मणिपुर: मौत से किसी तरह बचकर राहत शिविरों में पहुंची महिलाएं सुना रही हैं सिहरा देने वाली दास्तां
कुछ महिलाओं ने भागते हुए जंगलों में बच्चे को जन्म दिया, तो कई बच्चों के जन्म राहत शिविरों में हुए, जान बचाने वालों को नहीं पता कि उनके घर बचे भी हैं या नहीं
मेमचा की उम्र लगभग 37 साल है। वह बीते आठ साल से राजधानी इम्फाल में रहते थे। वहीं उनका छोटा-मोटा कारोबार था। वह बताते हैं कि हिंसा की आग 3 मई को फैलनी शुरू हुई और अगले ही दिन कुछ लोगों ने उनके घर और दुकान में आग लगा दी। सब स्वाहा हो गया। आग लगाने वाले लगभग सभी चेहरे परिचित थे क्योंकि वे या तो आसपास रहते थे या किसी-न-किसी तरह पहले भी दिखते रहे थे। यह संयोग ही था कि अपने समुदाय के लोगों की सलाह पर उन्होंने भीड़ के हमले से महज कुछ मिनट पहले ही पत्नी और बच्चे के साथ घर छोड़ने का फैसला किया था। रात भर वे लोग जंगल के रास्ते चलते रहे और इम्फाल से 35 किलोमीटर दूर कुकी बहुल कांग्पोक्पी जिले के एक गांव पहुंचे। वे यहां बने राहत शिविर में ही रह रहे हैं। वह लगभग रोते हुए ही कहते हैं कि तमाम जमापूंजी स्वाहा हो गई है। समझ में नहीं आता कि जीवन कैसे चलेगा।
चुराचांदपुर जिले के एक राहत शिविर में रह रही 45 साल की हेंगा किपगेन करीब 70 किलोमीटर दूर सेनापति जिले के एक गांव की रहने वाली हैं। वह बताती हैं कि 3 मई की शाम को ही हमलावरों की भीड़ ने पहले तो उनके पशुओं को चुरा लिया और फिर, खेतों में खड़ी फसल में आग लगा दी। यह देखकर वह भाग निकलीं। उनके साथ कुछ अन्य लोग भी थे। वे सभी अभी यहीं हैं। इतनी लंबी दूरी तक पहुंचने के दौरान उन लोगों को रात जंगल में भी काटनी पड़ी। हेंगा कहती हैं कि जान तो बच गई, पता नहीं, घर बचा भी है या नहीं।
यहीं रह रही 22 साल की के. रेबेका की कहानी तो सिहरा देने वाली है। उनके गांव में हिंसा 5 मई को भड़की। जब उसने पति और गांव के दूसरे लोगों के साथ घर छोड़ा तो नौ महीने की गर्भवती थी। अगले ही दिन छह मई की रात उसने जंगल में ही बच्चे को जन्म दिया। उसकी सास और साथ चल रही महिलाओं ने इसमें उसकी मदद की। बाद में पास के एक नगा गांव में जाने पर उसे कुछ चिकित्सकीय मदद और खाने-पीने की चीजें मिलीं।
चुराचांदपुर जिले के एक चर्च में बने राहत शिविर में रह रहे एम एम हाओकिप बताते हैं कि पुलिस और केंद्रीय बलों की मौजूदगी के बावजूद मैतेई हमलावरों ने उनके घरों को आग लगी दी। उससे पहले वे लोग भागकर पास के जंगल में छिप गए थे लेकिन आग की लपटें देख रहे थे।
वैसे, मैतेई बहुल इलाकों में भी तस्वीर लगभग ऐसी ही है। इम्फाल के पूर्वी इलाके में बने राहत शिविर में शरण लेने वाले सरोज कुमार भक्ता 7 मई की रात परिवार के साथ यहां पहुंचे। वह बताते हैं कि 'बरसों से सद्भाव से साथ रहने वाले पड़ोसी ही जान के दुश्मन बन गए।' भक्ता बूढ़ी मां, पत्नी और दो बच्चों के साथ यहां रह रहे हैं। बच्चे पूछते हैं कि हम घर कब लौटेंगे। वह कहते हैं कि 'राहत शिविर की जिंदगी मौत से भी बदतर है।'
इम्फाल पूर्व जिले के खुमान लम्पक खेल परिसर में बने राहत शिविर में रह रही मनोरमा देवी बताती हैं कि तिनका-तिनका जोड़कर बनाया गया घर पल भर में खत्म हो गया। हम तो यह भी नहीं जानते कि कभी घर लौट भी पाएंगे या नहीं? इसी शिविर में रह रहे हेम्ब्रम सिंह (78 साल) ने हिंसा और उग्रवाद का लंबा दौर देखा, झेला है। वह कहते हैं कि हम चाहे लाख सिर पटकते रहें, कुछ होना नहीं है।
