कैराना की हार हो सकती है उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पतन की शुरुआत
कैराना जीत के बाद जयंत चौधरी का यह बयान कि ‘यहीं से शुरू हुई थी कहानी, यहीं खत्म कर रहे हैं’ इस जीत के महत्व को समझाने के लिए काफी है। इस एक जीत के बाद विपक्ष बहुत अधिक उत्साह में है। उसे ऐसा लगता है कि जैसे उसने दिल्ली जीतने की और कदम बढ़ा दिए हैं।
28 साल के अर्जुन चौधरी कहते हैं, “जाटों की एक कहावत है कि ‘जाट मरा जब जानिए जब तेरहवीं हो ले’ फिर बीजेपी ने ये कैसे मान लिया था कि हम हमेशा उनके साथ रहेंगे। हम सब समझते हैं, बस कभी-कभी समय खराब हो जाता है।” एमएससी कर चुके अर्जुन अब सिविल सर्विस की तैयारी में जुटे हैं और कैराना के नतीजे से खुश हैं। वे कहते हैं कि जाटों ने सारी राजनीतिक चाल पलट दी। हम मुसलमानों के गले लग गए और दलितों को गले लगा लिया। पहले हम किसान हैं और यह सरकार किसानों की दुश्मन है। झगड़े कराकर एक बार इन्होंने किसानों में जाति-धर्म का जहर घोल दिया दिया था। अब नौकरी नही मिलेगी तो खेती करेंगे, इनके बहकावे में आ गए तो झगड़ा होगा जेल जायंगे।”
कहानी एक अर्जुन की नही हैं, बहुत से जाट नौजवानों की है। कैराना की जीत उन्हें मुखर कर दिया है और उनके अंदर का गुबार बाहर आ रहा है। एक चुनाव ने मिजाज बदल दिया है।
इस बदलाव की शुरुआत 4 मई को हुई थी। जब जयंत चौधरी समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से मिलने पहुंचे तो मीडिया में बाहर खबरें आई कि जयंत चौधरी संयुक्त विपक्ष की और कैराना से चुनाव लड़ेंगे। अखिलेश यादव मध्यमार्ग की तलाश में थे और लगभग खुद को उन्होंने जयंत चौधरी के नाम पर राजी कर लिया था। राजनीतिक पंडितों के अनुसार इसके बाद बीएसपी सुप्रीमो मायावती से बात की गई, मगर उनके दिल्ली में होने के कारण जयंत की दावेदारी टल गई। जयंत के करीबी सूत्रों के मुताबिक गठबंधन जयंत को प्रत्याशी बनाने की स्थिति में उनको समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़ाना चाहता था। इसके बाद यह रास्ता निकाला गया कि प्रत्याशी समाजवादी पार्टी का होगा और चुनाव चिन्ह आरएलडी का। इस पर सब राजी हो गया एक शुद्ध केमिस्ट्री बन गई। ये सब बातें अब इतिहास हैं और यथार्थ यह है कि उत्तर प्रदेश में अब एक मुसलमान सांसद भी हैं। इस सबके बीच जयंत 147 गांवों में घर-घर गए और उन्होंने कहा कि तबस्सुम हसन नहीं, यह चुनाव वे खुद लड़ रहे हैं।
यह बिल्कुल सामान्य चुनाव नहीं है, इसका मतलब आप इससे समझे कि देश भर में इस एक विषय पर तमाम राजनीति के जानकार ज्ञान उड़ेल रहे हैं, जबकि उपचुनाव लोकसभा की 4 सीटों और विधानसभा की 10 सीटों पर हुए थे, मगर चर्चा सिर्फ कैराना की हो रही है।
कैराना जीत के बाद जयंत चौधरी का यह बयान कि ‘यहीं से शुरू हुई थी कहानी, यहीं खत्म कर रहे हैं’ इस जीत के महत्व को समझाने के लिए काफी है। इस एक जीत के बाद विपक्ष बहुत अधिक उत्साह में है। उसे ऐसा लगता है कि जैसे उसने दिल्ली जीतने की और कदम बढ़ा दिए हैं। ऐसा समझने के पीछे उनका अपने कारण हैं।
