योगीराज में पुलिस से भी खतरनाक हैं पुलिस मित्र
बीते दिनों नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ उत्तर प्रदेश के कई शहरों में हुए प्रदर्शनों के दौरान भी पुलिस मित्रों की भूमिका पर सवाल उठे। कहीं प्रदर्शनकारियों में शामिल हो उपद्रव करने, तो कहीं ड्रेस को लेकर, तो कहीं इनकी पृष्ठभूमि को लेकर विवाद हुआ।
मेरठ में मवाना के 34 साल के गौरव पुलिस मित्र हैं। वह बीजेपी के सदस्य भी हैं। वह बताते हैं कि वह हमेशा से पुलिस में जाना चाहते थे और राष्ट्र सेवा करना चाहते थे, मगर ऐसा नहीं हो पाया। वह कुछ महीने पहले ही पुलिस मित्र बने हैं और अपने आसपास हो रहे गलत कामों पर नजर रखते हैं और पुलिस को सूचना दे देते हैं। वह कहते हैं, “अब पुलिस से अच्छी दोस्ती हो गई है और कई बार कम आदमी होने पर पुलिस हमारी मदद भी लेती है।” इसी तरह मुजफ्फरनगर के पुलिस मित्र देवेंद्र के मुताबिक, “वह अपनी चेकपोस्ट के पुलिसकर्मियों के साथ रहते हैं और मुहल्ले में अब उनकी धाक है।”
ब्रिटिश काल से ही पुलिस इन्फाॅर्मर रखती रही है। हाल तक भी लगभग सभी राज्यों में एसपी स्तर पर एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) रखने का प्रचलन था। अब भी रखे जाते हैं। इन्हें पुलिस आईकार्ड वगैरह भी देती रही है। पुलिस-प्रशासन के लोगों के बीच भी उनकी पैठ इस मामले में रहती रही है कि उनकी सूचनाओं पर पुलिस ज्यादा यकीन करती रही है। लेकिन यूपी में जब से योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभाला है, पुलिस मित्र रखने पर खासा जोर दिया जाने लगा है। लेकिन ये पुलिस मित्र पुलिस की कुख्यात छवि में इजाफा ही कर रहे हैं।
पुलिस मित्र बनाने के इस प्रयोग की शुरुआत मुजफ्फरनगर (अब कानपुर) के पुलिस कप्तान अनंतदेव तिवारी ने की। उन्होंने हजारों की संख्या में पुलिस मित्र बनाए। बाद में, उत्तर प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह ने इसे संस्थागत तौर पर बढ़ावा दिया। जून, 2018 में यूपी के आईजी (कानून व्यवस्था) प्रवीण कुमार ने बताया कि यह एक तरह की वालिंटियर सेवा है और इसके लिए किसी को कुछ भी भुगतान नहीं किया जाएगा, मगर न सभी को पहचान पत्र जारी किया गया बल्कि सभी जिला पुलिस कप्तानों को इस संबंध में पत्र भी भेजा गया।
असर यह हुआ कि अकेले आगरा में 72 घंटे में 15,000 पुलिस मित्र बना दिए गए। प्रवीण कुमार का दावा है कि पुलिस मित्रों की यह व्यवस्था पुलिस को विभिन्न त्योहारों पर कानून-व्यवस्था बनाने और पुलिस को फीडबैक देने में कारगर साबित हुई है। गोरखपुर एसएसपी डाॅ. सुनील गुप्ता भी कहते हैं कि पुलिस मित्र बनाने से पहले व्यक्ति का पूरा ब्योरा जुटाया जाता है। बिना वेरीफिकेशन के किसी को सदस्य नहीं बना रहे हैं।
पुलिस मित्र पर सरकार का कितना जोर है, इसे लखनऊ में पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) स्तर के एक अधिकारी की इस बात से समझा जा सकता हैः “अब जिला, जोन और प्रदेश स्तर की किसी भी बैठक में आमतौर पर सबसे पहले यही पूछा जाता है कि पुलिस मित्रों की संख्या अब क्या है?” इस आईजी का कहना है कि हर राजस्व ग्राम में कम-से-कम दस पुलिस मित्र बनाने का टारगेट है, वहीं नगर निगम, नगर पंचायत और नगरपालिकाओं के हर वार्ड से भी सात से दस सदस्य बनाए जाने हैं। इन लोगों को किसी प्रकार की सैलरी नहीं मिलती, लेकिन पुलिस के साथ उठना-बैठना ही इनके लिए सम्मान है। यह बात भी दिलचस्प है कि पुलिस जिन लोगों को पुलिस मित्र बनाती है, उनमें से कई लोगों के खिलाफ होली, चुनाव आदि के दौरान निरोधात्मक कार्रवाई भी करती है।
किन्हें मिलती है तवज्जो
