चाक-चौबंद हो रहा विपक्ष: बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने के लिए मजबूत रणनीतिक गठबंधन की जरूरत
हम यह बात भूल जाते हैं कि वर्तमान लोकसभा में भारी-भरकम बहुमत बीजेपी के राष्ट्रीय वोट बेस का सही पैमाना नहीं है। बीजेपी बराबर अपनी लोकप्रियता को लेकर दंभ का प्रदर्शन करती रहती है लेकिन उसे यह तथ्य पता है।
अभी जो व्यवस्था है, उसमें किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे अधिक वोट पाने वाले प्रत्याशी को विजयी घोषित किया जाता है। इस हिसाब से पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 303 सीटें हासिल हुईं जबकि उसे 37.7 प्रतिशत मत ही मिले थे। अगर इसकी जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली होती तो उसकी सीटों की संख्या 206 होती।
अभी की व्यवस्था में 38 प्रतिशत से भी कम वोट मिलने के बावजूद उसे 55 प्रतिशत सीटें मिल गईं। कांग्रेस को इन चुनावों में 19.7 प्रतिशत वोट मिले और यह बात उसकी जबरदस्त हार की तरह लगती है। अभी की व्यवस्था में उसे 52 सीटें मिली हैं जबकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था होती तो लोकसभा में उसके 106 सदस्य होते। लगभग 20 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद उस् 10 प्रतिशत से भी कम सीटें मिलीं।
यह बात कोई चुनाव व्यवस्था को लेकर हीलाहवाली करने वाली नहीं है- यह वही है जो सामने है- बल्कि कि यह वैकल्पिक सच्चाई की ओर ध्यान दिलाने वाली बात है। दरअसल, हम यह बात भूल जाते हैं कि वर्तमान लोकसभा में भारी-भरकम बहुमत बीजेपी के राष्ट्रीय वोट बेस का सही पैमाना नहीं है। बीजेपी बराबर अपनी लोकप्रियता को लेकर दंभ का प्रदर्शन करती रहती है लेकिन उसे यह तथ्य पता है। वह यह भी जानती है कि उसके कई शत्रु हैं- और उसके सहयोगियों में अब कई दोस्त नहीं हैं। शिव सेना और जनता दल (यूनाइटेड) के साथ उसने यूज एंड थ्रो का जो रवैया अपनाया, वह अब खुली किताब की तरह है।
बीजेपी को लेकर जिस किस्म की नकारात्मकता है, वह विपक्षियों के बीच सबसे मजबूत साझा विचार है। यह सरेस या गोंद की तरह है जो इन्हें एक-दूसरे से चिपका रहा है। वैसे, यह अभी साफ नहीं है कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों स पहले यह बात इन दलों के बीच रणनीतिक गठबंधन बना पाएगी या नहीं, लेकिन इतना तो साफ है कि इस स्थिति की वजह से विपक्ष के कैंप में आशा की किरण जग गई है जबकि इससे बीजेपी में गहरी बचैनी फैलने लगी है।
बीजेपी के नेता 2024 में अपनी विजय निश्चित मान रहे थे लेकिन अब उन्हें भी यह सब डांवाडोल लग रहा है। बिहार में बीजेपी जद (यू) को किनारे लगाने की जुगत में थी लेकिन नीतीश कुमार ने उससे पहले ही बीजेपी के मंसूबे ध्वस्त कर दिए और तेजस्वी यादव की पार्टी- राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस वाम दलों के साथ मिलकर सरकार बना ली।
पहले चुनाव विश्लेषक के तौर पर सुपरिचित रहे राजनीतिक-सामाजिक मामलों के लेखक और सोशल एक्टिविस्ट योगेंद्र यादव ने बिहार के घटनाक्रम के तुरंत बाद द प्रिंट में लिखा कि 2024 बीजेपी के लिए अब बिल्कुल आसान जीत वाला नहीं रहा है। यादव का तर्क है कि अभी जिस तरह का उसका प्रभाव है, उसमें भी 2024 में 243 से अधिक सीटों पर जीतना उसके लिए मुश्किल है। बिहार और महाराष्ट्र बीजेपी के लिए अब सुरक्षित नहीं हैं और कांग्रेस के वापस अपनी पुरानी स्थिति में लौटने के जिस किस्म के चिह्न दिख रहे हैं, 2024 के लिए संभावनाएं फिर काफी खुली हुई हैं।
