महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी सरकार के 2 साल: अस्थिर करने की केंद्र की हर कोशिश को नाकाम करती रही उद्धव सरकार

महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन की महा विकास अघाड़ी सरकार ने दो साल पूरे कर लिए हैं। बीजेपी तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार को हिला नहीं पाई है और न ही केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल का फल उसे मिला है। इस सबसे गठबंधन और मजबूत हुआ है।

सोशल मीडिया
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सुजाता आनंदन

मुंबई आहे आमची, नहीं कोनाचा बापची!

(मुंबई हमारी है। किसी के बाप की नहीं।)

गुजरातियों को संबोधित यह आक्रामक दावा किया था संयुक्त महाराष्ट्र संगठन ने जो तब मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाए रखने के लिए आंदोलन कर रहा था। बॉम्बे राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने यह कहते हुए इस पर पलटवार किया था कि “बर्रा। दिला मुंबई तुमची। आता भांडी घासा आमची!” (ठीक है, आपको मुंबई दिया। अब आकर बर्तन धोओ हमारे)। उस समय बॉम्बे राज्य में कच्छ और सौराष्ट्र के कुछ हिस्से भी थे।

देसाई की प्रतिक्रिया का सीधा मतलब यही संदेश देना था कि मुंबई पर गुजरातियों का राज है और महाराष्ट् के स्थानीय निवासी केवल उनके बर्तन को साफ करने के काबिल हैं। तीखे बोलों वाले उस वाद-विवाद के बाद हुई मोर्चेबंदी में बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए और पुलिस ने गोलियां चला दीं जिसमें 106 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। इस घटना ने दशकों से मराठी- गुजराती संबंधों की दशा-दिशा बनाए रखी है।

देसाई ने मराठों को असमान या हीन बताने की जो कोशिश की, उस तरह की अलगाव पैदा करने वाली भावना पर पंडित जवाहरलाल नेहरू और वाई बी चव्हाण-जैसे बड़े नेताओं की राजनीति के तरीके ने अंकुश लगा रखा था। लेकिन छह दशक बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उसी कटुता और बैर-भाव को जिंदा कर दिया है। सभी देख-समझ रहे हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने संसद में भारी बहुमत से मिली ताकत का दुरुपयोग करते हुए केंद्र-राज्य रिश्तों को लेकर सभी संवैधानिक मानदंडों को ताक पर रख दिया है।

विपक्ष-शासित तमाम राज्यों को केंद्र सरकार से पक्षपातपूर्ण व्यवहार की शिकायत है लेकिन महाराष्ट्र के साथ तो यह जोड़ी सौतेली मां-जैसा बर्ताव कर रही है। यह सीधे-सीधे महाराष्ट्र के एक शहर के रूप में मुंबई के अस्तित्व और उसकी अस्मिता का सवाल है।

महाराष्ट्र में महा विकास आघाड़ी सरकार के सत्ता में आने से पहले ही बीजेपी नेता और तब के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पर मुंबई की संपत्ति को चुपचाप गुजरात को सौंपने का आरोप लगा था। फडणवीस विदर्भ के रहने वाले हैं और माना जाता रहा है कि वह किसी भी मामले में मुंबई की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं तथा उनके पास दिल्ली का सामना करने का जिगरा नहीं है।

अब स्थितियां अलग हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे मुंबई से ताल्लुक रखते हैं और मुंबईकर उनकी पार्टी की रीढ़ हैं। यह बात बिल्कुल साफ है कि वह शहर की मराठी पहचान को खत्म किए जाने के सख्त खिलाफ हैं। मुंबई में मराठी मानुष की आबादी लगभग 45 प्रतिशत है और उसके बाद सबसे बड़ा समूह उत्तर भारतीयों का है। संख्या के हिसाब से गुजरातियों की हिस्सेदारी बहुत कम है।

बातें बहुत-सी हैं। आइए, शुरू करते हैं नरेंद्र मोदी की बहुप्रतीक्षित बुलेट ट्रेन परियोजना से।

