नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आलीशान इमारत, पर कच्ची बुनियाद पर कैसे खड़ा होगा भविष्य का भारत

भारत में दशकों से चल रहे पॉलिटेक्निक और आईटीआई का हश्र किसी से छिपा नहीं है। आजादी के बाद इनकी स्थापना की गई थी कि तकनीकी विकास को बढ़ावा मिलेगा। पर आज हाल सबको पता है। ऐसे में बुनियादी तैयारी के बिना नई शिक्षा नीति की हालत भी ऐसी ही हो सकती है।

फोटोः सोशल मीडिया
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DW

बड़े शहर से दूर स्थानीय ठेकेदार द्वारा बनाई गई बेढंगी इमारत में जगह-जगह से उड़खता पलस्तर और तमाम खिड़की-दरवाजे खोलने पर भी पीछे बैठे बच्चे अंधेरे में डूबे। वे फटी पुरानी चटाइयों पर बैठे हुए हैं। सीमेंट का ब्लैकबोर्ड है, जिस पर चॉक या तो चलती ही नहीं है या फिर चल पड़े तो मिटानी मुश्किल हो जाती है। ये दृश्य दूर दराज के किसी भी गांव के सरकारी स्कूल का है।

छात्रों की संख्या बहुत कम। बच्चों को देखकर ही अंदाजा होता है कि उनके पास और कोई विकल्प नहीं था, इसीलिए उन्हें यहां आना पड़ा। यहां तैनात सरकारी टीचर, किसी तरह अपना ट्रांसफर शहर की ओर कराने की जुगत में हर दम परेशान। स्कूल में न तो पीने का साफ पानी मिलना दूभर और टॉयलेट की कल्पना तो बेमानी ही है। आठ दस चार्ट तो टीचर खुद लगा सकते हैं, लेकिन वे तो यहां से पिंड कब छूटे इसी में जूझे हैं। अपने स्कूल से उन्हें मुहब्बत नहीं हो सकी।

अब चलते हैं, किसी नामी प्राइवेट स्कूल में। बाहर झूले दिख रहे हैं और भीतर बढ़िया हवादार और रोशन कमरे। ब्लैकबोर्ड की जगह मार्कर। बच्चों के लिए डेस्क में ही किताबें रखने की जगह भी है। कभी-कभी प्रोजेक्टर से उन्हें फिल्में दिखाई जाती हैंं। तनख्वाह के नाम पर भले ही प्राइवेट स्कूलों में टीचरों का शोषण हो, लेकिन उन पर जनगणना, मतगणना, मिड डे मील और ट्रांसफर का बोझ नहीं होता है।

भारत में शिक्षा नीति या निर्देशों पर अमल करवाने वाले अधिकारी इस विरोधाभासी सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत के हर राज्य में बीते 10 साल में हजारों की संख्या में सरकारी स्कूल बंद नहीं होते। नई शिक्षा नीति के कई बिंदु शानदार हैं और स्वागत योग्य हैं। लेकिन कमजोर बुनियाद पर आलीशान इमारत कैसे बनेगी, यह दुविधा है।

यकीन न आए तो देश के पॉलिटेक्निक और आईटीआई को देखिए। आजादी के बाद भारत में इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ-साथ इनकी भी स्थापना की गई। सोच थी कि तकनीकी विकास को बढ़ावा मिलेगा। कुछ दशकों तक ऐसा हुआ भी, लेकिन उसके बाद पॉलिटेक्निक जेई पैदा करने वाले संस्थानों में बदल गया और ज्यादातर जेई कमीशनखोरों में।

उनका काम सिर्फ दस्तखत करने तक सीमित रह गया। जूनियर इंजीनियर खुद निर्माण करते तो दक्षता हासिल होती, तकनीकी विकास होता। विदेशी कंपनियों की तरह भारत में भी कई मौलिक देसी समस्याएं हल करने वाली कंपनियां पैदा होतीं। लेकिन ऐसा हुआ क्या?

देश में आज भी जरूरत के मुताबिक पाठ्यक्रम शुरू नहीं किए जाते हैं। क्यों हर मंडल में फॉरेंसिंक साइंस की पढ़ाई नहीं होती? वॉटर मैनेजमेंट या अक्षय ऊर्जा की पढ़ाई के लिए विदेश ही क्यों जाना पड़ता है? एनर्जी सेविंग, डाटा साइंस, वर्चुअल सरफेसिंग, हैंडीक्राफ्ट, हैंडलूम, पशुपालन जैसे पाठ्यक्रम कहां हैं? ये ऐसे बुनियादी सवाल है जो किसी नीति के मोहताज नहीं, अपनी जरूरतों और दुनिया में हो रहे बदलावों को देखते हुए, इन्हें अपनाया जाना चाहिए। लेकिन नहीं, हमें तो बस नीतियां चाहिए।

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