दिल्ली की सांस पर सड़क जाम का ताला! हवा में घुलता जहर लोगों को बना रहा शिकार
आखिर इस बात से क्यों मुंह चुराया जा रहा है कि समग्र दिल्ली अर्थात-गाज़ियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद-गुरुग्राम की तीन करोड़ से अधिक आबादी के जीवन को जटिल बना रहे वायु प्रदूषण का मूल कारण ट्रैफिक जाम है।
क्रिसमस की छुट्टियां शुरू होने से पहले दिल्ली में फिर से ग्रेप 3 लागू करना पड़ा। अर्थात यहां की हवा सांस लेने लायक बच नहीं रही। अब तो पंजाब या हरियाणा के खेतों में पराली जल नहीं रही है और अभी भी दिल्ली और उसके करीबी जिलों का वायु गुणवत्ता सूचकांक बेहद खतरनाक स्तर यानी 400 से पार है। भारत सरकार के पृथ्वी मंत्रालय के अंतर्गत डीएसएस सिस्टम अर्थात “डिसीजन सपोर्ट सिस्टम फॉर एयर क्वालिटी मेनेजमेंट इन दिल्ली “ ने स्पष्ट कह दिया है कि दिल्ली महानगर में वायु प्रदुषण का असली कारण गड़बड़ाया परिवहन तन्त्र है। ग्रेप नीति के तहत प्रदूषण बढ़ने पर परिवहन में सुधार के जो उपाय किये जाने चाहिए, उस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। स्मॉग टावर और पानी छिड़कने के प्रयोग असफल रहे हैं, इससे पहले वाहनों को सड़क पर सम-विषम में चलाना भी कोई ख़ास नतीजे दे नहीं सका। आखिर इस बात से क्यों मुंह चुराया जा रहा है कि समग्र दिल्ली अर्थात-गाज़ियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद-गुरुग्राम की तीन करोड़ से अधिक आबादी के जीवन को जटिल बना रहे वायु प्रदूषण का मूल कारण ट्रैफिक जाम है। इसमें सडक पर प्रबंधन का तो अभाव है ही, हाल के वर्षों में बने फ्लाईओवर। अंडर पास और सड़कें भी दूरगामी सोच के साथ बनी नहीं।
दिल्ली के दो सबसे बड़े अस्पताल– एम्स और सफदरजंग अस्पताल के सामने रिंग रोड पर पूरे दिन वाहन रेंगते हैं। बारीकी से देखें तो वहां केवल सडक का मोड़ गलत है और बस स्टॉप के लिए उचित स्थान नहीं है। साथ है टैक्सी और तिपहिया का बेतरतीब खड़ा होना। यहां वाहनों की गति पर ऐसा विराम लगाता है कि इन अस्पतालों में भर्ती मरीजों की रोग प्रतिरोधक क्षमता तक प्रभावित हो रही हैं। उन पर एंटी बायोटिक का असर कम हो रहा है। इतनी गंभीर समस्या के निदान पर कभी कोई सोचता नहीं, जबकि इस जाम में हर दिन कई-कई एम्बुलेंस भी फंसती हैं।
दिल्ली से मेरठ के एक्सप्रेसवे को ही लें, इसे देश का सबसे चौड़ा और अत्याधुनिक मार्ग कहा गया। साल 1999 में कभी इसकी घोषणा संसद में हुई और फिर शिलान्यास 2015 में हुआ। यदि दिल्ली निजामुद्दीन से यूपी गेट और उधर मेरठ के हिस्से को जोड़ लें तो यह सड़क कुल 82 किलोमीटर की हुई। छह से 14 लेन की इस सड़क की लागत आई 8, 346 करोड़। हिसाब लगाएं प्रति किलोमीटर 101 करोड़ से भी ज्यादा। आज भी हर शाम इसके दो लेन में जाम रहता ही है। दिल्ली के प्रगति मैदान में बनी सुरंग-सड़क को देश के वास्तु का उदाहरण कहा जा रहा है, इसकी लागत कोई 923 करोड़ है और अभी इसको शुरू हुए कुछ ही महीने ही हुए है और इसमें जाम लगना हर दिन की कहानी है।
राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा ना आए। रही बची कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो यो ऐसे ही निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है। लोगों की सांस की मानिंद पूरा यातायात और सिस्टम हांफ रहा है। यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। सांसों में बढ़ता जहर लोगों को आर्थेराईटिस जैसे रोगों का शिकार बना रहा है।
