कर्नाटक: लिंगायत समुदाय को अलग पहचान की तलाश और भाषा विवाद में सरकार का आश्वासन - कन्नड़ की प्रधानता बनी रहेगी
कर्नाटक में लिंगायत- राजनीतिक और सामाजिक रूप से प्रमुख समुदाय हैं जो राज्य की आबादी का लगभग 17 फीसदी हैं। लंबे समय तक उन्हें बीजेपी के लिए भरोसेमंद वोट बैंक के तौर पर देखा जाता था।
अलग पहचान की तलाश
लोकसभा चुनाव से पहले, वीरशैव-लिंगायत समुदाय के लिए एक अलग धार्मिक पहचान की मांग के फिर से जिंदा होने से कर्नाटक के राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई है। दावणगेरे में आयोजित अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के 24वें वार्षिक सम्मेलन में हिन्दू पहचान से स्वतंत्र होने का संकल्प लिया गया। महासभा ने अपने समुदाय के सदस्यों से आगामी जनसंख्या जनगणना या जाति जनगणना में खुद को हिन्दू नहीं बताने के लिए कहा। यह निर्णय सम्मेलन में प्रतिनिधियों द्वारा अपनाए गए आठ प्रस्तावों में से एक में लिया गया।
प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘समुदाय के सदस्यों को सलाह दी जाती है कि वे अगली शताब्दी में अपनी धार्मिक पहचान का वर्णन करने के लिए “हिन्दू” शब्द का उपयोग न करें। उन्हें उपजातियों के नामों से भी बचना चाहिए। उन्हें खुद का वर्णन करने के लिए केवल वीरशैव या लिंगायत शब्दों का उपयोग करना चाहिए। यह समाज की भलाई के लिए है और दुनिया को हमारे समुदाय की विशिष्ट संख्या के बारे में बताने के लिए है।’
वीरशैववाद- कवि-संत बसवेश्वर द्वारा संचालित 12वीं सदी का सुधारवादी आंदोलन- असहमति का प्रतीक था और स्थापित ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देता था। इसने शिव की पूजा के एक नए समतावादी धार्मिक संप्रदाय की स्थापना करके हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में असमानताओं को दूर करने का समर्थन किया। वैसे तो इसने अधिकतर हिन्दू परंपराओं को खारिज कर दिया लेकिन इसने कई पहलुओं को अपना भी लिया जिससे एक अलग धार्मिक स्थिति की मांग एक जटिल मामला बन गई। इसके अनुयायी- लिंगायत- राजनीतिक और सामाजिक रूप से प्रमुख समुदाय हैं जो राज्य की आबादी का लगभग 17 फीसद हैं। लंबे समय तक उन्हें भाजपा के लिए भरोसेमंद वोट बैंक के तौर पर देखा जाता था।
इससे जुड़ी तमाम जटिल चुनौतियां हैं। अगर लिंगायतों को एक अलग धार्मिक दर्जा दिया जाता है, तो हिन्दू धर्म के तहत सभी समुदायों को एकजुट करने का भाजपा का वैचारिक उद्देश्य कमजोर हो जाएगा। (विडंबना यह है कि येदियुरप्पा की बेटी अरुणा उदयकुमार महासभा के पदाधिकारियों में से एक हैं।)
2018 में जब सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने केन्द्र को वीरशैव-लिंगायत समुदाय के लिए एक अलग ‘अल्पसंख्यक धर्म’ टैग देने की सिफारिश की थी, तो राज्य के भाजपा नेताओं और समुदाय के कई मठाधीशों ने इसका कड़ा विरोध किया था। एनडीए सरकार ने इस सिफारिश को सिरे से खारिज कर दिया था।
भाषा विवाद
अपनी भाषा के प्रति प्रेम ठीक है लेकिन उसके नाम पर तोड़फोड़ का सहारा लेना गलत है। एक उदार, शांतिपूर्ण महानगरीय शहर के रूप में बेंगलुरु की प्रतिष्ठा को तब धक्का लगा जब ‘कर्नाटक रक्षणा वेदिके’ के उग्र कार्यकर्ताओं ने व्यापारिक प्रतिष्ठानों के अंग्रेजी साइनबोर्डों को तोड़ दिया और उनकी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया। यह सब कन्नड़ भाषा की रक्षा के नाम पर हुआ।