यह मूलतः मोदी का आइडिया नहीं है। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने सर्वे कराकर तब ही जान लिया था कि यह योजना व्यावहारिक नहीं है और इसीलिए उसे छोड़ दिया गया था। लेकिन मोदी को लगा कि यह तो विरोधियों समेत एक ‘खास औद्योगिक घराने’ के खिलाफ हथियार हो सकता है। इस घराने के प्रमुख ने 2002 में भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के सदस्य के रूप में उनके सामने यह कहने की हिम्मत की थी कि गुजरात में जिस तरह के दंगे हुए, उसे देखते हुए इतने बड़े निवेश के लिए वहां का माहौल सही नहीं। दूसरे व्यक्ति थे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे। वह पहले ही इस खेल को भांप गए थे और उन्होंने लोगों को आगाह भी किया था।


यूपीए ने इस परियोजना को छोड़ दिया था क्योंकि भीड़भाड़ वाले मुंबई में ट्रेन के रास्ते में बहुत सारी इमारतें थीं और बुलेट ट्रेन- जैसी सुपरफास्ट ट्रेन को पटरी से उतरने और दुर्घटनाओं से बचाने के लिए जरूरी था कि ट्रैक सीधी हो। लेकिन नरेंद्र मोदी ने बुलेट ट्रेन के रास्ते में आने वाली सभी इमारतों को ढहाने का फैसला किया। इनमें ज्यादातर महाराष्ट्र के मध्य और निम्न मध्यवर्गीय स्थानीय लोग रहते हैं। रेल मार्ग से दूर पॉश इलाकों में रहने वाले संपन्न गुजरातियों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। लेकिन इस तरह की आशंका जताई जा रही थी कि इस परियोजना से शहर में मराठी और गुजरातियों के बीच का जनसांख्यिकीय संतुलन हमेशा के लिए बदल जाता।

रेल मार्ग पर एक व्यावसायिक घराने की कुछ निजी भूमि भी थी जिसने इसे भविष्य की अपनी परियोजना के लिए रखा हुआ था। उन्होंने सरकार को आसपास की थोड़ी-सी जमीन खरीद लेने की पेशकश की लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मोदी को तो उस व्यावसायिक घराने और उसके प्रमुख से बदला लेना था! बिजनेस हाउस ने इसका विरोध किया और पाया कि देवेन्द्र फडणवीस सरकार उनकी कई परियोजनाओं को रोक रही है। वह बॉम्बे हाईकोर्ट गए। इसके तुरंत बाद महा विकास आघाड़ी सरकार आ गई। नए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने फैसला किया कि मोदी गुजरात में अपनी बुलेट ट्रेन चला सकते हैं लेकिन यह मुंबई की दहलीज को पार नहीं करेगी। लेकिन कारोबारी घराना मोदी और शाह के निशाने पर है।

मुंबई के कुछ वर्गों का मानना है कि बुलेट ट्रेन मुंबई को महाराष्ट्र के मूल स्थानीय लोगों से मुक्त करने और शहर को एक स्पष्ट गुजराती बढ़त देने की शैतानी योजना है।

मोरारजी देसाई द्विभाषी बॉम्बे राज्य के विभाजन की स्थिति में बॉम्बे को गुजरात की राजधानी के तौर पर चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इस शहर को गुजरातियों ने ही बनाया है। अंग्रेजों ने जब सूरत की जगह बॉम्बे को मुख्य वाणिज्यिक बंदरगाह बनाया तो गुजराती बंबई चले आए थे। उस समय तक बॉम्बे सिर्फ एक नौसैनिक कमान और मूल निवासियों, कोलियों के लिए मछली पकड़ने का केंद्र भर था। सूरत से व्यावसायिक बंदरगाह हटाना गुजरात के लिए एक बड़ा नुकसान था जिसने अपना कुछ पारंपरिक महत्व खो दिया।