बस्ती जिले के एक इंस्पेक्टर का कहना है कि पुलिस मित्र का टारगेट पूरा करना बेहद मुश्किल टास्क है। थाने से गांव की दूरी 25 से 30 किलोमीटर तक है। यदि 26 किलोमीटर दूरी पर सामान्य व्यक्ति को पुलिस मित्र बना दिया जाए तो वह जरूरत पड़ने पर थाने आएगा क्या? मजबूरी में ऐसे लोगों को सूची में शामिल करना पड़ रहा है जिनकी पृष्ठभूमि राजनीतिक है। टारगेट के चक्कर में विवादित लोग भी पुलिस के कथित मित्रों की सूची में शामिल हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त, जिलों के कप्तान प्रमुख त्योहारों और संवेदनशील मामलों को देखते हुए एसपीओ भी बनाते हैं। इन्हें तय समयसीमा के लिए परिचय पत्र भी दिया जाता है। वहीं नागरिक सुरक्षा कोर के सदस्य भी पुलिस के मददगार के रूप में सक्रिय हैं। यूपी के 17 जिलों में नागरिक सुरक्षा कोर के सदस्यों की सक्रियता है। इन जिलों में नागरिक सुरक्षा कोर के 300-300 सदस्य हैं।
ये सब सिर्फ इन्फाॅर्मर ही नहीं हैं। ये अब पुलिस की तरफ से हर किस्म का काम करने लगे हैं- ये सूचनाएं सीधे थाना स्तर पर मुहैया कराते हैं- ये पुलिस वालों के असली आंख-कान हैं। थाना पुलिस को किसी को बुलाना होता है तो इनके मार्फत ही बुला लेती है। इलाके में उनकी रोब-दाब बन जाती है, इसलिए यह बताते हुए कि उनके पास सूचना है, वे किसी को भी डराने-धमकाने भी लगे हैं। अब थाना पुलिस को हर मौके पर जाने की जरूरत नहीं होती, ये पुलिस मित्र मध्यस्थ ही नहीं, सीधे वसूली कर पुलिस वालों को उनका हिस्सा पहुंचा देते हैं। और असली बात। इन दिनों यूपी में योगीराज है इसलिए पुलिस मित्र बनने-बनाने में उन्हें तवज्जो मिलती है जो बीजेपी और संघ से जुड़े हैं। हालांकि मुजफ्फरनगर में मुसलमान भी पुलिस मित्र बने जिन्होंने कांवड़ यात्रा के दौरान व्यवस्था बनाने में पुलिस का सहयोग किया।
बीते दिनों संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और एनआरसी को लेकर यूपी के विभिन्न शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान इनकी भूमिका को लेकर कई सवाल उठे हैं। कहीं प्रदर्शनकारियों में शामिल होकर उपद्रव करने और कहीं इनकी ड्रेस को लेकर विवाद हुआ तो कहीं इनकी पृष्ठभूमि को लेकर। कहीं पुलिस का हेलमेट पहनने पर बात बिगड़ी तो कहीं हाथ में डंडा थामने पर।
कुछ घटनाएं सचमुच चिंता पैदा करने वाली हैं। पिछले 20 दिसंबर को गोरखपुर में नागरिक सुरक्षा कोर के दो सदस्य- सत्यप्रकाश सिंह और विकास जालान मदीना मस्जिद के पास पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के साथ हेलमेट लगाकर खड़े थे। विकास और सत्यप्रकाश ने हेलमेट तो पहना था, पर नागरिक सुरक्षा कोर का जैकेट नहीं पहना था। प्रदर्शनकारियों में से कुछ लोगों ने दोनों से जिलाधिकारी द्वारा जारी होने वाला पहचान पत्र मांगा। पहचान पत्र मांगने वालों की दलील थी कि ऐसे ही लोग विवाद करते हैं और तोहमत हम लोगों पर लगेगी। पहचान पत्र नहीं दिखाने को लेकर शुरू हुआ यह विवाद ही बाद में बवाल बन गया। इसी तरह, संग्रह अमीन अजय ओझा का प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाते वायरल वीडियो ने भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं। मुफ्तीपुर पार्षद जियाउल इस्लाम कहते भी हैं कि पुलिस अफसरों को बताना चाहिए कि आईपीसी की किस धारा में संग्रह अमीन लाठियां चला सकता है।
उसी दिन बिजनौर में नहटौर के मुख्य बाजार में संघ से जुड़े एक नेता प्रमोद त्यागी को देखकर भीड़ इंस्पेक्टर राजेश सोलंकी से सवाल करने लगी। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, प्रमोद त्यागी पुलिस को निर्देश दे रहे थे। इसके बाद भीड़ के बीच से कुछ लोगों ने पथराव किया और फिर हालात बहुत बिगड़ गए। पुलिस ने यहां माना कि उसने गोली चलाई। यहां दो युवकों- सुलेमान और अनस की मौत हो गई। प्रमोद त्यागी वहां पुलिस मित्र के तौर पर मौजूद थे और वह शांति-व्यवस्था कायम करने में पुलिस की सहायता कर रहे थे।