पटना में नीतीश कुमार ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि अगर विपक्ष एकसाथ आ जाता है, तो बीजेपी 50 सीटों में सिकुड़ जाएगी। निश्चचित तौर पर यह अतिशयोक्ति है लेकिन अगर विपक्ष रणनीति निकाल लेता है, कम-से-कम यह हालत बनती है कि अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में वह बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा होने से रोक लेता है, तो इस भगवा दल को वास्तविक लड़ाई से जूझना होगा।
बीजेपी इस बात का गुणा-भाग नहीं कर रही है कि उसने 2019 में जितनी सीटें जीती थीं, उन सब पर फिर जीत हासिल कर लेगी। उसे 2019 में जिन 144 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था, उसने अपना ध्यान उन पर लगाना शुरू किया है। उसकी नजर खास तौर से आंध्र प्रदे श, तेलंगाना और ओडिशा पर है। जिन सीटों पर बीजेपी को अपनी निर्णायक विजय को लेकर संदेह है, वहां वह बीजेपी-विरोधी वोटों को विभाजित करने का हर किस्म से प्रयास करेगी- इसके लिए वह मुकाबले को त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय करने का जुगत भिड़ाएगी; इसके लिए वह छोटी पार्टियों को लुभाएगी; इन पार्टयों को वह अपने प्रत्याशी उतारने को प्रोत्साहित करेगी; यह भी हो सकता है कि वह निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़ा करवाए।
मुख्य धारा की मीडिया का जिस किस्म से उसने गला दबा रखा है, वह आपसी एकता तथा मजबूत निर्णायक सरकार देने को लेकर विपक्ष की क्षमता पर संदेह का विष बोती रहेगी। जैसा कि पहले भी हो चुका है, नैरेटिव फिर वही होगा कि बीजेपी तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर हर कोई एक हो गया है। मीडिया के जरिए विपक्षी नेताओं से यह एक सवाल बार-बार पूछा जाने लगेगा कि वह प्रधानमंत्री पद के अपने प्रत्याशी का नाम तो बताए।
यह बात याद रखने की है कि 1977, 1991, 1996 या 2004 में विपक्ष का कोई नेता प्रधानमंत्री पद वाला चेहरा नहीं था। 1998, 1999 और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा 2014 में मोदी से पहले बीजेपी भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किसी नेता को प्रोजेक्ट नहीं करती थी। लेकिन उस बात को कोई याद नहीं करेगा, क्योंकि यह नैरेटिव बीजेपी के उद्देश्य को पूरा नहीं करता।
इस तरह के सवाल को किनारे कर देने का गुर विपक्ष को अपने तईं सीखना होगा और उसे इसकी जगह चतुराई भरी समझ बनानी होगी- खास तौर से साझा चुनाव घोषणा पत्र, शासन करने वाले एजेंडे और न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करने पर उसे ध्यान देना होगा।