कांग्रेस के पूर्व विधायक पंकज मलिक कहते हैं, “2013 में केंद्र में बीजेपी सरकार बनने की सबसे अहम वजह मुजफ्फरनगर दंगा थी। यहां की रक्तरंजित राजनीति से देश भर में ध्रुवीकरण हुआ और स्थानीय लोगों में बड़े पैमाने पर नफरत फैल गई। अब संदेश यह जा रहा है कि जाटों ने मुस्लिम प्रत्याशी को चुनाव जिताकर सदन में भेजने का काम किया, जो बिल्कुल अलग बात है। एक सिक्के के दूसरे पहलू की तरह। इस बार का संदेश सकारात्मक है। नकारात्मक संदेश से सरकार बन गई थी, सकारात्मक से बदल जाएगी।” हमसे हुई बातचीत में कैराना की नई सांसद तबस्सुम हसन भी इस बात पर सहमति जताती हैं। वे कहती हैं, “यह चुनाव जीत-हार से बहुत ज्यादा महत्व रखता है।2013 के दंगों में कुछ वक्त के लिए दिलो में फर्क जरूर आ गया था, अब असलियत सामने आ गई है।”
2013 के दंगों के बाद हसन परिवार पूरी तरह से दंगा पीड़ितों के साथ खड़ा रहा और नाहिद हसन ने अपनी 18 बीघा जमीन दंगा पीडितों के घर बनाने के लिए दान कर दी। नाहिद हसन कहते हैं, “हमने दंगा पीड़ितों की मदद की। उनके साथ अत्याचार हुआ था, मगर हमने जाटों से नफरत नहीं की क्योंकि हम जानते थे कि दंगा प्रायोजित था और जाटों की भावनाओं का इस्तेमाल किया गया था।”
आरएलडी नेता जितेंद्र हुड्डा इस बात से पूरी तरह सहमत होते हैं। वे कहते हैं, “जाट एक जज्बाती कौम है। 25 मई को शामली में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की एक सभा हुई। इसमें बड़ी संख्या में जाट भी पहुंचे। तब तक जाट असमंजस में था और दोनों में से किसी भी तरफ जा सकता था। योगी ने कहा कि आज बाप-बेटा (अजित सिंह और जयंत चौधरी) दोनों घर-घर जाकर भीख मांग रहे हैं। यह सुनते ही जाटों की भावनाओं ने उफान मारना शुरू कर दिया। योगी की रैली के बीच से जाट उठकर बाहर जाने लगे और कुछ ने हाय-हाय भी की। इसके बाद गांव-गांव जाटों की छोटी-छोटी पंचायत हुई और 24 घण्टे में सारे जाट एक पाले में आ गए। अब वे भले ही सीएम हों, मगर जयंत चौधरी हमारे अपने हैं। हम उनके खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकते।”
इसके बाद जाटों ने अपना सारा गुस्सा वोटिंग के दिन उतार दिया। उनके जज्बे का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि नकुड़ विधानसभा क्षेत्र के एक गांव शुक्रताल में मशीन खराब हो गई तो आरएलडी कार्यकर्ता दलितों के वोट डलवाने के लिए अड़ गए और खुद देर रात तक वोटिंग में सहयोग करते रहें। चुनाव में आरएलडी प्रत्याशी तबस्सुम हसन के चीफ इलेक्शन एजेंट और उनके भाई वसीम चौधरी बताते हैं कि आरएलडी कार्यकर्ताओं के बूथ एजेंट होने से ध्रुवीकरण और गलत मतदान की संभावना खत्म हो गई, वरना यहां दलितों की वोट दबंग ही डाल देते थे।
मुसलमान इस चुनाव में पूरी तरह सजग रहे और कड़ी धूप और रोजे के बावजूद भी उन्होंने बड़ी तदाद में वोटिंग की। दलितों की तरफ से भीम आर्मी ने भी काम किया। दलित, मुस्लिम और जाट में कोई बंटवारा नही हुआ। समाजवादी पार्टी के एमएलसी वीरेंद्र सिंह इसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति के हिसाब से बेहद मजबूत और सकारात्मक बात मानते हैं। वे कहते हैं कि इस घटजोड़ के बाद कुछ शेष नही बचता है, अब कुछ भी भगवा नही रहेगा।
