पाठ्यपुस्तकों से हमारा नाम हटाओ, वर्ना हम अदालत जाएंगे : NCERT को योगेंद्र यादव और सुहास पालशिकर का पत्र

योगेंद्र यादव और सुहास पालशिकर ने एनसीईआरटी के निदेशक को सोमवार को लिखे अपने संयुक्त पत्र में कहा कि पाठ्यपुस्तकों में व्यापक बदलाव और बिना परामर्श के संशोधन अनैतिक और अस्वीकार्य हैं।

सुहास पालशिकर और योगेंद्र यादव
सुहास पालशिकर और योगेंद्र यादव
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ए जे प्रबल

अगर पाठ्य पुस्तकों में दंगो पर दिए गए अध्याय से नागरिक हिंसक बन सकते हैं, तो क्या पाठ्य पुस्तकों से युद्ध और जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए न्यूक्लियर अटैक को भी नहीं हटा देना चाहिए? क्या एनसीईआरटी के निदेशक राजनीतिक हिंसा की प्रशंसा करने और उसकी निंदा करने के बीच के अंतर को समझते हैं और क्या उन्हें इससे कोई सबक मिलता है? ये कुछ उन सवालों में से हैं जो एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश प्रसाद सकलानी से पूछे गए हैं, जिन्होंने उन आरोपों को खारिज कर दिया है कि पाठ्य पुस्तकों से ऐसे विषयों और अध्यायों को हटा दिया गया है जिनसे संघ परिवार और केंद्र सरकार असहज होती है, इसके बदले ऐसे अध्यायों को शामिल किया गया है जिनसे उनकी खामियां और और कमियों को छिपाया जा सकता है।

दरअसल यह विवाद नए सिरे से उस वक्य उठ खड़ा हुआ जब अखबारी रिपोर्टों में बताया गया कि सकलानी ने कहा है कि दंगों के बारे में छात्रों को पढ़ाने, खासतौर से 2002 के गुजरात दंगों के बारे में पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है। दरअसल कक्षा 11 और 12 की राजनीतिक शास्त्र की संशोधित पाठ्यपुस्तक में वोट बैंक की राजनीति और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की बात की गई है। ये वे शब्द हैं जो संघ परिवार से उधार लिए गए हैं।

पाठ्यपुस्तकों में से मुगल बादशाहों की उपलब्धियों, सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा और अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर बीजेपी के खेद व्यक्त करने वाली तालिका को भी हटा दिया गया है। दरअसल, पाठ्यपुस्तक में मस्जिद को ‘तीन गुंबद वाला ढांचा’ बताया गया है और राम मंदिर के निर्माण की अनुमति देने वाले अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भरपूर संदर्भ दिया गया है।

इस मामले में राजनीति शास्त्री सुहास पालशिकर ने कटाक्ष किया है। उन्होंने कहा है, “राजनीतिक इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस्तेमाल करना एक महान शैक्षणिक विचार है, लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह नहीं कहा गया था कि बाबरी मस्जिद पर हमला कर उसे ढहा देना एक आपराधिक कृत्य था?”

सुहास पालशिकर और योगेंद्र यादव दोनों ही एनसीआईआरटी की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य थे जब 2005-06 में पहली बार इन पाठ्यपुस्तकों को अंतिम रूप दिया गया था। उन्होंने सोमवार को एनसीआईआरटी को लिखा है कि उनका नाम पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया जाए, वरना वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे। इन दोनों ने पिछले साल भी एनसीआईआरटी से अपना नाम हटाने का आग्रह करते हुए लिखा था, लेकिन उस समय एनसीआईआरटी ने कॉपीराइट का हवाला देते हुए तर्क दिया था कि पाठ्यपुस्तकें सामूहिक प्रयासों से तैयार की जाती हैं और ऐसे में कुछ लोगों के निजी विचार मायने नहीं रखते हैं।


