यूपी में बीजेपी सरकार ही दे रही 'इस्लामोफोबिक' विज्ञापन में सांप्रदायिकता का संदेश, तो क्यों न हो आपत्ति!
यह किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं, सरकारी विज्ञापन है इसलिए इस पर विवाद गंभीर किस्म का हो रहा है। एएससीआई ने कहा है कि हालांकि तकनीकी तौर पर यह विज्ञापन उसके कार्यक्षेत्र में नहीं है, फिर भी वह सरकार के ऐसे 'इस्लामोफोबिक' विज्ञापनों की जांच करेगी।
हाल ही में कई मीडिया हाउस ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिए गए पैसे से ऐसे विज्ञापन छापे हैं जिन पर ‘मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ पूर्वाग्रह ग्रस्त होने’ (इस्लामोफोबिक) के आरोप लगाए गए हैं। ये दरअसल, एडवर्टोरियल हैं जिन्हें सामान्य भाषा में प्रायोजित परिशिष्ट कहा जाता है। ऐसे ही एक एडवर्टोरियल में यह संदेश दिया गया है कि जबसे योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनी है, राज्य में किसी दंगे की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई है। इस दावे की सच्चाई अपनी जगह, इस विज्ञापन में एक ऐसे व्यक्ति को दिखाया गया है जो दंगाई के तौर पर दाढ़ी रखे हुए है और उसने आंखों में सुरमा लगाया गया है। विज्ञापन का संदेश यह है कि इस किस्म के दंगाई को सबक मिल गया है।
यह किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं, सरकारी विज्ञापन है इसलिए इस पर विवाद गंभीर किस्म का हो रहा है। विज्ञापनों पर निगाह रखने वाली स्वनियमन (सेल्फरेगुलेटरी) संस्था एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) ने कहा है कि हालांकि तकनीकी तौर पर यह विज्ञापन उसके कार्यक्षेत्र में नहीं है, फिर भी वह सरकार के पहले पेज पर छपे इस्लामोफोबिक विज्ञापनों की जांच करेगी। एएससीआई की महासचिव मनीषा कपूर ने कहा कि ‘पिछले वर्षों के दौरान विभिन्न ब्रांड अपने उत्पादों के लिए एडवर्टोरियल का उपयोग करती रही हैं और सरकारी विज्ञापन एएससीआई के कार्यक्षेत्र में नहीं रहे हैं, इसीलिए हम उनकी जांच नहीं करते हैं। एएससीआई उद्योग क्षेत्र के विज्ञापनों पर ही नजर रखती है।’ कपूर का कहना है कि एएससीआई की शिकायत निवारण प्रणाली काफी अच्छी है जहां उपभोक्ताओं की शिकायतों का तो तुरंत समाधान किया ही जाता है, हम बहकाने वाले विज्ञापनों पर खुद भी कार्रवाई करते हैं।
मुंबई के एक वरिष्ठ विज्ञापन प्रोफेशनल ने इस बारे में बनाए गए नियमों को लेकर कहा कि किसी भी विज्ञापन के लिए उसका विज्ञापनदाता उत्तरदायी होता है। उन्होंने कहा कि ‘सभी विज्ञापन वैध, शालीन, ईमानदार और सच्चे होने चाहिए और इन्हें स्वस्थ प्रतियोगिता के सिद्धांतों का आदर करना चाहिए ताकि लोगों का विज्ञापन पर भरोसा कायम रह सके।’ पर उन्होंने यह भी जोड़ा कि सरकारें कई बार इस तरह के नियमों और सिद्धांतों का खुला उल्लंघन करती हैं लेकिन उन्हें चुनौती नहीं दी जाती। अब तक विज्ञापन समुदाय ने इसके खिलाफ खुलकर कभी कुछ नहीं किया है।
इस बार भी अब तक इस समुदाय की तरफ से तो कोई आपत्ति नहीं की गई है लेकिन कई लेखकों-बुद्धिजीवियों ने इसे लेकर गहरी आपत्ति जताई है। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और कई हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों के स्तंभकार अपूर्वानंद ने ट्वीट कर कहा कि ‘इस तरह का खुल्लम-खुल्ला इस्लामोफोबिक प्रोपेगैंडा देखकर उन्हें गहरा सदमा पहुंचा है। जानता हूं कि ये संपादक सेकुलर हैं लेकिन इसका औचित्य समझ में नहीं आ रहा है। छोटे स्तर पर ही सही, मैं इस अखबार से लेखक और इसके ग्राहक के तौर पर अलग होकर अपना प्रतिरोध दर्ज कराता हूं। मैंने इसके साथ अपने जुड़ने को काफी मूल्यवान माना था लेकिन मुझे दुख है कि सम्मान कुछ ज्यादा ही खतरे में है।’ चूंकि सरकार ने इस तरह का विज्ञापन बार-बार दिया है इसलिए अपूर्वानंद सवाल उठाते हैं कि ‘क्या हमारे कहे का कोई मतलब नहीं है? विज्ञापनदाता की तरह लेखक भी अखबारों को शक्ति देते हैं। क्या उन्होंने पुरजोर तरीके से अपनी बात नहीं रखी या क्या वे कुछ बोले ही नहीं? क्या उनके साथ यह अपमान नहीं है?’
मिड-डे में अपने कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार एजाज अशरफ ने भी लिखा कि भारतीय मीडिया विज्ञापन हासिल करने के लिए झूठ दोहराता रहेगा, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव खत्म होने से पहले शर्म को भी हजारों बार मरना पड़ेगा।
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