इम्फाल पश्चिम जिले के मंत्रिपुखरी में बने राहत शिविर में ही 38 साल की एस्थर होन्ता ने अपने दूसरे बच्चे को जन्म दिया है। वह राजधानी के एक कॉलेज में सहायक प्रोफेसर सानीलेन होन्ता की पत्नी हैं। उनको असम राइफल्स के जवानों ने बड़ी मुश्किल से बचाकर यहां तक पहुंचाया था। यहां डॉक्टरों की टीम ने सिजेरियन के जरिये बच्चे को जन्म देने में मदद की। हेमा नुंगशीतोम्बी चुराचांदपुर जिले की मैतेयी-बहुल माता गांव से यहां आई हैं। पहले वह विष्णुपुर जिले के मोइरांग के राहत शिविर तक पहुंची। लेकिन वहां बच्चे को जन्म देने के लिए मूलभूत सुविधाओं की कमी थी। कुछ दिनों बाद सुरक्षा बल उन्हें यहां ले आए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, राहत शिविरों में करीब डेढ़ सौ बच्चों का जन्म हुआ है। इम्फाल के यूथ होस्टल में खासतौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए बने राहत शिविर में ही 19 बच्चों का जन्म हो चुका है। यहां करीब 50 महिलाएं गर्भावस्था के विभिन्न चरण में हैं। कम-से-कम दो महिलाएं ऐसी भी हैं जिनको मजबूरन जंगल में ही बच्चों को जन्म देना पड़ा।
शिविरों में पैदा होने वाले बच्चों के नामकरण की कहानी भी दिलचस्प है। लड़का होने पर ज्यादातर उनके नाम लान-नाम्बा और लड़कियों के नाम लानजेनाबी रखे जा रहे हैं। यह मणिपुरी योद्धाओं और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वालों का प्रतीक है।
शिविरों के लिए सामग्रियां जुटाना अलग मशक्कत है। शिविरों के आयोजक-व्यवस्थापक सरकारी मदद की आस जोहते रहते हैं। कुछ एनजीओ, उत्साही लोग आदि मदद न करें, तो रोजाना के खाने-पीने का इंतजाम मुश्किल ही है। सबसे बड़ी समस्या चिकित्सा संसाधनों की है। हां, कुछ जगहों पर कुछ लोगों ने इन शिविरों में रहने वाले लोगों को मोमबत्ती बनाने-जैसे कई तरह के काम सिखाना शुरू किया है।
मणिपुर में भी ऐसे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है जो रोजी-रोजगार के लिए दूसरे राज्यों से यहां आए और इन दिनों मुसीबतें झेल रहे हैं। मोटे अनुमान के मुताबिक, राज्य में ऐसे लोगों की तादाद दस हजार से ज्यादा है। इनमें बंगाली और मारवाड़ी के अलावा बिहार और यूपी के लोग और म्यांमार से दशकों पहले लौटे तमिल समुदाय के लोग भी शामिल हैं।
बिहार के दरभंगा से करीब डेढ़ दशक पहले म्यांमार से सटे मणिपुर के मोरे कस्बे में पंकज राय ने कुछ साल तक एक दुकान में काम किया और फिर, एक मैतेई महिला से शादी कर ली। उन्होंने यहां अपनी दुकान खोल ली थी। हिंसा शुरू होते ही उनकी मैतेई पत्नी अपने दो बच्चों को लेकर इम्फाल घाटी लौट गई है। पंकज दुकान के मोह में यहां रुके तो हैं, पर उन्हें नहीं लगता कि हालात सामान्य होंगे।
कुकी-बहुल मोरे से मैतेई-बहुल इम्फाल घाटी तक एक हजार से ज्यादा लोग पंकज-जैसी हालत में ही फंसे हैं। इनमें से कुछ ने स्थानीय मैतेई या कुकी महिलाओं से शादी कर घर बसा लिए। लेकिन अब 'दुश्मन के इलाकों' में रहने वाले ऐसे ज्यादातर लोग या तो बेघर हो चुके हैं या उनका परिवार दो हिस्सों में बंट गया है। दुश्मन के इलाकों, यानी कुकी लोगों के लिए मैतेई-बहुल इलाके और मैतेई के लिए कुकी-बहुल इलाके।
इम्फाल के लाम्बोई खोंगनांग के शिविर में रह रहे एम. धनंजय सिंह बताते हैं कि 'घर से भागने से पहले कोई भी सामान साथ लेने का मौका नहीं मिला।' इम्फाल पूर्व जिले के खुमान लम्पक के एक शिविर में रहने वाले एम. जॉय सिंह परिवार के साथ कुकी-बहुल कांग्पोक्पी जिले में रहते थे। उन्हें भी फिलहाल घर वापसी की कोई उम्मीद नहीं नजर आती।
(प्रभाकर मणि तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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