कश्मीर में रेल विस्तार बना सेब उत्पादकों के लिए विनाश, बागों की जमीन जाने पर छलका लोगों का दर्द

सेब उत्पादकों ने बताया कि सरकारी अधिकारियों ने रेल लाइन निर्माण के लिए भूस्वामियों की सहमति लिए बिना ही लगभग 20 गांवों में भूमि चिह्नित कर दी है। कई सेब उत्पादकों को लगता है कि उन्हें आतंकित करने की कोशिश की जा रही है, उनकी जीवनशैली पर हमला किया जा रहा है

कश्मीर में रेल विस्तार बना सेब उत्पादकों के लिए विनाश, बागों की जमीन जाने पर छलका लोगों का दर्द
कश्मीर में रेल विस्तार बना सेब उत्पादकों के लिए विनाश, बागों की जमीन जाने पर छलका लोगों का दर्द
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नवजीवन डेस्क

4 मार्च, 2024 को हृदय की बीमारी से उबर रहे और सरकारी जिला अस्पताल में बिस्तर पर पड़े दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले के 42 वर्षीय सेब उत्पादक मुजफ्फर अहमद मलिक रेलवे लाइन बनाने की सरकार की योजना के बारे में चिंतित थे जो उनके 10 कनाल (एक एकड़) के बगीचे को अपने में समाहित कर सकती है। 

मलिक की बेटी मेहविश मुजफ्फर ने एक महीने बाद इस घटना को याद करते हुए कहा, "यह मौत का डर नहीं था जिसने मेरे अब्बू जी को रोने पर मजबूर कर दिया था बल्कि यह हमारी जीवन पद्धति और हमारी भूमि की जीवनरेखा की आसन्न मौत थी। पीढ़ियों से हमारे हाथ इन पेड़ों पर काम करते आए हैं। अब वे इनकी जगह पटरियां बनाना चाहते हैं। हमारे पसीने और मेहनत का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। पटरियों और सड़कों के लिए बागों को नष्ट होते देखना ऐसा लगता है जैसे हमारी जिंदगी भी नष्ट हो रही है।" मलिक की पत्नी ने बताया कि सेब के बगीचे से होने वाली आय से दवा और चार बेटियों की शिक्षा का खर्चा निकलता था। यदि सरकार हमारी जमीन से होकर रेल लाइन का निर्माण कार्य आगे बढ़ाती है, तो हम कहां जाएंगे?

भारत का 75 प्रतिशत सेब उत्पादन कश्मीर से होता है। यह उद्योग जम्मू और कश्मीर के सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत का योगदान और 3.5 मिलियन लोगों को रोजगार देता है जो कुल जनसंख्या का 23.35 प्रतिशत है। बीजेपी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार दक्षिण में अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां और पुलवामा तथा उत्तर में बारामुल्ला और कुपवाड़ा में 324.4 किलोमीटर नई रेलवे पटरी बिछाकर कश्मीर घाटी में संपर्क बढ़ाने की योजना बना रही है। प्रस्तावित रेल नेटवर्क कश्मीर में सेब उत्पादकों के लिए चिंता और बेचैनी का सबब बन गया है, खासकर तब जब अधिकारी किसी पूर्व सूचना या परामर्श के बिना उनकी जमीन नापने के लिए आने लगे हैं। उनके बागों के नष्ट होने से न केवल उनकी आजीविका बल्कि उनकी पूरी जिंदगी ही प्रभावित होगी।

भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 की धारा 4 और 11 में सार्वजनिक भूमि के अधिग्रहण के बारे में औपचारिक सार्वजनिक सूचना, ग्राम परिषदों के साथ परामर्श और सामाजिक प्रभाव आकलन अनिवार्य किया गया है। शोपियां के डिप्टी कमिश्नर फजलुल हसीब और अनंतनाग में बिजबेहरा तहसील के तहसीलदार नुसरत अजीत ने नोटिस और परामर्श की कथित कमी के बारे में सवालों के जवाब नहीं दिए। इस बीच, दक्षिण कश्मीर के विभिन्न हिस्सों और बारामुल्ला, अनंतनाग, शोपियां और पुलवामा में विरोध प्रदर्शन किए गए।


रेल मंत्रालय ने कहा है कि नई रेलवे लाइनों की पहल से निवेश में तेजी आएगी और देश के सबसे बड़े मुस्लिम बहुल क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसर पैदा होंगे। जम्मू कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने 6 अगस्त, 2023 को कहा कि मेरा मानना है कि रेलवे कनेक्टिविटी समाज की जीवन रेखा है। रेलवे लाइन न केवल विभिन्न क्षेत्रों के साथ संपर्क को मजबूत करती है बल्कि यह आर्थिक समृद्धि भी लाती है और जीवन स्तर को बदल देती है। संबंधित क्षेत्र के लिए एक नया भाग्य बनाती है।

