जस्टिस मदन लोकुर, संतोष हेगड़े से लेकर सोली सोराबजी तक सबने माना कि नागरिकता संशोधन बिल संविधान के ख़िलाफ़

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर,जस्टिस संतोष हेगड़े से लेकर पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी तक सबका मानना है कि नागरिकता संशोधन विधेयक पूरी तरह से संविधान के ख़िलाफ़ है और सुप्रीम कोर्ट में यह संवैधानिकता की परीक्षा में फेल हो जाएगा।

फोटो : सोशल मीडिया
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ऐशलिन मैथ्यू

देश के अहम न्यायविदों ने लोकसभा द्वारा पारित नागरिकता संशोधन विधेयक को गैरसंवैधानिक करार देते हुए कहा है कि अदालत में यह बिल कहीं नहीं ठहर सकेगा, क्योंकि संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

मोदी सरकार ने विवादित नागरिकता संशोधन विधेयक को बीती रात लोकसभा में पास करा लिया। विपक्ष ने इस बिल को गैरसंवैधानिक करार दिया है, लेकिन गृह मंत्री अमित शाह का दावा है कि इस बिल में संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंधन नहीं होता। उन्होंने जोर दिया कि संविधान का अनुच्छेद 14 सरकार को किसी पर्याप्त और तर्कसंगत कारणों के आधार पर कोई कानून बनाने से नहीं रोकता है।

अमित शाह ने कहा कि, “1971 में एक फैसला हुआ था कि बांग्लादेश से आने वाले लोगों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। लेकिन उस समय पाकिस्तान से आए लोगों को नागरिकता क्यों नहीं दी गई। उस समय भी अनुच्छेद 14 मौजूद था, फिर सिर्फ बांग्लादेश ही क्यों?”

ध्यान रहे कि 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के केस में अदालत ने कहा था कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में बदलाव कर सकती है बशर्ते, इससे संविधान के बुनियादी ढांचे और मूल्यों से छेड़छाड़ न हो।

देश के प्रमुख न्यायविदों का मानना है कि मौजूदा सत्ता पक्ष की संविधान को लेकर समझ में दोष है। उनके मुताबिक संविधान का अनुच्छेद 14 स्पष्ट रता है कि धर्म, जाति, रंग, लिंग या जन्म के स्थान के आधार पर देश उनमें समानता के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।

केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के 1973 के केस से जुड़े रहे प्रमुख न्यायवादी फाली एस नरीमन के साथ सोली सोराबजी का कहना है कि, “यह बिल संवैधानिकता का परीक्षण पास नहीं कर पाएगा। यह विभाजनकारी और संविधान के बुनियादी उसूल समानता के विरुद्ध है।”


वहीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी लोकुर का मानना है कि, “नागरिकता संशोधन विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 का सीधा-सीधा उल्लंघन करता है। इस अनुच्छेद के दायरे में सभी आते हैं। मैं नहीं मानता कि इसके पीछे रीजनेबल क्लासिकफिकेशन का तर्क सही है।” इनके लावा न्यायिक सुधारों के लिए आवाज उठाने वाले और नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी के पूरव प्रमुख मोहन गोपाल मानते हैं कि, “नागरिकता संशोधन विधेयक असंवैधानिक है और यह संवधान के बुनियादी आधार का उल्लंघन करता है। इस बिल से हर धर्म के लोगों को मिला समानता का अधिकार खत्म होता है। साथ ही यह बिल संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का भी उल्लंघन है। मुझे उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इसी आधार पर इस बिल को खारिज कर देगा।”

उन्होंने आगे कहा कि सरकार ने जो चिंता पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे धार्मिक उत्पीड़न को लेकर जताई है, वैसी ही चिंता सरकार को भारत में अल्पसंख्कों को लेकर व्यक्त करनी चाहिए जो बहुसंख्यकवाद की चुनौती झेल रहे हैं। साथ ही उन बहुसंख्यकों, अनुसूचित जाति-जनजाति और अति पिछड़े तबके को लेकर चिंता दिखानी चाहिए जो हिंदू उच्च जातियों के हाथों उत्पीड़न का शिकार हैं।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़ का भी ऐसा ही मानना है। वे कहते हैं कि, “सरकार दावा करती है कि इस बिल के पीछे रीजनेबल क्लासिफिकेशन का तर्क है, लेकिन इसके आवश्यक उद्देश्य को सामने लाए बिना यह तर्क भोथरा है। सरकार ने पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को धार्मिक आधार पर उत्पीड़ित मानकर नागरिकता देने की व्यवस्था की जा रही है, तो इस आधार पर यह बिल सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिक पाएगा क्योंकि इन्हीं देशों में शिया और अहमदिया मुस्लिम भी हैं जो धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हैं। यह धार्मिक आधार पर भेदभाव है जिसकी संविधान इजाजत नहीं देता है।”


हेगड़े ने कहा कि, “अगर इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है तो कोर्ट इसे पूर्णतया खारिज कर देगा। सुप्रीम कोर्ट उसी आधार पर इसे खारिज कर देगा जिस आधार पर उसने तीन तलाक के बिल को खारिज किया था।” उन्होंने कहा कि संविधान को अंदर ही अंदर खोखला किया जा रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो यह सिर्फ नाम का रह जाएगा और हम एक तरह से हिंदू राष्ट्र या बहुसंख्यावादी राष्ट्र बन जाएंगे। ऐसा होता है तो हम कतई वह धर्मनिरपेक्ष देश नहीं रहेंगे जो अपने सभी नागरिकों को समान समझता है।

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