मध्य प्रदेश: बीजेपी से जनता नाराज, शिव ‘राज’ ने विधानसभा जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं को बनाया अप्रासंगिक
मध्य प्रदेश का दौरा कर कई बीजेपी के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की शिवराज सरकार की उपलब्धियों के बारे में जनता को बता रहे हैं। लेकिन ऐसी खबरें आ रही हैं कि वे जहां भी जा रहे हैं, उन्हें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसा लगता है कि बहुत बड़े पैमाने पर बीजेपी के ‘बुरे दिन’ आ गए हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि बीजेपी के मंत्रियों समेत नेताओं को गुस्साई भीड़ का सामना करना पड़ रहा है। कई बीजेपी के नेता, मंत्री, सांसद और विधायक राज्य का दौरा कर केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की शिवराज सरकार की उपलब्धियों के बारे में जनता को बता रहे हैं। लेकिन ऐसी खबरें आ रही हैं कि वे जहां भी जा रहे हैं, उन्हें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है। जिन नेताओं को जनता के गुस्से और ‘वापस जाओ’ जैसे विरोधी नारों का सामना करना पड़ा, उनमें मंत्री सुरेन्द्र पटवा, सत्य प्रकाश मीणा, सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते, अनूप मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी के भतीजे), ज्ञान सिंह, और विधायक शैलेन्द्र जैन और रामेश्वर शर्मा शामिल हैं। इस पर टिप्पणी करते हुए कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि यह घटनाएं बताती हैं कि बीजेपी पहले ही जनता का भरोसा खो चुकी है।
भोपाल में कोलर इलाके के वाशिंदों ने बीजेपी नेताओं का ‘स्वागत’ करने के लिए ‘पुराने जूतों की माला’ तैयार की है। इस इलाके और कई अन्य इलाके के लोगों की शिकायत है कि बीजेपी ने उनकी समस्याओं के समाधान के लिए कई वादे किए थे, लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है।
ऐसा भी लग रहा है कि बीजेपी किसी भी मुद्दे पर अर्थपूर्ण चर्चा में भाग लेने से नैतिक रूप से डरी हुई है जिसे विपक्ष उठाना चाहता है। बीजेपी लंबे समय से विधानसभा के छोटे सत्र ही बुला रही है। वह सदन में अविश्वास प्रस्ताव न आने देने के लिए हर तरीका अपनाती है। इसने पिछले विधानसभा सत्र में अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और ऐसा लगता है कि इस बार के 5 दिनों के सत्र में भी अविश्वास प्रस्ताव का यही हाल होने वाला है और शायद विधानसभा के इतिहास में यह सबसे छोटा सत्र है। एक अंग्रेजी अखबार द्वारा मध्य प्रदेश के इतिहास में 14वीं विधानसभा यानी मौजूदा विधानसभा के किए गए विश्लेषण के अनुसार, यह पूर्ण कार्यकाल में सबसे कम दिनों के लिए बैठने वाली विधानसभा है। अगर मौजूदा सत्र 5 दिनों में खत्म हो जाता है तो इसका मतलब यह होगा कि 5 साल में सिर्फ 133 दिन ही सत्र चला है और जिसकी वजह से कई सारे जन सरोकार के मुद्दों पर न तो कोई चर्चा हुई और न उनका कोई जवाब मिला।
सिर्फ छठी और 9वीं विधानसभा में इतनी कम बैठकें हुई थी जब सदन 5 वर्षों के लिए नहीं चल पाया था और 1956 में जब मध्य प्रदेश के बनने के बाद पहली विधानसभा संयोजित हुई थी। पहली विधानसभा में सिर्फ एक सत्र हुआ था। वह 32 दिनों तक चला था और उसमें 16 बैठकें हुई थीं। दूसरी विधानसभा 1957 से 1962 तक चली और उसमें 277 बैठकें हुईं। 9वीं विधानसभा (1990-92) सिर्फ तीन वर्षों तक चली और उसमें 123 बैठकें हुईं जो पूर्ण कार्यकाल की मौजूदा विधानसभा से सिर्फ 10 कम है। उस समय बीजेपी के बड़े नेता सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री थे। दिग्विजय सिंह के दशक में विधानसभा की बैठकों में काफी इजाफा हुआ, उनके पहले कार्यकाल (1993-98) में 282 और दूसरे कार्यकाल (1998-2003) में 289 बैठकें हुईं।
2003 में 12वीं विधानसभा में सत्ता में आने के बाद बैठकों की संख्या गिरने लगी। 2003-08 के बीच सदन की सिर्फ 159 बैठकें हुईं और 2008-13 के बीच 13वीं विधानसभा में सिर्फ सदन 167 दिनों के लिए बैठी।
जब विधानसभा अध्यक्ष सीताशरण शर्मा से पूछा गया कि क्यों इतनी कम बैठकें हुईं तो उन्होंने कहा, “विधानसभा के समय और काल के बारे में होने वाले निर्णय में मेरी बहुत कम भूमिका है। तारीख और समय राज्य सरकार और राज्यपाल मिलकर तय करते हैं। मैं सिर्फ उन तारीखों को अधिसूचना जारी करने के लिए राज्यपाल को भेजता हूं जो मुझे राज्य सरकार से मिलती हैं। मैं पीठासीन अधिकारी हूं, निर्णय लेने वाला अधिकारी नहीं।”
विपक्ष के नेता अजय सिंह ने अपनी कड़ी आलोचना में कहा, “सदन के छोटे सत्र बीजेपी की मानसिकता को दर्शाते हैं। बीजेपी को न तो लोकतंत्र में और न ही लोकतांत्रिक संस्थानों में कोई आस्था है। वे हमेशा सवालों से भागते हैं लेकिन वे जो कर रहे हैं वह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है।
अब 14वीं लोकसभा समाप्त होने के कगार पर है, ऐसा बहुत कुछ है जो राज्य सरकार ने सदन में वादा किया था और वह पूरा नहीं हुआ। सदस्यों द्वारा पूछे गए कई सवालों का ठीक से जवाब नहीं मिला।
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस को रोकने के अलावा सरकार महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा कराने में भी असफल रही। विधानसभा समितियों की रिपोर्टों पर बीजेपी के 14 साल के शासन के दौरान चर्चा नहीं हुई। जन महत्व के मुद्दों को भी सदन के कार्य में शामिल नहीं किया गया।
अगर लंबा सत्र होता तो विपक्ष को सरकार की नाकामियों और गलतियों को पर्दाफाश करने का मौका मिलता। स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े घोटाले व्यापमं पर ठीक से चर्चा नहीं हुई। विधानसभा की कार्यवाही में ई-टेंडर घोटाले के नाम से जाना गया हालिया स्कैंडल शामिल नहीं हुआ जो व्यापमं से भी बड़ा है। 5 दिनों का मौजूदा सत्र इस विधानसभा का आखिरी सत्र है। अगर सही मूल्यांकन हुआ तो यह सामने आएगा कि राज्य के सबसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्थान का यह सबसे अंधेरा काल रहा है।
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