक बार फिर पिछली सरकारों और वैश्विक हालात को देश के आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने इस बजट में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का ढिंढोरा पीटा। लेकिन यह योजना तो सिर्फ उन किसानों के लिए थी जिन्होंने कर्ज ले रखा था। जैसे ही किसान कर्ज से मुक्त होते गए, वे फसल बीमा योजना से भी बाहर होते गए। नतीजा यह हुआ कि 2017 में 4.03 करोड़ किसान इस योजना का हिस्सा थे जो 2018 के खरीफ सीज़न में घटकर 3.33 करोड़ रह गए।

बेरोजगारी की गूंज से बहरी हुई सरकार

इस सबके बीच सरकार पर बेरोजगारी और नौकरियों का दबाव बनने लगा। वित्त मंत्री ने ऐलान कर दिया कि नौकरियां पैदा करने वाले उद्यमों के सभी नए कर्मचारियों की पेंशन स्कीम का 8.33 फीसदी हिस्सा पहले तीन साल तक सरकार देगी। इससे अनौपचारिक क्षेत्र की कुछ नौकरियां औपचारिक क्षेत्र में तो आ गईं, लेकिन जमीनी स्तर पर इससे रोजगार पैदा होने में कोई बड़ा इजाफा नहीं हुआ।

इसी दौरान वित्त मंत्री ने जुलाई 2015 में सदन को बताया कि सरकार ने नेशनल करियर सर्विस योजना शुरु की है। इसमें करीब 4 करोड़ युवाओं ने आवेदन किया। लेकिन नौकरी मिली सिर्फ 7 लाख को, यानी सिर्फ 2 फीसदी लोगो को ही रोजगार मिल सका।

चौथा बजट आने से पहले तो प्रधानमंत्री नोटबंदी का हमला कर चुके थे। कहा गया था कि इसके पीछे मंशा, भ्रष्टाचार मिटाना, काले धन को बाहर निकालना, नकली नोटों को खत्म करना और आतंकी फंडिंग पर रोक लगाना है। लेकिन वित्त मंत्री ने इसका दायरा और बड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि नोटबंदी का मकसद टैक्स चोरी रोकना था, इससे सरकार को टैक्स मिलेगा जो गरीबों के कल्याण पर खर्च होगा। बैंकों में पैसा होगा तो ब्याज दरें कम होंगी।

वित्त मंत्री को उम्मीद थी कि सरकार को कुछ अतिरिक्त पैसा मिलेगा, लेकिन यह हो न का।

नोटबंदी और गरीब कल्याण योजना से तो नहीं निकली छपाई तक की लागत

सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना शुरु की, लेकिन इसके तहत सिर्फ 21 हजार लोगों ने कुल 4,900 करोड़ रुपए का ही खुलासा किया। इस पैसे तो नए नोट छापने की लागत तक नहीं निकल पाई। कतारों मं लगे 100 लोगों की जान तक चली गई और देश आजतक इसकी कीमत चुका रहा है।

बीजेपी के चुनावी वादों में करोड़ों नौकरियों का वादा भी था, लेकिन यह जुमला निकला। कारण यह रहा कि सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल केंद्र तो देश के 600 जिलों में खोल दिए, लेकिन इससे कुशल बेरोजगारों की संख्या में ही बढ़ोत्तरी हुई।

इसके अलावा संकल्प यानी स्किल एक्विजिशन एंड नॉलेज अवेयर्नेस फॉर लिवलीहुड प्रोग्राम और स्ट्राइव यानी स्किल स्ट्रेंथनिंग फॉर इंडस्ट्रियल वैल्यू इन्हांसमेंट का क्या होगा, कुछ अता-पता नहीं है।

पांचवां बजट आते आते ग्रामीण भारत पर मोदीनॉमिक्स यानी मोदी के अर्थशास्त्र का काला साया गहरा चुका था। तब सरकार ने सोचा कि उसे एक बार फिर कृषि क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिए।

एमएसपी पर 50 फीसदी ज्यादा, यह निकला झूठा वादा

सरकार ने आनन-फानन अपना घोषणापत्र झांड़-पोंछकर निकाला और कहा कि वह किसानों को उनकी फसलों का लागत से 50 फीसदी ज्यादा मूल्य देने सुनिश्चित करेगी। यानी किसानों को फसल का डेढ़ गुना पैसा मिलेगा। एक साल तो हो चुका है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा के अलावा कुछ नहीं हुआ है। किसान आज भी अपनी फसल औने-पौने दाम और लागत से कम पर बेचने को मजबूर है। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि किसानों को मजबूरी में अपनी फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से 60 फीसदी कम तक में बेचना पड़ रही है।

स्मार्ट सिटी योजना इस सरकार की नाकामी का सबसे बड़ा सबूत है। जुलाई 2014 में इस योजना का ऐलान हुआ था, लेकिन उसके बाद यह ठंडे बस्ते में पड़ी है। अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में माना था कि स्मार्ट सिटी योजना में सरकार ने सिर्फ 2 फीसदी ही प्रगति की है। यही हाल स्टार्टअप इंडिया का भी रहा।

सरकार पांच बजट पेश कर चुकी है,लेकिन वादों को निभाने का रिकॉर्ड निराशाजनक है।

यूपीए सरकार के आखिरी दो साल में विकास दर में गिरावट हुई थी और 2014 में सत्ता उसके हाथ से चली गई, क्योंकि उसने एफआरबीएम यानी वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन का रास्ता अपनाया। लेकिन 2019 में सरकार एफआरबीएम के रास्ते से पूरी तरह भटकी हुई है, नौकरियों के मोर्चे पर वह हवा में हाथ-पांव चला रही है।

2014 में बीजेपी को सुनहरा अवसर मिला था जब स्पष्ट जनादेश के साथ सत्ता में आई थी, लेकिन पांच साल बाद उसके पास दिखाने को कुछ है ही नहीं।

सॉरी पीयूष गोयल जी, अब आपका समय समाप्त हो चुका है।

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