मुजफ्फरपुर में मर रहे बच्चों का गुनाह सिर्फ इतना है कि वे महादलित हैं

मौत के तांडव के बाद भी मुजफ्फरपुर का सरकारी अस्पताल बदहाल है। चारों ओर गंदगी है, 45 डिग्री से ज्यादा की गर्मी झेलते मरीजों के तीमारदार एक किलोमीटर पैदल जाकर पीने का पानी ला रहे हैं, शौचालय गंदगी से बजबजा रहे हैं। यहां डॉक्टर, बेड, आवश्यक दवाइयों का भी टोटा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सीटू तिवारी

बिहार में नन्ही लाशों का बोझ उठाते मुजफ्फरपुर जिले के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल के पीकू वार्ड (पैडियाट्रिक आईसीयू) में दस मिनट के अंदर दो बच्चों की मौत की गवाह बनकर जैसे ही मैं बाहर निकली, वार्ड के दरवाजे के सामने वाली दीवार से सटकर खड़े एक दुबले-पतले आदमी ने मुझसे कहा, “सुबह से तीन बच्चे मर चुके हैं। जो यहां आता है, वो मर जाता है।” मेरे पास उसकी बात का कोई जवाब नहीं था, न मैं उसे पहचानती थी। लेकिन उसको गले लगाकर ढांढस देने से मैं खुद को रोक नहीं पाई। दुख हम सबको एक डोर में बांधता ही है!

मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच और केजरीवाल अस्पताल में मौत नाच रही है। इस रिपोर्ट को 19 जून की शाम फाइल करने तक दोनों अस्पतालों में आधिकारिक तौर पर 114 बच्चों की एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से मौत हो चुकी है। इस रोग को स्थानीय स्तर पर चमकी बुखार कहा जा रहा है।

यह सिर्फ वह आंकड़ा है जो बच्चे अस्पताल तक पहुंच सके। मुजफ्फरपुर सहित 12 प्रभावित जिलों में कई ऐसे बच्चे होंगे जिन्होंने अस्पताल आते वक्त गाड़ी, ऑटो रिक्शा, उनको लेकर बदहवास अस्पताल की तरफ पैदल दौड़ते मां-बाप की गोद में या फिर ओझा-गुनी के चक्कर में दम तोड़ दिया होगा। इन बच्चों की मौत सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं होगी।

मौत के इस तांडव के बाद भी मुजफ्फरपुर का यह सरकारी अस्पताल बदहाल है। चारों तरफ गंदगी फैली है, 45 डिग्री से ज्यादा की गर्मी झेलते मरीजों के तीमारदारों को एक किलोमीटर पैदल जाकर पीने का पानी लाना पड़ता है, शौचालय गंदगी से बजबजा रहे हैं। यहां डॉक्टर, दवाई, बेड, आवश्यक दवाइयों का भी टोटा है।

आलम यह है कि एक बेड पर इनसेफेलाइटिस से पीड़ित दो बच्चों का इलाज चल रहा है, यानी बेड पर जब एक बच्चे की मौत होती है तो दूसरा परिवार उसकी मौत के रुदन का गवाह बनता है। अस्पताल के दौरे पर बीते 16 जून को आए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भी अस्पताल की आधारभूत संरचना को नाकाफी बताया। उन्होंने कहा कि 100 बेड का नया पैडियाट्रिक आईसीयू खोला जाएगा ताकि भविष्य में इलाज बेहतर हो सके।

साल 2000 से 2010 तक इस बीमारी से एक हजार से भी अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। साल 2014 में इनसेफेलाइटिस से 98 बच्चों की मौत हुई थी। उसके बाद से मौत का आंकड़ा घटता गया था। बीते साल यानी 2018 में 7 बच्चों की मौत इस बीमारी से हुई। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि साल 2019 में मौत का आंकड़ा सैकड़ा क्यों पार कर गया?

दरअसल, 2014 के बाद बिहार सरकार ने इस बीमारी से लड़ने के लिए एसओपी, यानी स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिज्योर बनाया था। इसमें यह साफ दिशानिर्देश है कि आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी सेविकाओं के जरिये बीमारी के प्रति जागरूकता फैलाई जाए, यह सुनिश्चित किया जाए कि बच्चे भूखे न सोएं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बच्चों के शरीर का ग्लूकोज नापने के लिए ग्लूकोमीटर उपलब्ध होना चाहिए।

यह सब क्यों किया गया, यह एसकेएमसीएच में बाल रोग विभाग के हेड डॉ जी एस साहनी की बातों से समझा जा सकता है। उनका कहना है कि पिछले दो दशकों के दौरान शहरी इलाकों से एईएस मामलों से पीड़ित सिर्फ चार बच्चे अस्पतालों में आए। अन्य सभी बच्चे ग्रामीण इलाकों के थे।

दरअसल, विशेषज्ञों का कहना है कि इस रोग से पीड़ित बच्चे मुख्यतः वे हैं जो मुसहर और अनुसूचित जातियों वाले महादलित परिवारों के हैं। इन सभी में मुख्य बात यह है कि वे कुपोषित श्रेणी से हैं। मुजफ्फरपुर में साल 1995 से मई-जून में यह बीमारी दस्तक दे रही है और पीड़ित सभी बच्चे गरीब, पिछड़े, अशिक्षित वर्गों के हैं या फिर ऐसे हैं जिनके पिता रोजी-रोटी कमाने किसी दूसरे प्रदेश में पलायन कर गए हों।

