पंजाबः ‘दोस्तों’ के बीच मुकाबले से कांग्रेस की राह आसान, अकाली दल के अलग होने से BJP का खाता खुलना भी मुश्किल

अकाली दल के साथ न होने से इस बार बीजेपी के लिए पंजाब एक बहुत ही मुश्किल राज्य बन गया है और उसे गुरदासपुर और होशियारपुर जैसे अपने गढ़ों में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हालत यह है कि इस बार बीजेपी का पंजाब में खाता खुल जाना ही बड़ी बात होगी।

पंजाब में अकाली दल के अलग होने से BJP का खाता खुलना भी मुश्किल
पंजाब में अकाली दल के अलग होने से BJP का खाता खुलना भी मुश्किल
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हरजेश्वर पाल सिंह

विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक और शानदार जीत के दो साल बाद राज्य में पारंपरिक दो या तीन ध्रुवीय मुकाबलों का सिलसिला खत्म हो गया है। इस बार यहां मुकाबला चार-कोणीय है- आम आदमी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच। संगरूर, बठिंडा और खडूर साहिब जैसे कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में कट्टरपंथियों सिमरनजीत सिंह मान, लाखा सिधाना और अमृतपाल सिंह के चुनाव मैदान में खड़े होने से यहां तो मुकाबला पांच-कोणीय हो गया है। 

इस बार पंजाब में लोकसभा चुनाव की एक और खासियत दलबदलुओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि है। पंजाब के नेताओं की तुलना अक्सर तितलियों से की जाती है जो एक ‘फूल’ से दूसरे ‘फूल’ पर मंडराती रहती हैं। इससे कोई भी दल अछूता नहीं। सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से गुरप्रीत जीपी, राज कुमार चब्बेवाल और पवन कुमार टीनू की सेवाएं हासिल की हैं। वहीं, कांग्रेस यामिनी गोमर जैसे पूर्व आम आदमी पार्टी नेताओं को आकर्षित करने में सफल रही है, जबकि अकाली दल पूर्व कांग्रेसी महिंदर सिंह केपी को अपने खेमे में ले आई है। हालांकि यह बीजेपी है जिसने सबसे ज्यादा दलबदलुओं को मैदान में उतारा है- सुशील कुमार रिंकू (जालंधर), रवनीत बिट्टू (लुधियाना), परनीत कौर (पटियाला), परमपाल कौर (बठिंडा), मनदीप मन्ना (खडूर साहिब)।

ग्रामीण क्षेत्रों में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी साफ दिखती है। एमएसपी और कर्ज राहत के लिए प्रदर्शन कर रहे पंजाब के किसानों पर हरियाणा की बीजेपी सरकार ने जैसा दमन किया, उससे किसानों का गुस्सा बीजेपी पर फूट रहा है। परनीत कौर (पटियाला), हंस राज हंस (फरीदकोट), तरणजीत सिंह संधू (अमृतसर) और रवनीत बिट्टू (लुधियाना) सहित सभी बीजेपी उम्मीदवारों को मुखर विरोध का सामना करना पड़ा और किसानों ने उन्हें भगा दिया।

सिर उठा रहे कट्टरपंथी

कट्टरपंथियों की लगातार बढ़त इन चुनावों की एक और खासियत है। 2022 में संगरूर उपचुनाव के दौरान सिमरनजीत सिंह मान की आश्चर्यजनक जीत कट्टरपंथियों के लिए बड़ी सफलता थी। उदारवादी शिअद (बादल) का पतन, दीप सिद्धू और अमृतपाल सिंह की करिश्माई जोड़ी का उदय, बेचैन युवा और ध्रुवीकरण करने वाले सोशल मीडिया के प्रभाव ने मिलकर कट्टरपंथियों को प्रेरित किया। कम-से-कम तीन सीटों- संगरूर (सिमरनजीत सिंह मान), बठिंडा (लाखा सिधाना) और खडूर साहिब (अमृतपाल सिंह) पर उन्हें अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। अमृतपाल सिंह के पक्ष में सहानुभूति की ‘लहर’ की भी संभावना है जिन्हें खालिस्तान समर्थन के लिए गिरफ्तार कर सुदूर असम की जेल में रखा गया है।


