असली वोटिंग के आंकड़े कहते हैं फिसलती जमीन पर खड़े हैं मोदी, आधे वोटर नहीं देना चाहते दूसरा मौका
केंद्र की मोदी सरकार की लोकप्रियता बहुत तेज़ी से नीचे जा रही है और इस समय मोदी सरकार से लोगों की नाराजगी उतनी ही है, जितनी जुलाई 2013 में तब की यूपीए सरकार से थी। उसके बाद 2014 में यूपीए की जबरदस्त हार हुई थी। असली वोटिंग के आंकड़ों को देखें तो 2019 में एक फिसलती जमीन पर खड़े होंगे नरेंद्र मोदी
अब तक जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी, अब उसके कयास लगाए जा रहे हैं। कयास यह है कि 2019 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत ही फिसलती हुई जमीन पर खड़े होंगे। लोकनीति-सीएसडीएस-एबीपी के एक पखवाड़े पहले जारी सर्वे में मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी की हार की धुंधली सी तस्वीर दिखाई दे रही थी। लेकिन, उसी सर्वे की कुछ और बातें, हैरान करने वाले संकेत दे रही हैं:
- मोदी सरकार इस समय तकरीबन उतनी ही अलोकप्रिय है, जितनी जुलाई 2013 में यूपीए की सरकार थी और इसके 9 महीने बाद , 2014 में उसकी जबरदस्त चुनावी हार हुई थी।
- सर्वे में शामिल किए गए 15,859 लोगों में से करीब आधे ( 47% ) का मानना है कि मोदी सरकार इस लायक नहीं है कि उसे एक बार फिर सरकार बनाने का मौका दिया जाए
- मुस्लिम, ईसाई और सिख जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लोग तो बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ हैं ही, बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के लोग भी सरकार के समर्थन/विरोध के मसले पर आधे-आधे बंटे हुए हैं
- पिछले 12 महीनों के दौरान बीजेपी की लोकप्रियता में 7 फीसदी की भारी कमी आई है। अगर गिरावट का यही ट्रेंड जारी रहा, तो अगले कुछ महीनों में यह गिरकर 30% से भी नीचे चला जाएगा
- "देश भर में चार में से एक (यानी 25%) वोट कांग्रेस की झोली में जा सकता है, और इस तरह पुराने यूपीए गठबंधन को देश भर में 31% वोट मिल सकते हैं
- ध्यान रहे कि इसमें मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी (एसपी) और एचडी देवेगौड़ा की जनता दल (सेकुलर) जैसी कांग्रेस की नई सहयोगी पार्टियां शामिल नहीं हैं। इन्हें जोड़ दें तो इस "नए यूपीए" के वोट 11 फीसदी और बढ़ जाएंगे
तो क्या असली तस्वीर ऐसी ही है। चलिए इनअनुमानों की पड़ताल करते हैं।
सर्वे के अनुमानों पर असली आंकड़ों की मुहर !
अब तक ये आंकड़े मुझे हिला चुके थे। मैं बार-बार खुद से पूछ रहा था : क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है, जिससे इन निष्कर्षों की पुष्टि सर्वे की बजाय असली और आधिकारिक आंकड़ों से की जा सके ?
तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंध गई। इस साल जनवरी से अब तक देश के अलग-अलग इलाकों में बड़ी संख्या में उपचुनाव हुए हैं। अगर मैं इन चुनावों में हुए मतदान के असली आंकड़ों की तुलना सीएसडीएस के सर्वे वाले आंकड़ों से करूं तो क्या निष्कर्ष निकलेगा ?
किस्मत से, दोनों आंकड़ों का समय भी यानी वह समय जब चुनाव हुए और सर्वे हुआ, आपस में पूरी तरह मेल खाता है। इस साल जनवरी से मई 2018, सीएसडीएस के सर्वे में शामिल करीब 16 हजार लोगों को जहां “साइंटिफिकली रैंडम” प्रक्रिया के तहत चुना गया था, वहीं उपचुनाव के आंकड़े अपने आप ही “हालात की वजह से रैंडम” हो जाते हैं, क्योंकि चुने हुए प्रतिनिधियों के निधन या इस्तीफे में कोई “सिस्टमिक बायस” यानी पक्षपात नहीं होता।
हमारे इस "असली सैंपल" का खाका कुछ इस तरह है : दिसंबर 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद 10 लोकसभा सीटों और 21 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो चुके हैं। ये चुनाव 15 राज्यों में हुए हैं, जिनमें सवा करोड़ से ज्यादा लोगों ने 19 राजनीतिक दलों के लिए वोट डाले हैं।
जाहिर है, दोनों आंकड़ों की आपस में तुलना करना गलत नहीं होगा (पूरी तरह एक जैसे न होने के बावजूद). बल्कि मुझे लगता है कि ऐसा करना काफी दिलचस्प होगा, क्योंकि इसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं. कुछ देर तक इस ग्राफ को ध्यान से देखिए - बेहद इत्मीनान से - और आगे बढ़ने से पहले इसे एक बार फिर से पढ़िए:
"सैंपल की कहानी" से ज्यादा चौंकाने वाला है असली आंकड़ों का सच !
उप-चुनावों में हुए मतदान के असली आंकड़े और सीएसडीएस सर्वे के आंकड़े इतने ज्यादा मेल खाते हैं कि आप हैरान रह जाएंगे ! ये आंकड़े इस कहावत में नया अर्थ भर देते हैं कि हकीकत कई बार कल्पना से ज्यादा चौंकाने वाली होती है :
- बीजेपी + सहयोगी दलों को सर्वे में 37% और गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में 36% वोट मिले.
