बिहार: कृषि मंडियों को दोबारा शुरु करने की घोषणा से क्या बीजेपी को कोई संदेश दे रहे हैं नीतीश कुमार!
नीतीश कुमार ने इस बार स्वतंत्रता दिवस से ऐन पहले घोषणा की कि किसानों को उनकी उपज के लिए राज्य में ही बाजार उपलब्ध कराने की दृष्टि से कृषि बाजार को चरणबद्ध तरीके से पुनर्जीवित, नवीनीकृत और विकसित किया जाएगा। नीतीश के इस फैसले से बीजेपी चिंतित नजर आ रही है।
जातीय जनगणना की मांग को लेकर बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव समेत सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने संकेत तो दिया ही है कि बिहार एनडीए में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है, उनका एक और फैसला केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को चिढ़ाने वाला है।
2006 में बिहार ने कृषि मंडियां समाप्त कर दी थीं। तब भी नीतीश ही मुख्यमंत्री थे। इस वजह से छोटे किसान अपनी उपज औने-पौने भाव में बेचने को विवश थे जबकि अधिक उपजाने वाले किसान अपना अनाज पंजाब और हरियाणा की मंडियों में बेच देते थे। नए कृषि-उत्पाद कानूनों के विरोध में दिल्ली में नौ महीने से प्रदर्शन कर रहे किसान इन मंडियों को ही मजबूत करने और बड़े कॉरपोरेट समूहों को उपज खरीद-बिक्री से दूर रखने की मांग कर रहे हैं।
नीतीश कुमार ने इस बार स्वतंत्रता दिवस से ऐन पहले घोषणा की कि किसानों को उनकी उपज के लिए राज्य में ही बाजार उपलब्ध कराने की दृष्टि से कृषि बाजार को चरणबद्ध तरीके से पुनर्जीवित, नवीनीकृत और विकसित किया जाएगा। इस पर 2,700 करोड़ खर्च किए जाएंगे। बाजार समितियों में खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों और मछलियों के लिए अलग बाजार और कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।’
बाजार समितियां सरकार-नियंत्रित बाजार हैं जहां किसान बिचौलियों को अपनी उपज बेचते हैं। मंडियों से यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा रहती है कि किसानों का शोषण नहीं हो। हालांकि इससे बिचौलियों को भी जीवन-यापन का अवसर मिलता है लेकिन राज्य को भी यह सुनिश्चित करना होता है कि इन कृषि समितियों में उपज की कीमतें ठीक ढंग से मिलें। वैसे, कुछ बिचौलिये 2006 के बाद भी काम करते रहे लेकिन वे बिना सरकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर या निगरानी के ही अपना काम करते थे।
घोषणा पर अमल की रफ्तार पर तो सबकी निगाह रहेगी ही, फिलहाल तो यह केंद्र सरकार के लिए झटका और आंदोलनरत किसानों को मजबूती देने वाला है ही। यह बात दूसरी है कि दिल्ली की सीमाओं पर जमे आंदोलनकारियों में बिहार के किसानों की संख्या कम ही है। इसकी वजह यह भी है कि राज्य के अधिकांश बड़े भूस्वामी खुद खेती नहीं करते और उन्होंने खेती-बाड़ी का काम बटाई पर दिया हुआ है। वैसे भी, बिहार में कृषि मजदूरों की संख्या तो सर्वाधिक है ही, देश के श्रमिक बाजार में भी बिहार के लोगों की संख्या सबसे अधिक है।
जातीय जनगणना की मांग पर जोर देने के साथ इस तरह की घोषणा बताती है कि जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। वैसे, यह तनातनी अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों के समय से ही चल रही है। उस चुनाव में जद(यू) को 43 सीटें और भाजपा को 74 सीटें मिली थीं। उस वक्त भी नीतीश के निकट सहयोगियों ने सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाया था कि भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान को समर्थन देकर जद(यू) को नुकसान पहुंचाया है।
ठीक है कि चिराग से भाजपा ने इन दिनों दूरी बनाकर रखी है लेकिन मोदी ने स्वर्गीय रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को जिस तरह अपनी कैबिनेट में जगह दी, वह भी नीतीश को अच्छा नहीं लगा। यह आरोप भी आम है कि भाजपा जद(यू) में विभाजन की कोशिश में लगी है।
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