एक तरफ दिल्ली में निजी वाहनों की खरीद और पंजीयन पर कोई नियन्त्रण या नीति है नहीं, वहीं निर्माण कार्य खासकर सडक पर प्रायः आने वाले दस साल का ख्याल ही नहीं रखा जा रहा है। तभी कोई फ्लाई ओवर बनने के कुछ दिनों बाद ही वह जाम का सबब बन जाता है, दिल्ली का पहले एलिवेटेड रोड बारापुला इसका उदहारण हैं– इस पर जैसे ही सीजीओ कॉम्प्लेक्स का ट्रैफिक जोड़ा, वहां जाम स्थाई हो गया है। जल्दी ही जब यह पूल मयूर विहार से भी जुड़ जाएगा तो यहां का यातायात जाम होगा ही। इस बात से बेपरवाही है कि बारापुला से नीचे उतर कर सराय कालेखां जाना हो या दूसरी तरफ आईएनए, डॉन जगह दिन चढ़ते ही ट्रैफिक रेंगने लगता है। जाहिर है कि सडक निर्माण में तकनीक की जगह लोकप्रिय होने पर अधिक ध्यान दिया गया।
दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। भले ही सरकार कहती हो कि दिल्ली में ट्रक घुस ही नहीं रहे। हकीकत जांचने के लिए गाजियाबाद से रिठाला जाने वाली मेट्रो पर सवार हों और राजेन्द्र नगर से दिलशाद गार्डन तक महज चार स्टेशनों के रास्ते को बाहर की झांके, जहां तक नजर जाएगी- ट्रक खड़े मिलेंगे। कहा जाता है कि ज्ञानी बार्डर के नाम से मशहूर इस ट्रांस्पोर्ट नगर में हर दिन दस हजार तक ट्रक आते हैं। यहां कच्ची जमीन है और ट्रकों के चलने से भयंकर धूल उड़ती है। यह पूरा स्थान दिल्ली की सीमा से शून्य किलोमीटर दूर है। यही हालत बहादुरगढ़, बिजवासन, लोनी और अन्य दिल्ली की सीमाओं के ट्रांसपोर्ट नगरों पर है।
यदि वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ रखना है तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौडाई नहीं, बल्कि महानगर की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे आफिस है जिनका संसद या मंत्रालय के करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दिखता। दिल्ली में नए वाहनों की बिक्री रोकने की बात तो दूर अभी तक सरकार मेट्रो में भीड़ नियंत्रण, मेट्रो स्टेशन तक लोगों के घरों तक सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था तक नहीं कर पाई है।
सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। जरुरी तो नहीं कि सभी कार्यालयों में बंदी का दिन शनिवार- रविवार ही हो। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही कालेनी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है।
दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कारीडोर जी का जंजाल बना और तोड़ दिया गया। काश पेकिंग गए हमारे नेता ईमानदारी से वहां की बसों को देख करे आते। पेकिंग में 800 रूटों पर बसें चलती हैं। कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दुगनी बड़ी, लेकिन कमाल है कि कहीं मोड़ पर ड्रायवर अटक जाए। इन बसों में तीन दरवाजे होते हैं -चढ़ने के लिए केवल बीच वाला और उतरने के लिए आगे और पीछे दो दरवाजे। पुराने पेकिंग में जहां सड़कों को चौडा करना संभव नहीं था, बसें बिजली के तार पर चलती हैं मेट्रो की तरह। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं । एक तो बस की रफ्तार बांध दी गई हैं फिर सिर पर लगे बिजली के हैंगर से चल रही है सो इधर-उधर भाग नहीं सकती। यदि बीआरटी, मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बजाए केवल बसों को सीधे बिजली से चलाने पर विचार किया होता तो महानगर में सार्वजनिक परिवहन को गति और लोकप्रियता दोनों मिलती।
यदि दिल्ली की हवा को वास्तव में निरापद रखना है तो यहां से भीड़ तो कम करना ही होगा साथ ही कूड़े को जलने, खासकर मेडिकल कचरे को जलाने से रोकने के कड़े कदम उठाने होंगे।
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