राजनीतिक टिप्पणीकार अरुण सिन्हा कहते हैं कि कुछ विपक्षी दलों की राज्य स्तरों पर प्रतिद्वंद्विता है और ‘बीजेपी के खिलाफ आमने-सामने का मुकाबला करने की स्थिति तैयार करना आसान नहीं होगा, लेकिन यह स्थिति पहले भी रही है।’ फिर, कई क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी भी हैं जिनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं हैं। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के के चंद्रशेखर राव कोई दूसरा ‘तीसरा मोर्चा’ बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं। वैसे, नीतीश ने उन्हें शिष्ता के साथ इस तरह की आकांक्षा के विपरीत समझाया है लेकिन यह कहना मुश्किल है कि केसीआर को संयुक्त विपक्ष के साथ मिलकर अपना भाग्य आजमाने के लिए प्रेरित कर ही लिया जाएगा। नीतीश ने कहा है कि कोई तीसरा मोर्चा नहीं होगा, सिर्फ मुख्य मोर्चा होगा। केसीआर और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी से भी उन्होंने यह साफ कर दिया है कि विपक्षी मोर्चा में कांग्रेस की मुख्य भूमिका होगी।
वैसे, विपक्षी दलों से आम आदमी पार्टी भी अब तक छिटकी हुई है। राष्ट्रीय कद हासिल करने का उसका सपना जोर मारता रहा है। लोकिन ये क्षेत्रीय दल बीजेपी और सबको हड़प लेने के उसके तौर-तरीकों को लेकर चितिंत भी हैं।
पिछले आठ साल के दौरान राज्यों की कीमत पर सत्ता के खतरनाक केन्द्रीयकरण के वे शिकार रहे हैं। अपने संघीय अधिकारों के तेजी से हो रहे क्षरण के वे गवाह रहे हैं; राज्य और समवर्ती सूचियों के मामलों में केन्द्रीय कानूनों का दायरा... शिकायतों की सूची लंबी है और बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के कारण दमदार हैं लेकिन इंतजार कर देखना होगा कि इन क्षत्रपों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उनके सहभागी भाग्य के भाव पर विजय पाती हैं या नहीं।
बिहार में नीतीश ने बीजेपी को किनारे किया, उससे बमुश्किल दस दिन पहले बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने पटना में ही दावा किया था कि क्षेत्रीय दलों के दिन अब गिने-चुने हैं। वह संभवत: यह जता रहे थे कि बीजेपी को अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की जरूरत नहीं होगी।
एक वक्त इस एनडीए में 18 पार्टियां थीं। यहां फिर याद दिलाने की जरूरत है कि महाराष्ट्र में शिवसेना और बिहार में जेडीयू के साथ बीजेपी ने क्या व्यवहार किया। बिहार में ही लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) और उसके नेता चिराग पासवान के साथ बीजेपी ने जिस किस्म से आंख-मिचौली खेली और अब भी खेल रही है, उस के सब गवाह हैं।
फिर भी, कई बातें हैं जिनका बीजेपी फायदा उठाने का हरसंभव प्रयास करेगी। आठ साल सत्ता में रहते हुए उसने चुनावी राजनीति के खेल का तौर-तरीका एक किस्म से नए सिरे से तैयार कर दिया है। उसने यह स्थिति पैदा कर दी है कि सभी को समान किस्म के अवसर देने के नियम का लाभ विपक्ष को न मिले। चुनावी बॉन्ड उनमें से एक तरीका है। निर्वाचन आयोग को वह अपने खेल में सहायक की तरह इस्तेमाल करने लगी है।
उसके पास कई और भी पत्ते हैं।
अयोध्या में राम मदिंर
अयोध्या में राम मंदिंर में रामलला की प्रतिमा की स्थापना अगले साल ही की जानी थी। इस कार्यक्रम को अब 2024 में चुनावों से ऐन पहले करने की घोषणा कर दी गई है। बीजेपी इस बहाने धार्मिक उन्माद पैदा करने का हरसंभव प्रयास करेगी। और इस तरह वह जरूरी सामान की कीमतों में बढ़ोतरी, नौकरियों में लगातार हो रही कमी, सरकार के आर्थिक और राजनीतिक कुप्रबंधन, सामाजिक सुरक्षा में कमी और मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन-जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा को बेमानी कर देगी।
