कोरोना के नाम पर 'चमकी' की अनदेखी, बिहार-यूपी में सामने आने लगे बच्चों की जान जाने के केस, फिर भी कोई तैयारी नहीं
यह दूसरा साल है जब कोरोना के चलते चमकी और इससे होने वाली मौतों की कोई चर्चा नहीं हो रही है। पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 12 मई तक बिहार के पूर्वी और पश्चिमी चंपारण जिलों में एक-एक तथा मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में दो बच्चों की मौत हो चुकी है
जब देश भर में कोरोना से लाखों लोग मर रहे हों, तो सरकार तो क्या, आपके जेहन से भी एईएस (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) और जेई (जापानी इंसेफेलाइटिस) बीमारियों की बात उतर गई हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। बिहार में इसे चमकी बुखार कहते हैं। बिहार, खास तौर से मुजफ्फरपुर के इलाके में इसका सबसे अधिक प्रकोप अप्रैल से जून तक देखा जाता है और मानसून के साथ इसका प्रभाव कम होता जाता है जबकि गोरखपुर और आसपास के जिलों में मानसून शुरू होने के साथ ही जुलाई से अक्टूबर तक इस बीमारी का प्रकोप रहता है। इससे हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत हो जाती है।
यह दूसरा साल है जब कोरोना के खौफ की वजह से इसकी दहशत और मरने वाले बच्चों की संख्या को लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है। पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 12 मई तक बिहार के पूर्वी और पश्चिमी चंपारण जिलों में एक-एक तथा मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में दो बच्चों की मौत हो चुकी है जबकि 24 बीमार हो चुके हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार, पिछले साल बिहार में 175 जबकि गोरखपुर में 100 बच्चों की मौत हुई थी। इसके शिकार मुख्यतः निम्न आय वर्ग, खास तौर से दलित परिवारों के बच्चे होते हैं।
किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि मुजफ्फरपुर और इससे सटे कुछ जिलों और गया में ही बच्चों में इस बुखार के केस क्यों आते है? इसी का जवाब ढूंढ़ने के लिए कई साल से नीतीश कुमार मुजफ्फरपुर में बच्चों के लिए बड़ा अस्पताल और रिसर्च सेंटर खोलने की बात कर रहे थे। पिछले साल अस्पताल शिशु गहन चिकित्सा इकाई (पीआईसीयू) के रूप में शुरू तो हो गया लेकिन यहां अनुसंधान केंद्र सिर्फ बोर्ड में ही टंगकर रह गया। रिसर्च के लिए कोई नियुक्ति ही नहीं हुई। पीआईसीयू में 100 बेड और बच्चों के लिए 63 वेन्टिलेटर दिए गए लेकिन डॉक्टर नहीं मिले। राज्य के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच और मिथिलांचल के सबसे बड़े हेल्थ सेंटर डीएमसीएच से हर साल यहां डॉक्टरों की तैनाती होती थी। इस बार यह भी नहीं हुआ। नतीजा है कि चमकी बुखार से ग्रस्त होकर आने वाले बच्चों के इलाज को या तो कोरोना के नाम पर टाला जा रहा है या किसी तरह भर्ती कर लिया जा रहा है।
इसी तरह मुजफ्फरपुर के मुरौल प्रखंड के पिलखी पंचायत में करोड़ों की लागत से बने राजकीय रामदुलारी मिट्ठूलाल चौधरी मेमोरियल मातृ-शिशु अस्पताल में भी डॉक्टर की नियुक्ति ही नहीं की गई। यह अस्पताल तब बन पाया था जब किसी ने अपने पूर्वजों के नाम पर अस्पताल खोलने के लिए जमीन दे दी थी। पिछले साल इसमें ओपीडी चालू दिखाने के लिए दूसरे अस्पताल के डॉक्टर को कुछ समय के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था। ग्रामीण सुरेंद्र पासवान, पंकज और अस्पताल के पास मिले राजेंद्र यादव ने कहा कि चुनावी साल में उद्घाटन से वाहवाही लूटी गई, फोटो सेशन हुआ और फिर कुछ दिन बाद प्रतिनियुक्त डॉक्टर वापस अपनी नियुक्ति स्थल लौट गए।
वैसे, ऐसा कई अस्पतालों के साथ हो रहा है। लालू यादव, शरद यादव, पप्पू यादव-जैसे चर्चित चेहरों के क्षेत्र मधेपुरा में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के नाम पर अस्पताल खोला गया, पर दिखावे के लिए ही। मार्च, 2020 में मान्यता को लेकर केंद्रीय टीम निरीक्षण के लिए आने वाली थी तो यहां फटाफट मशीनें खरीदकर भेज दी गईं लेकिन ये अब भी ऑपरेशनल नहीं हैं। इसी तरह नीतीश कुमार के गृह क्षेत्र नालंदा के पावापुरी में भगवान महावीर के नाम पर खुले वर्द्धमान इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (विम्स) में बच्चों के लिए आईसीयू बना तो दिया गया है, पर यह बंद ही है। यहां नियोनेटल और पीडिएट्रिक आईसीयू के लिए आईं मशीनें और बच्चों के वेन्टिलेटर स्टोर रूम में पड़े हैं। विम्स के शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. विनोद कुमार मिश्रा स्वीकार करते हैं कि यहां नियोनेटल आईसीयू के लिए स्टाफ और डॉक्टर नहीं हैं इसलिए यह कार्यरत नहीं है। वह कहते हैं कि इसे लेवल-3 का बनाना है और इसके लिए ट्रेन्ड लोगों की जरूरत सरकार की जानकारी में है।
काफी शोर है कि कोरोना की तीसरी लहर बच्चों के लिए खास तौर पर खतरनाक होगी। पर भागलपुर और गया-जैसे बड़े शहरों का हाल भी डराने वाला है। भागलपुर के जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल में बच्चों के चार वेन्टिलेटर और गया के अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 3 वेन्टिलेटर बताए तो जाते हैं लेकिन ये चालू हालत में हैं या नहीं- बताने वाला कोई नहीं।
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