लखनऊ के परिवर्तन चौक पर सामाजिक कार्यकर्ता सदफ जाफर की गिरफ्तारी के पीछे भी पुलिस मित्रों का ही हाथ था। यहां 19 दिसंबर को प्रदर्शन के दौरान सदफ मौजूद थीं और वहां उन्होंने अनजान लोगों को देखकर हैरत जाहिर की। सदफ जाफर ने अपनी वीडियो लाइव में दावा किया था कि ये वैसे लोग नहीं हैं जो प्रदर्शन में शामिल थे और पुलिस ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की। ये लोग पथराव करने लगे और हिंसा फैलाने लगे। सदफ जाफर ने बाद में शक भी जताया कि ये रहस्यमयी लोग प्लॉट किए गए थे। सदफ को गिरफ्तार कर लिया गया और हवालात में शारीरिक यातना के बाद जेल भेज दिया गया। करीब 15 दिनों बाद बहुत मुश्किल से उन्हें जमानत मिल पाई।
मुजफ्फरनगर के कांग्रेस नेता सलमान सईद के मुताबिक, मुजफ्फरनगर में पुलिस दबिश और लाठीचार्ज के दौरान ऐसे बहुत से लोग देखे गए जो पुलिस के नहीं थे। कुछ लोग उन्हें बाहरी पुलिस कह रहे हैं, मगर वे जींस-पैंट पहने हुए थे। पुलिस इन्हें अपना मित्र बता रही है। इन्हीं लोगों ने सबसे ज्यादा बर्बरता की है। इसकी निश्चित तौर पर जांच होनी चाहिए।
लेकिन सहारनपुर के डीआईजी उपेंद्र अग्रवाल के अनुसार, पुलिस मित्रों के हिंसा में शामिल होने की बात सही नहीं है। अगर इस तरह की कोई शिकायत है तो उन्हें शिकायत पत्र दिया जाए और वह उसकी जांच करवाएंगे। कानपुर पुलिस कप्तान अनंतदेव तिवारी भी कहते हैं कि पुलिस मित्र विभिन्न त्योहारों, मेलों और बड़े आयोजनों में सहायता के लिए बनाए गए हैं। किसी भी तरह की हिंसा में उनकी कोई भूमिका नहीं है। फिर भी, अगर ऐसा पाया जाता है तो वह कार्रवाई करेंगे।
लेकिन धुएं के पीछे आग तो है
बीते दिनों हुए प्रदर्शन में तमाम ऐसे लोगों को पुलिस ने पाबंद कर दिया जिनका प्रदर्शन या हिंसा से कोई वास्ता नहीं था। पुलिस ने कमोबेश प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों में पत्थरबाजी या उग्र प्रदर्शन करने वालों के पोस्टर भी जारी किए। चेहरों के भ्रम में कई निर्दोष लोगों को जेल भेज दिया गया। बाद में, पुलिस को कई लोगों को यह कहकर छोड़ना भी पड़ा कि वे हिंसा या उपद्रव में शामिल नहीं थे। इस तरह की गलतफहमी की वजह भी थी। इस तरफ इशारा करते हुए मऊ में दुकान चलाने वाले संजय कुमार बताते हैं कि शिकायतों की आड़ में लोग दुश्मनी भी साध रहे हैं। पुलिस को सिर्फ कार्रवाई की संख्या बढ़ाने से मतलब है। गोरखपुर नगर निगम में पार्षद उजैर अहमद बताते हैं कि पुलिस की छवि के चलते सभ्य लोग उसके मित्रों में भी नहीं शामिल होना चाहते हैं। कई अवसरों पर कम्युनिटी पुलिसिंग के सदस्य व्यक्तिगत खुन्नस निकालते नजर आते हैं।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू तो इसे योजनाबद्ध तरीके से स्थापित ऐसी व्यवस्था तक बताते हैं जो हिंदुत्ववादी संगठनों को प्रश्रय देती है। कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे दीपक कुमार भी कहते हैं कि बड़ी संख्या में हिंदूवादी संगठनों से जुड़े युवा अब पुलिस मित्र बन गए हैं और उनके आचार, विचार, व्यवहार में परिवर्तन आ गया है। उनके वाहनों पर पुलिस लिखा होता है और वे मनमानी करते हैं। इनमें से अधिकतर लोग एक खास राजनीतिक विचारधारा से जुड़े हैं। इसलिए, पूर्व डीजीपी एएल बनर्जी की यह बात बिल्कुल सही है कि पुलिस मित्र या एसपीओ रखना स्थानीय एसएचओ या एसएसपी की मर्जी पर निर्भर होता है और न्यायिक दृष्टि से उनकी कोई अहमियत नहीं होती ।
(आस मोहम्मद और पूर्णिमा श्रीवास्तव के इनपुट के साथ)
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