मोदी का आखिरी चुनाव
2024 में प्रधानमंत्री मोदी 73 साल के हो जाएंगे। ऐसे में, जब बीजेपी मतदाताओं को उन्हें समर्थन देने तथा उन्हें अपने अपूर्ण मिशन को पूरा करने देने लिए एक अन्य मौका देने की अपील करेगी, तो विपक्ष उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया जताएगा? मोदी के अंतिम चुनाव होने के भावनात्मक कार्ड का जवाब विपक्ष को तलाशना होगा।
राष्ट्रवाद
बीजेपी के चुनावी तरकश में एक हथियार राष्ट्रवाद का भी है जिसका वह मनमाफिक इस्तेमाल करने लगती है। 2019 लोकसभा चुनावों से पहले पुलवामा आतंकी हमले और इसके जवाब में पाकिस्तान के बालाकोट में हुए हवाई हमले को याद करें।
लाभार्थी कार्ड
अरुण सिन्हा का मानना है कि इस मुद्दे पर बीजेपी की सफलता बेहतर कल्याणकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने से ज्यादा राजनीतिक लाभ उठाने की है। वह कहते हैं कि ‘बीजेपी-आरएसएस कार्यकर्ता मोदी की दरियादिली को लेकर लाभार्थियों के मन में बात इस किस्म से भर देते हैं कि वह वोट में बदल जाए।’ विपक्ष इस भ्रम को जब तक दूर नहीं करेगा और लोगों को यकीन नहीं दिलाएगा कि ये स्कीम सार्वजनिक धन के बूते चलाए जाए रहे हैं, किसी पार्टी या निजी फंड से नहीं और कोई भी सरकार हो, इस किस्म की योजनाएं चलती ही रहेंगी, तब तक बीजेपी की इस हवा को दूर करना मुश्किल है।
विपक्षी नेताओं और उनके समर्थकों-सहयोगियों-रिश्तेदारों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापे जिस तरह डाले जा रहे हैं, उनसे पार पाना भी जरूरी है। इन छापों की वजह से ये लोग जिस तरह परेशान होते हैं, उसे छोड़ भी दें, तो इनके जरिये लोगों में इन नेताओं के खिलाफ भावना पैदा होती है। इस नैरेटिव को टीवी चैनल और हवा ही देते हैं। लेकिन मीडिया इसमें भी डंडेमारी करता है। वह कर्नाटक में सरकारी ठेकों में कमीशन की मांग, उत्तराखंड में सरकारी नौकरियों में धांधली या मध्य प्रदेश में मिड डे मील घोटाले को लेकर यथासंभव कम ही बोलता-दिखाता-छापता है। इससे बीजेपी-शासित राज्यों में शासन की वास्तविक स्थिति जनता के सामने नहीं आ पाती।
भारत जोड़ो यात्रा इन्हीं स्थितियों को सामने ला नेकी दृष्टि से उचित कदम है। इन पंक्तियों को लिखे जाने तक इस यात्रा को एक ही हफ्ता हुआ है, पर इसका प्रभाव दिख रहा है। इसने दिखाया है कि जनता इससे किस तरह जुड़ रही है, बीजेपी सरकार और इसकी दमनकारी राजनीति के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर इसमें दिख रहे हैं और ये सब आशावादी चिह्न हैं। लेकिन यह यात्रा अभी दक्षिण भारत में ही है। दक्षिणी राज्यों में बीजेपी को अब तक संदेह की नजर से ही देखा जाता रहा है। ये राज्य कांग्रेस को समर्थन देते रहे हैं। लेकिन यह बात भी ध्यान रखने की है कि आबादी के आधार पर चुनाव क्षेत्रों का योजनाबद्ध परिसीमन किया जा रहा है। इसमें दक्षिण की कीमत पर उत्तर प्रदेश और बिहार में सीटों की संख्या बढ़ेगी। यह ऐसी स्थितियां पैदा कर सकती है जिसके बारे में अभी सोचा भी नहीं गया है।
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