- कांग्रेस + सहयोगी दलों को सर्वे में 31% और असलियत में 32% वोट मिले.
- बीएसपी+ सहयोगी दलों को CSDS के सर्वे में 10% और उपचुनावों में 13.3% वोट मिले.
मैं बताना चाहूंगा कि आंकड़ों की इस "शत प्रतिशत पुष्टि" से मेरा भरोसा और मजबूत हुआ और मैंने उन अनुमानों को एक बार फिर से पढ़ा, जिन्हें पहले मैं "कल्पना की उड़ान" मानकर खारिज कर रहा था, क्योंकि तब ये अनुमान मीडिया के बनाए मौजूदा माहौल के बिलकुल खिलाफ लग रहे थे. हालांकि ये अनुमान अब भी गलत या बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए साबित हो सकते हैं, लेकिन उपचुनाव में हुए मतदान के आंकड़ों को देखने के बाद इनके सच के करीब होने की संभावना बेशक बढ़ गई है :
- मतदाताओं के समर्थन के मामले में मोदी अब राहुल से थोड़ा ही आगे हैं. उनकी 17 परसेंटेज प्वाइंट की बढ़त अब घटकर सिर्फ 10 परसेंटेज प्वाइंट रह गई है.
- मोदी और राहुल, दोनों को पसंद करने वालों की तादाद अब 43% यानी बराबर-बराबर हो गई है. और चूंकि राहुल को नापसंद करने वालों की तादाद कम है, इसलिए उनकी "नेट लाइकेबिलिटी" यानी "पसंद किए जाने की संभावना" दरअसल मोदी से बेहतर है.
- राहुल अपने करीब 30% "विरोधियों" को "समर्थकों" में तब्दील करने में कामयाब रहे हैं. इसके ठीक उलट, मोदी ने अपने 35% पुराने समर्थकों को विरोधियों में तब्दील कर दिया है.
- राहुल को सबसे ज्यादा बढ़त अधेड़ और बुजुर्ग मतदाताओं के बीच मिली है (ये वो लोग हैं, जिनके बाहर निकलकर वोट डालने की संभावना ज्यादा रहती है). मोदी के समर्थन में सबसे ज्यादा गिरावट मध्य वर्ग और वंचित तबकों के बीच आई है.
- छोटे शहरों और कस्बों के आंकड़े भी इसी ट्रेंड की पुष्टि कर रहे हैं. इन इलाकों में कांग्रेस तेजी से अपनी खोई जमीन दोबारा हासिल कर रही है. बड़े शहरों में भी उसके समर्थन में सुधार के शुरुआती रुझान दिखाई दे रहे हैं.
- चौंकाने वाली बात ये है कि 60% से ज्यादा लोग मानते हैं कि मोदी सरकार भ्रष्ट है. 50% से ज्यादा लोगों ने नीरव मोदी के घोटाले के बारे में सुन रखा है और उनमें से दो-तिहाई लोग इस सिलसिले में की गई (या नहीं की गई) कार्रवाई से असंतुष्ट हैं.
- दलितों और आदिवासियों के बीच कांग्रेस की रिकवरी गौर करने लायक है. इन तबकों के बीच बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस 1 से 2 परसेंटेज प्वाइंट आगे है.
- किसान एक साल में 12 परसेंटेज प्वाइंट की तेज और चेतावनी देने वाली रफ्तार से मोदी का साथ छोड़ रहे हैं. इनका सबसे बड़ा हिस्सा गैर-कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की तरफ गया है.
- उत्तर भारत को छोड़ दें तो मोदी का समर्थन हर तरफ घटा है. सबसे ज्यादा गिरावट दक्षिण, पश्चिम और मध्य भारत में आई है. GST - यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स मोदी के गले में बंधा पत्थर बनता जा रहा है. GST से लोगों की नाराजगी जनवरी से मई के दौरान तेजी से बढ़कर 24% से 40% हो गई है.
- और एक बात तो ऐसी है जिसका अंदाजा शायद ही किसी को रहा हो : एक भी मुद्दा ऐसा नहीं रह गया है, जिस पर अब लोग मोदी सरकार से खुश हों !
कोई भी जीत सकता है 2019 की रेस !
हालांकि मोदी चुनाव अभियान में उतरने के बाद शब्दों की अपनी चिर-परिचित बाजीगरी से बहस को नया मोड़ देने और वोटरों में फिर से नई उम्मीद जगाने की पूरी कोशिश करेंगे. हो सकता है इससे वो माहौल को बदलने में काफी हद तक कामयाब भी हो जाएं, फिर भी कुछ बातें तो बेहद साफ हैं :
सिर्फ मोदी भक्त ही राहुल को आसानी से खारिज कर सकते हैं. बाकी सभी वोटरों के लिए वो धीरे-धीरे ही सही, लेकिन निश्चित तौर पर एक ऐसे विकल्प के रूप में उभर रहे हैं, जिस पर वो भरोसा कर सकते हैं.
मोदी को खुद में और अपने अंदाज में भारी बदलाव करने होंगे. ये बदलाव क्या हो सकते हैं, ये सामने आना अभी बाकी है.
( यह लेख सबसे पहले हिंदी क्विंट में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में राघव बहल ने चुनावी सर्वे और असली वोटिंग के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।)
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