कोबाड गांधी की किताब को पुरस्कृत करने पर शिंदे सरकार की किरकिरी, पुरस्कार वापस लेने के साथ ही चयन समिति भी भंग
कोबाड गांधी की किताब को पुरस्कृत किए जाने को लेकर महाराष्ट्र की शिंदे सरकार की भारी किरकिरी हुई है। हड़बड़ी इस हद तक बढ़ी है कि न सिर्फ पुरस्कार वापस लिया जा रहा है बल्कि इस किताब को चुनने वाली समिति को ही भंग कर दिया गया है।
यह थोड़ा सुविधाजनक है कि पूर्व माओवादी नेता कोबाड गांधी को महाराष्ट्र का यशवंतराव चव्हाण साहित्यिक पुरस्कार देने का दोष पूर्व की उद्धव ठाकरे सरकार के सिर मढ़ दिया जाए। और यह तथ्य भी है कि कोबाड गांधी की किताब ‘फ्रैक्चर्ड फ्रीडम: अ प्रिजन मेमॉयर’ (खंडित स्वतंत्रता: एक जेल संस्मरण) को पूर्व की महाविकास अघाड़ी सलकार ने ही वार्षिक साहित्य पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया था। मार्च 2021 में जारी होने के बाद से यह किताब अमेजॉन पर बेस्ट सेलर में बनी हुई है।
और यह भी तथ्य है कि कोबाड गांधी की यह किताब और अनागा लेले द्वारा किए गए इसके मराठी अनुवाद को मौजूदा एकनाथ शिंदे सरकार ने पुरस्कृत करने का अंतिम निर्णय लिया था। यहां तक कि महाराष्ट्र के भाषा मंत्री दीपक केसरकर ने ट्वीट कर विजेताओं को बधाई भी दी थी। लेकिन अब केसरकर ने सिर्फ पुरस्कार वापस लेने का ऐलान किया है, बल्कि मराठी भाषा विभाग द्वारा गठित उस समिति को भी भंग कर दिया है जिसने इस किताब को पुरस्कार के लिए चयनित किया था। सरकार ने ऐसा सोशल मीडिया पर इस किताब को लेकर की जा रही टिप्पणियों के बाद किया है।
गौरतलब है कि कोबाड गांधी सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे हैं और उन्होंने नक्सली गतिविधियों के लिए नागपुर जेल में करीब 10 साल गुजारे हैं। उन पर नक्सली गतिविधियों के दौरा ही कई लोगों की हत्याओं का आरोप है, जिनमें कुछ पुलिसवाले भी शामिल हैं। कोबाड गांधी प्रतिष्ठित दून स्कूल के छात्र रहे और बाद में उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अध्ययन किया। 1960 और 1970 के दशक में ब्रिटिश समाज में व्याप्त नस्लभेदी रवैये के चलते उनका रुझान वापंथी विचारधारा की तरफ मुड़ा और उन्होंने अपने पत्नी स्वर्गीय अनुराधा गांधी के साथ महाराष्ट्र के विदर्भ और नागपुर इलाके में दलितों के सामाजिक न्याय के लिए कई दशकों तक काम किया।
सवाल है कि आखिर कोबाड गांधी को यह पुरस्कार दिए जाने को लेकर महाराष्ट्र सरकार अब क्यों असमंजस में पड़ी। और स्थिति यह है कि उन्हें भीमा कोरेगांव मामले से भी जोड़ा जा रहा है। इस केस में कई ऐसे लोगो जेल में डाल दिय गया है जिन्होंने दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम किया है। लेकिन उन सब पर नक्सलवादी होने के आरोप लगाए गए हैं।
कोबाड गांधी की किताब के मराठी संस्करण को लोकवांगमय गृह द्वारा प्रकाशित किया गया है और उन 33 किताबों (वैसे हर साल 35 किताबें इस सूची में होती है, लेकिन इस बार 2 किताबें कम चुनी गई थीं) की सूची में यह शीर्ष पर है जिन्हें पुरस्कार के लिए चुना गया है।
गांधी की किताब को लेकर सरकार को इसलिए भी दोहरी शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है क्योंकि मार्च 2021 में किताब रिलाज होने के फौरन बाद कोबाड गांधी को सीपीआई (एमएल) ने उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया था। उन पर आध्यात्म की तरफ मुड़ने का आरोप था। हालांकि उनकी किताब में इस बात का हवाला है कि आखिर वे कैसे क्रांतिकारी कारणों से राजनीति की तरफ आए, लेकिन सीपीआई (एमएल) को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा और उसने पिछले साल एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उन्हें पार्टी से निकाल दिया। गांधी ने बाद में मीडिया से बातचीत में कहा था कि उन्हें सीपीआई (एमएल) के फैसले पर हैरानी है। उनके इस बयान की काफी चर्चा भी हुई थी।
कोबाड गांधी के बारे में सारी जानकारियां आसानी से उपलब्ध थीं, उनके सीपीआई (एमएल) से जुड़ाव, नक्सली आंदोलन में हिस्सेदारी आदि को लेकर लिखा जाता रहा है। इसके बावजूद उनकी किताब को इस साहित्यिक पुरस्कार के लिए चुना गया। इतना ही नहीं महाराष्ट्र सरकार के सूचना विभाग ने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा था कि भाषा मंत्री केसरकर ने कोबाड गांधी को पुरस्कार जीतने पर बधाई दी है।
लेकिन फिर भी मौजूदा शिंदे सरकार इस सबके लिए पूर्व की उद्धव ठाकरे सरकार को दोषी ठहरा रही है। लेकिन इस बार मराठी सोशल मीडिया इस मामले में शिंदे सरकार की आलोचना कर रहा है। वहां कहा जा रहा है कि भले ही कोबाड गांधी की किताब का चयन महाविकास अघाड़ी सरकार ने किया था, लेकिन पुरस्कार देने का अंतिम फैसला तो शिंदे सरकार ने ही किया, और ऐसे में शिंदे सरकार की ही जिम्मेदारी थी कि पुरस्कारों का ऐलान करने से पहले लेखकों के बारे में सारी जानकारी जुटाए। आलोचना इस हद तक बढ़ी की न सिर्फ पुरस्कार को वापस लेने का ऐलान करन पड़ा बल्कि उस समिति को ही भंग कर दिया गया जिसने इस किताब को पुरस्कार के लिए चुना था।
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