लद्दाख में सैन्य तनाव से चीन के साथ व्यापार पर पड़ेगा असर, चीनी सामानों का बहिष्कार करना एक मात्र उपाय नहीं! 

लद्दाख में सीमा विवाद पर पीएम मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर चुप ही हैं जबकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहते हुए इस मामले को ठंडा करने की कोशिश की है कि सेनाएं पहले भी विवादित क्षेत्र में घुस जाती रही हैं, इस बार चीनी सेना पहले की तुलना में ‘कुछ अधिक’ आगे आ गई।

फोटो: सोशल मीडिया
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लद्दाख में सैन्य तनाव से चीन के साथ आर्थिक और व्यापार संबंधों पर असर होने का खतरा है। रक्षा और सामरिक विशेषज्ञ अब इस बात पर सहमत हैं कि भारत ने चीनी सेना के हाथों वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर बड़ा हिस्सा खो दिया है। इस हिस्से से भारत को सैन्य लाभ था, भले ही वह बहुत थोड़ा रहा हो। लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) एचएस पनाग-जैसे टिप्पणीकार यह कहने में संकोच नहीं करते कि यह सब खुफिया और कमांड विफलता की वजह से हुआ। वैसे, सरकार की प्रतिक्रिया सीमित रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर इस मुद्दे पर चुप ही रहे हैं जबकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहते हुए इस मामले को ठंडा करने की कोशिश की है कि सेनाएं पहले भी विवादित क्षेत्र में घुस जाती रही हैं, इस बार अंतर सिर्फ यह है कि चीनी सेना पहले की तुलना में ‘कुछ अधिक’ आगे आ गई।

जबकि भारत अपने खो दिए इलाके को वापस हासिल करने के लिए सैन्य आक्रमण करने की स्थिति में नहीं है, अपने देश के एक वर्ग ने बदले में चीनी सामानों के बहिष्कार की अपील की है। ऐसे लोगों में सोनम वांगचुक भी हैं जो लद्दाख के ऐसे अन्वेषक हैं जिनके कामों ने थ्री इडियट्स-जैसी फिल्म बनाने की प्रेरणा दी है। उन्होंने एक वीडियो जारी कर चीनी उत्पादों के बहिष्कार की पुरजोर अपील की। इसे वाट्सएप, फेसबुक वगैरह पर खूब शेयर किया जा रहा है। उनका तर्क है कि चीन ने श्रीलंका और पाकिस्तान को अपने ऋण-जाल में उलझा लिया है और इस पड़ोसी की विस्तारवादी नीतियों पर नियंत्रण जरूरी है।


लेकिन यह बात विचार करने की है कि चीनी उत्पादों का बहिष्कार कितना व्यावहारिक है। भारत और चीन के बीच एक हद तक अविश्वास के बावजूद दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2007-08 में 38 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2017-18 में 89.6 बिलियन तक हो गया। हालांकि इस अवधि के दौरान चीन से आयात में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वृद्धि हुई जबकि चीन को होने वाले निर्यात में 2.5 बिलियन का इजाफा हुआ। फिर भी, चूंकि भारत ने विदेशी प्रत्यक्षनिवेश (एफडीआई) के लिए अपना बाजार खोला और इस वजह से कई विदेशी कंपनियों को निवेश का अवसर मिला, तो बड़ी संख्या में चीनी कंपनियों ने कई भारतीय स्टार्ट-अप में निवेश किया और भारतीय कंपनियों के साथ सहभागिता बढ़ाई। सामरिक क्षेत्र में अविश्वास के बावजूद टेलीकॉम और अन्य सेक्टरों में भी चीनी निवेश बढ़ा है।

भारत अपने दवा उद्योग के लिए कच्चेमाल की लगभग अपनी पूरी जरूरत चीन से आयात करता है। चीन ऐसी चीजों का भी दुनिया भर में लगभग 95 प्रतिशत उत्पादन करता है जिन्हें ‘रेयर अर्थ्स’ कहते हैं और जिनका उपयोग हाई-टेक उपकरणों, कम्प्यूटर और कार में किया जाता है। यह भी एक तथ्य है कि चीनी कंपनियों ने भारत के मोबाइल फोन बाजार का प्रमुख हिस्सा हथिया लिया है। चीन में विकसित या चीनी बैंकों और वित्तीय कंपनियों द्वारा वित्त-पोषित एप्स का यहां अच्छा-खासा बाजार है।

ऐसी हालत में यही लग रहा है कि बहिष्कार की अपीलें भावनात्मक और जनता की राष्ट्रवादी या कट्टर देशभक्तिवाली भावनाएं जगाने लायक भले ही होती हैं, ये व्यावहारिक या प्रभावी कम ही होती हैं। ये राजनीतिक और राजनय प्रतिष्ठान के काम को काफी अधिक कठिन भी बना देती हैं। सरकार को पूर्व एनएसए- शिवशंकर मेनन और एमके नारायणन और पूर्व विदेश सचिवों- निरुपमा राव और विजय गोखले-जैसे लोगों की मदद लेनी चाहिए जिनका चीन के साथ मामले निबटाने में अच्छा-खासा अनुभव रहा है। इसके साथ ही उसे व्यापार पर संसद की स्थायी समिति की 2018 की रिपोर्ट भी देखनी चाहिए।

कमिटी ने तब ही कहा था कि सरकार के एंटी-डम्पिंग वाले कदम आधे-अधूरे और कमजोर हैं और इन्होंने चीन को उत्पादन मूल्य से कम कीमत पर अपने उत्पादों की भारत में ढेर लगाने की सहूलियत दे दी है। इसका सुझाव था कि घरेलू उत्पादन मूल्यों के अनुरूप आयात शुल्कों और जीएसटी को निर्धारित किए जाने की जरूरत है। भारतीय दवा और सोलर उद्योग की चीन पर भारी निर्भरता के तौर-तरीके से असहमति प्रकट करते हुए इसने इस पर भी आश्चर्य प्रकट किया था कि आखिरकार, चीनी बाय साइकिलों और पटाखों ने भी यहां रास्ता क्यों बना लिया है। सरकार को इन बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। आखिर, उत्पादों का बहिष्कार नरम विकल्प है जबकि उन्हें प्रतियोगी बनाना दीर्घ अवधि वाला समाधान है।

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