जयंत चौधरी को इस जीत का नायक माना जा रहा हैं। अखिलेश यादव उन्हें एक परिपक्व नेता बता चुके हैं। आरएलडी की गठबंधन में बेहतर स्थिति उनके कैराना के प्रदर्शन पर भी निर्भर करती थी।जाहिर है अब उनकी स्थिति सम्मानजनक होगी।
कैराना में लोगों में बीजेपी को लेकर सोच में गहरा बदलाव आया है। यहां लोगों ने ध्रुवीकरण की हर एक कोशिश को नाकामयाब किया, जबकि बीजेपी ने चुनाव में हर तंत्र का इस्तेमाल किया। यहां चार दिन में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दो बार सभा की। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने यहां कैम्प भी किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैराना उपचुनाव के दौरान 9 किमी के हाइवे का उद्घाटन किया। उन्होंने किसानों को लुभाने के लिए तमाम वादे किए। 50 से ज्यादा विधायक और 28 मंत्री लगातार प्रचार कर रहे थे। बीजेपी की एक सांसद कांता कर्दम के खिलाफ नफरत फैलाने वाली बयानबाजी के लिए मुक़दमा दर्ज हुआ। गांव-गांव शराब और पैसे बांटने के आरोप लगे, मगर इसके बाद भी न दलित बिके और न जाट बहके।
आरएलडी के सहारनपुर जिलाध्यक्ष राव कैशर सलीम इस पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं, "आप इससे अंदाजा लगा लीजिये कि अगर इतना सबकुछ झोंकने के बाद भी बीजेपी के लोग यहां धूव्रीकरण करने में कामयाब नहीं हुए तो भारत मे बीजेपी को कहीं भी हराया जा सकता है और 2019 में एक लोकसभा पर इतना अमला तो बीजेपी लगा ही नहीं सकती, इसलिए इस गठबंधन के बाद बीजेपी की केंद्र में वापसी नही हो पाएगी।”
बीजेपी के लिए एक बेहद चिंता की बात यह भी है कि इस लोकसभा में पड़ने वाले उनके दो मंत्रियों की विधानसभा सीटों से भी उन्हें कम वोट मिले। प्रदेश सरकार के आयुष मंत्री धर्म सिंह सैनी नकुड़ और गन्ना मंत्री सुरेश राणा थानाभवन गवां बैठे। धर्म सिंह सैनी के तो अपने बूथ कम वोट मिले। इससे पहले गोरखपुर चुनाव में योगी आदित्यनाथ के बूथ से भी बीजेपी को कम वोट मिले थे।
कैराना लोकसभा सीट पर आम आदमी पार्टी ने भी विपक्ष को अपना समर्थन दिया था। आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता लोकेश गुर्जर एक रोचक बात बताते हैं। वे कहते हैं कि हिन्दू गुर्जरों ने बीजेपी की इज्जत रख ली, चुनाव मृगांका सिंह लड़ रही थीं। वे हमारी बहन हैं। अगर कोई और प्रत्याशी होता तो डेढ़ लाख गुर्जर तबस्सुम हसन को वोट करता तब बीजेपी की जमानत जब्त हो जाती क्योंकि भाजपा से नाराजगी हिन्दू गुर्जरो में भी बहुत है।
तब्बसुम हसन के भाई वसीम चौधरी लगभग 10 हजार हिन्दू गुर्जरों के तब्बसुम हसन को वोट करने की बात कहते हैं। उनकी बात पर हम युवा सतीश भड़ाना भी मुहर लगाते हैं। सतीश हमें बताते हैं, "मैं मृगांका (बीजेपी प्रत्याशी) से पूरी सहानभूति रखता हूं। मगर हमें झूठी सरकार को आइना दिखाना था। मैं भी किसान हूं। मेरे गन्ने का पेमेंट अब तक नहीं आया। अगर मृगांका संयुक्त विपक्ष से लड़ती और नरेन्द्र मोदी भी बीजेपी प्रत्याशी होते तो भी मृगांका को वे हरा नहीं पाते।” इससे साफ है कि कैराना में बीजेपी के खिलाफ आक्रोश है।
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