नरेंद्र मोदी उस पहिये को वापस घुमाना चाहते हैं जिसके कारण अंग्रेजों के समय में बॉम्बे/मुंबई को इतनी प्रमुखता मिली और सूरत को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। इसी वजह से 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने सबसे पहले बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट को पोरबंदर में स्थानांतरित करने का प्रयास किया जिसका शिव सेना और सभी वाणिज्यिक हितधारकों ने विरोध किया। मोदी ने भारतीय रिजर्व बैंक को भी अहमदाबाद स्थानांतरित करने की कोशिश की लेकिन वह फिर विफल रहे। हीरा बाजार को मुंबई से सूरत स्थानांतरित करने के उनके प्रयास भी बेकार गए। यह व्यापारियों के साथ-साथ अंगड़ियों के लिए पारिवारिक परंपरा है। एक जगह से दूसरी जगह हीरा लाने-ले जाने के काम को बखूबी करने वाले ये अंगड़िये ज्यादातर मुसलमान हैं। 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान उनमें से कई अपने पुश्तैनी गांवों में भाग गए थे जिससे हीरा कारोबार महीनों तक ठप रहा। दरअसल, व्यापारी किसी और पर भरोसा नहीं कर सकते थे।

ये कुछ मुद्दे हैं जिन्होंने महाराष्ट्र और दिल्ली के संबंधों में जटिलताएं भरी हैं क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री राजनीतिक मुद्दे को व्यक्तिगत और व्यक्तिगत मुद्दे को राजनीतिक मुद्दे में बदलने का मोह छोड़ नहीं पा रहे।


महाराष्ट्र के तमाम मुख्यमंत्रियों ने पूर्व में महाराष्ट्र के साथसौतेले व्यवहार की शिकायत की लेकिन इनके मूल में ज्यादातर आर्थिक कारण रहे। उन्होंने करों में कम भागीदारी का मुद्दा उठाया क्योंकि मुंबई से सबसे ज्यादा टैक्स मिलता है। राज्य ने पूर्व में योजना आयोग से उत्तर प्रदेश और बिहार की तुलना में आनुपातिक रूप से कम धन प्राप्त करने की शिकायत की। योजना आयोग समाप्त होने के बाद भी राज्य की शिकायतें जस की तस बनी हुई हैं । कई मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि ‘ऐसा लगता है जैसे हमें अमीर और अधिक प्रगतिशील होने के लिए दंडित किया जा रहा है।’ अब एमवीए की शिकायत है कि राज्य को राजनीतिक कारणों से दंडित किया जा रहा है।

केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के महाराष्ट्र से होने के बावजूद हाल के वर्षों में केंद्रीय सड़क निधि से महाराष्ट्र के हिस्से कुछ भी नहीं आया। पर्यावरण मंजूरी रोक दी गई है और अत्यधिक बारिश के बाद आपदा प्रबंधन के लिए आवश्यक धन उपलब्ध नहीं कराया गया। एक समय स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि शिवसेना को धमकी देनी पड़ी कि अगर केंद्र ने सही दिशा में कदम नहीं उठाया और राज्यों के साथ उचित संघीय संबंध नहीं बनाए रखा, तो सोवियत संघ की तर्ज पर भारतीय संघ से राज्यों के अलग होने का खतरा हो सकता है।

मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी महाराष्ट्र में सरकार नहीं बना पाई है और न ही केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल का कोई नतीजा निकल सका है। फिर भी उन्होंने एनसीपी प्रमुख शरद पवार के करीबी अनिल देशमुख को झूठे मामले में सलाखों के पीछे डाल दिया है। इस पर नाराज पवार ने धमकी दी कि बीजेपी को देशमुख के जेल में बिताए एक-एक घंटे की कीमत चुकानी होगी। शिव सेना नेता संजय राउत ने कहाः एक-एक घंटे क्यों, उन्हें एक-एक सेकंड की कीमत चुकानी होगी।’

ये बयान संबंधों के पूरी तरह टूट जाने का संकेत देते हैं। राज्यसभा सांसद कुमार केतकर कहते हैं, ‘अगर मुद्दा कारोबारी होता तो शरद पवार केंद्र-राज्य संबंधों को खतरे में नहीं डालते। शायद उन्होंने महसूस किया कि यह अंतिम लड़ाई का समय है और यह गंभीर होने वाली है।’

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