साल 2018 तक तो सरकार की तरफ से एसओपी के पालन में थोड़ी सक्रियता दिखाई गई लेकिन इस बार, चुनावी साल में इस काम में लापरवाही बरती गई। खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे इस बात को स्वीकार कर चुके हैं।

खस्ताहाल प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली की गवाही भी एसकेएमसीएच में भर्ती कई बच्चों के मां-बाप देते हैं। अजय राम बखरी से अपने बेटे को चमकी बुखार आने पर सबसे पहले नजदीक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ही ले गए थे। वह बताते हैं कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सन्नाटा था इसलिए हम बच्चे को इलाज के लिए यहां बड़े अस्पताल में ले आए।

सरकार ने इस एसओपी में लीची का भी जिक्र किया है। दरअसल, बीते कुछ सालों से इनसेफेलाइटिस की दस्तक के साथ ही बहस के केंद्र में लीची आ जाती है। जिले की आधिकारिक वेबसाइट में मुजफ्फरपुर को ‘लीची की भूमि’ कहा गया है। मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण, वैशाली, समस्तीपुर में मुख्य तौर पर होने वाली लीची की फसल 15 से 20 दिनों के लिए आती है।

स्थानीय स्तर पर इसके कारोबार का तो कोई आंकड़ा नहीं है लेकिन भारत के दूसरे शहरों में इसका कारोबार तकरीबन 85 करोड़ रुपये का है। साफ है कि लीची को नुकसान या उसकी बदनामी इस पर आश्रित किसानों के लिए बड़ा धक्का होगा। मुजफ्फरपुर स्टेशन के पास लीची मंडी में मौजूद किसान अशोक कुमार के मुताबिक, “यहां की लीची तो बमुश्किल 15 दिन में खत्म हो जाती है। अबकी बार 10 जून तक ये बड़े शहरों में भेजी जा चुकी है। लेकिन अगले साल, शायद, यह लीची कोई नहीं लेगा।”

वहीं, मुजफ्फरपुर स्थित राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक प्रो विशाल नाथ भी इस लीची थ्योरी को खारिज करते हैं। उनके मुताबिक, 400 साल से लीची का उत्पादन भारत में हो रहा है। ऐसे में यदि लीची नुकसानदायक है तो यह रोग सिर्फ दो दशक, और एक खास आर्थिक समूह के बच्चों को ही क्यों होता है।

मुजफ्फरपुर के मशहूर बाल रोग विशेषज्ञ और इस मामले में रिसर्च कर चुके डॉ अरुण साहा कहते हैं कि ये मामला मूलतः कुपोषण का है। कुपोषित बच्चे को लीची में मौजूद एमसीपीजी और हाइपोग्लाइन- दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं। सिर्फ लीची पर इसका ठीकरा फोड़कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भागा जा सकता क्योंकि एक सामान्य बच्चे को लीची खाने से कोई दिक्कत नहीं होती है। दरअसल, कुपोषित होने, रात में भोजन नहीं करने और खाली पेट लीची खाने की वजह से बुखार इतना तेज आता है।

दिलचस्प है कि कुपोषण से लड़ने के लिए सरकार आंगनबाड़ी और स्कूल स्तर पर मिड-डे मील जैसी योजना चला रही है, लेकिन एसकेएमसीएच में भर्ती बच्चों को देखकर उसका असर सिफर दिखता है। लुधियाना में काम करने वाले मोतिहारी के राम बाबू का 5 साल का बेटा भी चमकी बुखार का शिकार है। वह स्कूल जाता है और मिड-डे मील भी खाता है लेकिन बीमारी ने उसे भी अपनी जद में ले लिया है।

साफ है मिड-डे मील भी कुपोषण से लड़ने में नाकाम है। दुखद यह है कि इनसेफेलाइटिस से निपटने को लेकर सरकार के पास कोई ठोस नीति नहीं है। हर बार जब यह बीमारी पसरती है तो सरकार बारिश का इंतजार करती है। विशेषज्ञों का एक वर्ग मौसम में मौजूद उमस या ह्यूमिडिटी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराता है। इन गर्मियों में तापमान 45 डिग्री से ज्यादा देश के कई शहरों में होता है लेकिन इस इलाके में उमस उसे मौत तक इसलिए ले जाती है कि पसीना बनता ही नहीं।

16 जून को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों के सवालों के गोल-मोल जवाब स्वास्थ्य व्यवस्था की कलई खोलने के लिए काफी थे। कॉन्फ्रेंस में अश्विनी चौबे झपकी लेते रहे, हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि वह चिंतन-मनन कर रहे थे। लेकिन सवाल यही कि आपका चिंतन-मनन बच्चों की लगातार उठती अर्थियों को रोक पाने में नाकाम है। सरकारी अमले और मंत्रियों को शायद नहीं पता कि नन्हीं लाश का बोझ उठाना सबसे मुश्किल काम है।

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Published: 20 Jun 2019, 6:10 PM