आरबीआई से विवाद में सरकार ने तोड़ी चुप्पी, कहा, हमने तो मांगे ही नहीं 3.6 लाख करोड़

मोदी सरकार ने शुक्रवार को इस बात पर सफाई पेश की कि उसने रिजर्व बैंक से कोई पूंजी नहीं मांगी है। अलबत्ता माना कि वह सिर्फ आर्थिक पूंजी की रूपरेखा यानी फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए आरबीआई के साथ चर्चा कर रही है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

यह सरकार की तरफ से सुलह की कोशिश है या आरबीआई को जाल में फंसाने का नया हथकंडा? नोटबंदी को लेकर आरबीआई की क्या राय थी, यह सामने आने के बाद सरकार ने अपनी तरफ से आरबीआई के साथ जारी रस्साकशी में सफाई सामने रखी है। खबरें हैं कि सरकार की नजर आरबीआई के उस कैश सरप्लस पर है जो केंद्रीय बैंक अपने पास रखता है। कहा जा रहा है कि सरकार इसमें से करीब एक लाख करोड़ या 3.6 लाख करोड़ हासिल करना चाहती है, ताकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले वह सरकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ा सके, और उसकी छवि में कुछ सुधार हो।

लेकिन शुक्रवार को सरकार ने कहा कि उसने रिजर्व बैंक से 3.6 लाख करोड़ या एक लाख करोड़ रुपए मांगे ही नहीं हैं। वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने ट्वीट में कहा, 'मीडिया में सिर्फ गलत खबरें और कयास लगाए जा रहे हैं। सरकार का राजकोषीय हिसाब-किताब बिल्कुल सही चल रहा है।“

गर्ग ने कहा कि, “सरकार ने आरबीआई से 3.6 या एक लाख करोड़ रुपये मांगने का कोई प्रस्ताव नहीं रखा है।“

सुभाष चंद्र गर्ग ने एक और ट्वीट में कहा, 'वर्ष 2013-14 में सरकार का वित्तीय घाटा यानी फिस्कल डेफिसिट जीडीपी के 5.1 प्रतिशत के बराबर था। उसके बाद से सरकार इसमें लगातार कमी करती आ रही है। हम वित्त वर्ष 2018-19 के अंत में वित्तीय घाटे को 3.3 तक सीमित कर देंगे। सरकार ने बजट में इस साल बाजार से कर्ज जुटाने का जो अनुमान रखा था उसमें 70000 करोड़ रुपय की कमी स्वयं ही कम कर दी है।'

आर्थिक मामलों के सचिव की तरफ से यह सफाई उस दिन आना जब एक अखबार ने आरबीआई की नोटबंदी को लेकर हुई बोर्ड बैठक की कार्यवाही का खुलासा किया है, सवाल खड़े करता है। क्या एस सी गर्ग को किसी ने ऐसा करने के लिए कहा? अगर ऐसा ही था तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक दिन पहले ही अपने ब्लॉग में इसका जिक्र क्यों नहीं किया था?

गौरतलब है कि आरबीआई की सालाना रिपोर्ट में इस बात का साफ जिक्र होता है कि हर साल रिस्क मैनेजमेंट का हिसाब लगाने के बाद वह उस कैश सरप्लस का अनुमान लगाता है जो सरकार को दिया जा सकता है। और यह सब एक तय रूपरेखा यानी फ्रेमवर्क के तहत होता है। तो फिर वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के सचिव किस नए फ्रेमवर्क की बात कर रहे हैं?

सवाल यह भी उठता है कि क्या आर्थिक मामलों के सचिव यह बता रहे है कि आरबीआई का फाइनेंशियल मैनेजमेंट तय फ्रेमवर्क के तहत नहीं है?

इस पूरे मामले की पृष्ठभूमिक देखें तो वह यह है कि सरकार बैंकों में त्वरित सुधारात्मक कदम यानी प्रॉम्पट करेक्टिव एक्शन -पीसीए की रूपरेखा से लेकर नकदी के प्रबंधन तक के मुद्दों पर रिजर्व बैंक से असहमत है। सबसे पहले कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ये यह दावा किया गया कि सरकार और आरबीआई के बीच तनातनी चल रही है। इसी बीच आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य का बयान सामने आया जिसमें उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि आरबीआई की स्‍वायत्तता को हल्‍के में लेना विनाशकारी हो सकता है, जिसके बाद ये पूरा मामला गर्मा गया।

उनके इस बयान को रिजर्व बैंक के नीतिगत रुख में नरमी लाने और उसके अधिकारों में कटौती करने के लिए सरकार के दबाव और केंद्रीय बैंक की ओर से उसके प्रतिरोध के रुप देखा जा रहा है।

यहां गौरतलब है कि उर्जित पटेल ने गवर्नर बनने के बाद पिछले दो साल में आरबीआई ने कई फैसले लिए हैं। जिसमें बैड लोन के मामलों को दिवालिया अदालत में भेजने के साथ एक दिन के डिफॉल्ट पर बैंकों के लोन रेजॉलुशन पर काम शुरू करने जैसे फैसले शामिल हैं। प्रॉम्प्ट करेक्टिव ऐक्शन (पीसीए) फ्रेमवर्क के तहत कई सरकारी बैंकों पर कार्रवाई की गई है। सूत्रों के मुताबिक इस तरह के फैसले और कई नियमों के लागू होने के बाद से इंडस्ट्री नाराज है।

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