2022 के राज्य विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42 फीसद, कांग्रेस को 23 फीसद, अकाली दल को 20 फीसद और बीजेपी को 8 फीसद वोट मिले थे। हालांकि बाद के उप-चुनावों में बीजेपी का वोट प्रतिशत बेहतर हुआ, अकाली दल का गिरा, कांग्रेस का वोट शेयर स्थिर रहा जबकि आम आदमी पार्टी की स्थिति उतार-चढ़ाव भरी रही। 

2022 में कृषि कानूनों को लागू करने के लिए बीजेपी, उनका समर्थन करने के लिए शिरोमणि अकाली दल और अपने कमजोर शासन के लिए कांग्रेस के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर थी। इसके अलावा आम आदमी पार्टी के नेतृत्व- दिल्ली में केजरीवाल और राज्य में भगवंत मान- की विश्वसनीयता अधिक है। सस्ती बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य के ‘दिल्ली मॉडल’ के वादे के साथ चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी को पंजाब ने हाथों-हाथ लिया और इसके अपरीक्षित और ताजा चेहरों को अधिक विश्वसनीय माना गया है।

असंतोष के बाद भी मजबूत

2024 में स्थिति अलग है। किसी भी पार्टी के पक्ष में कोई स्पष्ट लहर नहीं है। आम आदमी पार्टी क्लीन स्वीप करने और राज्य की सभी 13 सीटें जीतने का दावा कर रही है। उसे भगवंत मान की लोकप्रियता, मुफ्त बिजली जैसे कदमों, अपने प्रचार मॉडल के अलावा मतदाताओं तक अपना संदेश ले जाने की अपनी क्षमता पर भरोसा है। पार्टी को यह भी उम्मीद है कि बहुकोणीय मुकाबलों में उसे विपक्षी वोटों में विभाजन से मदद मिलेगी। यह अभियान अरविंद केजरीवाल की कैद के विरोध में ‘संसद च वी भगवंत मान’ (संसद में भी भगवंत मान) और ‘जुल्म दा जवाब वोट नाल’ (जुल्म का जवाब वोट से) के नारे के इर्द-गिर्द घूम रहा है।

हालांकि इसके दिल्ली के लगभग पूरे नेतृत्व की गिरफ्तारी ने जरूर इसकी रफ्तार को कम कर दिया है। इसके विधायकों का संतोषजनक काम न कर पाना और इसका अपेक्षाकृत नया संगठन इसके लिए चिंता के सबब बने हुए हैं। मादक पदार्थों की तस्करी, कानून-व्यवस्था और रेत-खनन के मुद्दों से निपटने में इसकी विफलता साफ नजर आती है। चुनावी वादों को पूरा न करने को लेकर किसानों, महिलाओं और कर्मचारियों का एक वर्ग भी इसके खिलाफ है। हेलीकॉप्टर की सवारी, निजी जेट किराये पर लेने और राज्य के बाहर विज्ञापन जारी करने पर लोगों के पैसे को खर्च करके अपनी छवि सुधारने की कोशिशों का भी लोगों पर गलत असर पड़ा है। जबकि शराब घोटाले ने ईमानदारी और ‘कट्टर ईमानदार’ होने के उसके दावों को नुकसान पहुंचाया है। फिर भी पार्टी लगभग सभी सीटों पर मजबूत स्थिति में है और खास तौर पर फरीदकोट, फतेहगढ़ साहिब, आनंदपुर साहिब और होशियारपुर में।


कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज

कांग्रेस आत्मविश्वास से भरी हुई है और उसे 2019 का प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद है जब उसने 13 में से 8 लोकसभा सीटें जीती थीं। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’, ‘लोकतंत्र और संविधान पर खतरा’ से जुड़े उनके अभियान और गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और युवाओं के लिए ‘पांच न्याय’ के वादे से उत्साहित पंजाब कांग्रेस का मानना है कि आकर्षक घोषणापत्र और विश्वसनीय उम्मीदवार इसे आगे बढ़ने में मदद करेंगे। पटियाला से डॉ. धर्मवीर गांधी और संगरूर से सुखपाल खैरा को मैदान में उतारने से पार्टी को मजबूती मिली है जबकि चरणजीत चन्नी (जालंधर), राजा वारिंग (लुधियाना) और सुखजिंदर रंधावा (गुरदासपुर) जैसे मजबूत नेता भी इसकी उम्मीदें बढ़ा रहे हैं।

दूसरी ओर, कई कांग्रेसी नेता सतर्कता जांच का सामना कर रहे हैं और राहुल गांधी द्वारा पार्टी की नई छवि बनाने की कोशिशों के बावजूद कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व वाली कमजोर सरकार की यादों ने इसके लिए समस्याएं बढ़ा दी हैं। फिर भी कांग्रेस के पंजाब में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की संभावना है।

संभल नहीं पा रही अकाली दल

सुखबीर बादल के नेतृत्व में पंजाब की 100 साल पुरानी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) पिछले दस सालों से संघर्ष कर रही है और लगातार अपना सामाजिक आधार और प्रासंगिकता खो रही है। सुखबीर बादल ने ‘पंजाब बचाओ यात्रा’ के साथ पार्टी में नई जान फूंकने और सुखदेव सिंह ढींडसा और बीबी जागीर कौर जैसे टकसाली अकालियों के साथ मतभेद दूर करने की कोशिश की। उन्होंने बीजेपी से हाथ न मिलाकर अपनी धूमिल साख को सुधारने की कोशिश भी की। पवन कुमार टिन्नू, मलूका परिवार, तलबीर गिल जैसे क्षत्रपों के पार्टी छोड़ने और अकाली दल गढ़ों में कट्टरपंथियों के सिर उठाने का मतलब है कि पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ है। सिकुड़ते सामाजिक आधार और पंजाबी, सिख और किसानों की पार्टी होने की अपनी पहचान के क्षरण के साथ अकाली दल ने हरसिमरत बादल (बठिंडा), प्रेम सिंह चंदूमाजरा (आनंदपुर साहिब, अमृतसर) और विरसा वल्टोहा (खडूर साहिब) जैसे मजबूत उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। फिर भी, उसके लिए उम्मीदें केवल अपने आखिरी गढ़- बठिंडा से ही हैं। 

2020 में कृषि कानूनों के कारण शिरोमणी अकाली दल से नाता टूटने के बाद से बीजेपी ने राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। संगरूर और जालंधर के उप-चुनावों में इसकी स्थिति कुछ बेहतर हुई है। इसके अलावा कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ जैसे जाट नेताओं को थोक में शामिल करके पार्टी को एक क्षेत्रीय रंग-रूप देने की भी कोशिश की। इसने ‘गुरु तेग बहादुर’ के बलिदान को याद करके और ‘वीर बाल दिवस’ मनाकर सिखों को अपनी ओर मोड़ने की कोशिश की।


इसके अलावा बीजेपी को राम मंदिर के नाम पर ऊंची जाति के हिन्दुओं के समर्थन, प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और मुफ्त राशन, सिलेंडर और पक्के मकान जैसी केन्द्रीय योजनाओं का फायदा मिलने की उम्मीद है, हालांकि किसानों के विरोध ने बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। अपने सहयोगी अकाली दल का साथ न मिलने के कारण इस बार बीजेपी के लिए पंजाब एक बहुत ही मुश्किल राज्य बन गया है और उसे गुरदासपुर और होशियारपुर जैसे अपने गढ़ों में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। स्थिति यह है कि इस बार बीजेपी का पंजाब में खाता खुल जाना ही बड़ी बात होगी। 

किसी भी पार्टी के लिए लोगों में उत्साह बहुत कम दिख रहा है और मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच होता दिख रहा है जबकि कुछ सीटों पर शिअद और कट्टरपंथी सिख भी चुनौती दे रहे हैं।

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