पालशिकर ने कहा कि,”क्या यह उचित नहीं होगा कि एनसीआईआरटी उन पाठ्यपुस्तकों को हटा ही दे जिनसे वह सहमत नहीं है।” उन्होंने संकेत दिया कि एनसीईआरटी के नए सदस्य जोकि अनजान लोग हैं, उनका धर्मनिरपेक्षता पर एकदम अलग नजरिया है, ऐसे में ईमानदार तरीका तो यह होगा कि वे पुरानी पाठ्यपुस्तकें हटा दें और नई लिखवा लें और उनमें नए सलाहकारों और लेखकों के नाम दे दें।

उन्होंने आगे कहा कि, “आखिर पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित करने वाली देश की अग्रणी संस्था योगेंद्र यादव और सुहास पालशिकर और उन जैसे अन्य लेखकों की आड़ में क्यों छिप रही है। लगता है एनसीईआरटी को उन लेखकों पर भरोसा नहहीं है जिन्हें उसने पाठ्यपुस्तकों के संशोधित संस्करण तैयार करने के लिए अपने साथ लिया है।”

पालशिकर ने कहा है कि बाबरी मस्जिद गिराने में जिस हिंसा का सहारा लिया गया था वह सिर्फ हिंसा मात्र नहीं थी। वह एक ऐतिहासिक विवाद को हथियार में बदलने और बहुसंख्यकवादी राजनीति को आगे बढ़ाने का कदम था। उन्होंने कहा है कि इसी तरह गोधरा और गोधरा के बाद गुजरात में हुई हिंसा भी बहुसंख्यक राजनीति के खतरनाक रूप का हिस्सा थी। और जब देश में राजनीति के बारे में बात हो तो इन सबका जिक्र करना आवश्यक है। योगेंद्र यादव ने एक्स पर पोस्ट में लिखा है कि, “बहरहाल, यह अटपटी बात है कि एनसीईआरटी अभी भी उन सलाहकारों और लेखकों के नाम का इस्तेमाल कर रहा है जिनके लेखन और रुख से वह असहमत है।”

सकलानी को भेजे पत्र में यादव और पालशिकर दोनों ने कहा है कि वे इस बात को जानकर अचंभित और हतप्रभ हैं कि एक साल से अधिक समय पहले वे सार्वजनिक तौर पर पाठ्यपुस्तकों के वर्तमान रूप से खुद को अलग कर चुके हैं और अपना नाम हटाने का आग्रह कर चुके हैं, फिर भी परिषद ने पाठ्यपुस्तकों के संशोधित संस्करणों में उनके नामों का उल्लेख मुख्य सलाहकार के तौर पर किया है। पत्र में कहा गया है कि, “पहले तो कुछ चयनित हिस्सों को पाठ्यपुस्तकों से हटाया जाता था, लेकिन अब तो एनसीआईआरटी कुछ नए तथ्य शामिल कर रहा है और पुस्तकों को नए सिरे से इस तरह लिखवाया जा रहा है कि वे मूल पाठ्य से एकदम अलग हैं। ...एनसीईआरटी को बिना हमसे सलाह लिए और हमारा नाम इस्तेमाल करने से पहले इन पुस्तकों को प्रकाशित करने का कोई नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं है। इस विषय में बहस हो सकती है कि किसी लेखन में किसका नाम उद्धत किया जाए। लेकिन यह बेहद अटपटी बात है कि लेखकों को ऐसे लेखन से जोड़ा जा रहा है जिनसे अब किसी भी तरह खुद को जुड़ा हुआ नहीं मानते हैं।”


पत्र में आगे कहा गया है कि, “हम नहीं चाहते कि एनसीईआरटी हमारे नाम की आड़ में छात्रों और विद्यार्थियों को राजनीति शास्त्र की ऐसी पुस्तकें मुहैया कराए जिसकी मंशा हमारी नजर में राजनीतिक रूप से निष्पक्ष नहीं है, शैक्षणिक तौर पर तर्कहीन है और तथ्यों से परे है....इन पाठ्यपुस्तकों के जो नए संस्करण हमारे नाम के साथ प्रकाशित किए गए हैं, उन्हें तुरंत वापस लिया जाए....अगर एनसीईआरटी ऐसा नहीं करता है तो हम अदालती कदम उठाएंगे।”

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