20 दिसंबर, 2023 को रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद को बताया था कि कश्मीर संभाग में पांच रेलवे लाइनों के अंतिम स्थानों को मंज़ूरी दे दी गई है। इनमें मौजूदा बारामुल्ला-बनिहाल खंड का 135.5 किलोमीटर के हिस्से में दोहरी लाइन में विस्तार और बारामुल्ला-उरी (50 किमी), सोपोर-कुपवाड़ा (33.7 किलोमीटर), अवंतीपोरा-शोपियां (27.6 किलोमीटर) और अनंतनाग-बिजबेहरा-पहलगाम (77.5 किलोमीटर) नई लाइनें शामिल हैं।

वैसे, कश्मीर में बागवानी विभाग के निदेशक जहूर अहमद भट का तर्क है कि इन सबका समग्र सेब उत्पादन पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि कश्मीर के अन्य क्षेत्रों को सेब के बागों में बदला जा रहा है और सेब के पेड़ों के किसी भी संभावित नुकसान की भरपाई दोगुनी संख्या में पौधे लगाकर की जा सकती है। जम्मू-कश्मीर के बागवानी विभाग के अनुसार, बागवानी के अंतर्गत क्षेत्रफल 1975 में 82,486 हेक्टेयर से बढ़कर 2024 में 3,44,653 हेक्टेयर हो जाएगा। सेब उत्पादन का क्षेत्रफल 2024 में 46,189 हेक्टेयर से बढ़कर 1,72,141 हेक्टेयर हो गया है जिसमें कश्मीर में 1,50,615 हेक्टेयर और जम्मू क्षेत्र में 19,526 हेक्टेयर शामिल है। 2001 से 2023 तक सेब का उत्पादन 9,09,583 मीट्रिक टन से बढ़कर 20,64,295 मीट्रिक टन हो गया जो 22 वर्षों में लगभग 127 प्रतिशत की वृद्धि है।

हालांकि 2017 और 2019 में प्रकाशित अध्ययनों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि प्रतिपूरक वनरोपण एक विवादास्पद अभ्यास है जो अक्सर पर्यावरणीय गिरावट को कम करने के बजाय उसे और बढ़ा देता है। इस काम की आलोचना भूमि अधिग्रहण को छिपाने, समुदाय के स्वामित्व वाली भूमि और आम संपत्ति संसाधनों पर अतिक्रमण करने और पर्यावरणीय क्षति को कम करने या क्षतिपूर्ति करने के बजाय उसे बढ़ाने के लिए की जाती है। वर्ल्ड रेनफॉरेस्ट मूवमेंट द्वारा 2019 में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि इसमें शामिल कई कंपनियां सरकारी स्वामित्व वाली हैं, फिर भी उन्हें नियमित रूप से वैधानिक दायित्वों का उल्लंघन करने की अनुमति दी जाती है जिससे भारत में पर्यावरण अनुपालन की दयनीय स्थिति उजागर होती है।

सीपीएम नेता एमवाई तारिगामी ने कहा कि कश्मीर में प्रस्तावित रेलवे विस्तार बागों और जंगलों को नष्ट करने की कीमत पर नहीं होना चाहिए। प्रभावित समुदायों के साथ उचित परामर्श के बिना रेलवे परियोजना को आगे बढ़ाना बेहद चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि हम विकास के लिए अपनी कृषि विरासत का बलिदान नहीं दे सकते।


भूमि का अधिक मुआवजा

अभी तक कोई मुआवजा घोषित नहीं किया गया है। ग्रामीणों का कहना है कि वे जमीन के बदले पैसा स्वीकार नहीं करेंगे। रेशीपोरा गांव की 18 कनाल (2.25 एकड़) जमीन की मालिक 60 वर्षीय हजीरा बानो ने कहा कि भले ही वे हमें प्रचुर मात्रा में धन की पेशकश करें, हम उन्हें अपना बगीचा नहीं लेने देंगे। हम चाहे कितनी भी कीमत चुका लें, आत्मसमर्पण करने को तैयार नहीं हैं। हमने अपने घर बनाने और बगीचों को संवारने में अपनी जिंदगी लगा दी है लेकिन वे हमें असहाय छोड़ रहे हैं। पुलवामा जिले के बांदीना गांव में 13 कनाल (1.625 एकड़) जमीन की मालिक तीन बच्चों की मां 55 वर्षीय हफीजा बानो ने कहा कि एक बाग को अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने में आधी सदी लग गई। जैसे मैंने अपने तीन बच्चों को पाला है, वैसे ही इन पेड़ों की भी देखभाल की है। क्या अधिकारी चाहते हैं कि हमारे बच्चे खेती के सम्मानजनक पेशे को छोड़कर ड्राइविंग जैसे दूसरे काम करें?

छोटी भूमि की जोत 

2010-2011 की कृषि जनगणना के दौरान भारत में परिचालन भूमि जोतों का औसत आकार 22.73 कनाल था जबकि जम्मू-कश्मीर में यह 12.25 कम था। कश्मीर में भूमि जोतों का आकार राज्य के औसत से भी छोटा था। उदाहरण के लिए, अनंतनाग और कुलगाम में प्रत्येक के पास 0.39 हेक्टेयर भूमि जोत थी जबकि श्रीनगर में सबसे कम 0.31 हेक्टेयर भूमि जोत थी।राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक द्वारा 2021 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में 85.9 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं। कृषि जनगणना 2015-16 के दौरान इस क्षेत्र में छोटी कृषि भूमि जोतों का आकार 10.87 कनाल बताया गया था, हालांकि अन्य स्रोतों से पता चलता है कि वे और भी छोटे हैं।

कश्मीरी पर्यावरणविद राजा मुजफ्फर ने कहा कि यदि कश्मीरी निवासियों के पास मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात या राजस्थान जैसे राज्यों की तरह बड़ी भूमि होती, तो उन पर इसका कम असर पड़ता। कश्मीर घाटी में आमतौर पर जमीन का आकार छोटा होता है। सेब की खेती के लिए आधा एकड़ (4 कनाल) जमीन का नष्ट होना भी विनाशकारी हो सकता है।

नेटवर्क का विस्तार

2000 के दशक में दक्षिण कश्मीर में कटरा और संगलदान के माध्यम से उधमपुर-बनिहाल खंड में रेलवे लाइनों के निर्माण में मुख्य रूप से बीहड़ पहाड़ी क्षेत्रों में वन भूमि का अधिग्रहण शामिल था जिससे कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा बच गया। इसके विपरीत 1994-2005 में स्वीकृत दक्षिण कश्मीर के काजीगुंड से उत्तर में बारामुल्ला तक लाइन के लिए 90- प्रतिशत कृषि भूमि के अधिग्रहण की आवश्यकता थी। इसके बावजूद इस परियोजना को अच्छी प्रतिक्रिया मिली क्योंकि यह कश्मीर घाटी में एक अग्रणी उद्यम था जिसके कारण भूमि मालिकों को मुआवजा मिला और कई लोगों को रेलवे में रोजगार मिला। 2005 से 2012 तक दक्षिण में काजीगुंड से बनिहाल तक रेलवे लाइन के विस्तार के लिए कृषि भूमि के महत्वपूर्ण अधिग्रहण की आवश्यकता नहीं पड़ी। इसमें 11 किलोमीटर की सुरंग भी शामिल थी।


‘यह उत्पीड़न है’

अनंतनाग और शोपियां के सेब उत्पादकों ने बताया कि सरकारी अधिकारियों ने भूस्वामियों की सहमति लिए बिना ही लगभग 20 गांवों में भूमि चिह्नित कर दी है। शोपियां के रेशीपोरा गांव से 60 किलोमीटर दूर अनंतनाग के वुलरहामा के 45 वर्षीय सेब उत्पादक तारिक अहमद ने कहा कि सरकारी अधिकारी हमारी जमीन पर आए और हमसे पूछे बिना ही हमारे सेब के बागों को रेल लाइन निर्माण के लिए चिह्नित कर दिया।

48 वर्षीय अब्दुल मजीद ने बताया कि वुलरहामा गांव से 10 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के दिरहामा गांव में स्थित उनके लगभग 20 कनाल बाग को बिना किसी पूर्व अनुमति के चिन्हित कर लिया गया। ऐसा लगता है कि वे हमें आतंकित करने की कोशिश कर रहे हैं, हमारी जीवनशैली पर हमला कर रहे हैं। हमने पीढ़ियों से इस जमीन पर काम किया है और अब वे बिना किसी सलाह-मशविरा के इसे छीनना चाहते हैं। यह शासन नहीं है। यह एक तरह का उत्पीड़न है। ऐसा लगता है कि वे हमारा अस्तित्व मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। वर्षों की मेहनत और समर्पण को मिटा रहे हैं। वे हमारी जमीन को तो माप सकते हैं लेकिन हमें होने वाले दर्द और नुकसान को नहीं माप सकते।

मजीद ने कहा कि वह लगभग 25 वर्षों से जिन पेड़ों की देखभाल कर रहे थे, उनसे उनके परिवार को प्रतिवर्ष लगभग 15,00,000 रुपये की आय हो रही है। आंखों में आंसू भरकर मजीद ने कहा कि मैंने इन पेड़ों में अपना पसीना और अपनी आत्मा डाली है। आधी सदी से यह जमीन मेरी जिंदगी, मेरा सबकुछ रही है। अब, जब मेरे श्रम का फल पाने का समय आया है, तो वे इसे छीनना चाहते हैं।

(article-14.com से कश्मीर के स्वतंत्र पत्रकार जुनैद मंजूर डार की रिपोर्ट साभार। डार राजनीति, पर्यावरण और शिक्षा पर लेख लिखते हैं)

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