यह सरकार के इस आश्वासन के बावजूद है कि वह उपयोग में कन्नड़ की प्रधानता को बनाए रखेगी। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने घोषणा की कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए एक अध्यादेश लाएगी कि साइनबोर्ड और नेम प्लेट पर 60 फीसद जगह कन्नड़ को समर्पित हो और बाकी जगह किसी अन्य भाषा के लिए छोड़ी जाएगी। (मुख्यमंत्री के रूप में उनके पिछले कार्यकाल के दौरान साइनबोर्ड और नेम प्लेट के लिए 60:40 अनुपात लागू करने के लिए मार्च, 2018 में एक परिपत्र जारी किया गया था।)
अध्यादेश 28 फरवरी, 2024 को लागू होगा। इसके अलावा, कन्नड़ भाषा व्यापक विकास अधिनियम की धारा 17(6) जिसे पिछली भाजपा सरकार ने मार्च, 2023 में लागू किया था, में संशोधन भी पेश किया जाएगा। इस धारा ने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को साइनबोर्ड और नेम प्लेट पर 50 फीसद जगह कन्नड़ में जानकारी के लिए आवंटित करने का आदेश दिया था और कांग्रेस सरकार इसे 60 फीसद तक बढ़ा रही है।
कर्नाटक में भाषा हमेशा से एक भावनात्मक मुद्दा रही है जिसे लेकर अतीत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। तोड़फोड़ की हालिया घटना ने भाषा संबंधी बहस को फिर से जिंदा कर दिया है और तेजी से बढ़ती वैश्विक दुनिया में स्थानीय संस्कृति को संरक्षित करने और विविधता को समायोजित करने की प्रतिस्पर्धी जरूरतों के बीच टकराव को रेखांकित किया है।
राज्य के उद्योग मंत्री एम.बी. पाटिल ने सही ही चिंता जताई है कि ऐसी घटनाएं निवेश आकर्षित करने में कर्नाटक की प्रतिस्पर्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं। उन्होंने कन्नड़ समर्थक ऐक्टिविस्टों से कानून अपने हाथ में नहीं लेने की अपील की है।
भगवा खेमे में खलबली!
कर्नाटक में भाजपा नेता फिर से उसी काम में जुट गए हैं जिनमें उन्हें महारत हासिल है- अंदरूनी कलह। नई पार्टी कमेटी में पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा और उनके बेटे और प्रदेश अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र के समर्थक खचाखच भरे हैं और इसी वजह से भगवा पार्टी में विद्रोह पनप रहा है और तमाम वरिष्ठ नेता खफा हैं।
32 पदाधिकारियों में से कम-से-कम 25 या तो येदियुरप्पा या विजयेंद्र के समर्थक हैं। येदियुरप्पा के वफादार छह उपाध्यक्षों और तीन महासचिवों को समिति में जगह दी गई है। यह सब हाईकमान के आशीर्वाद से हुआ है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि पिता-पुत्र के समर्थक विजयेंद्र को अगला मुख्यमंत्री बनाने का सपना देख रहे हैं।
राज्य नेतृत्व के खिलाफ कानाफूसी के तौर पर शुरू हुआ यह अभियान तेजी से कहीं अधिक मुखर और कड़वा हो गया है। इस कलह की एक झलक वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री बसनगौड़ा पाटिल यतनाल ने दी जिन्होंने सनसनीखेज आरोप लगाया कि जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे, तब महामारी के चरम पर 40,000 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था। उन्होंने धमकी दी कि अगर उन्हें पार्टी से निकाला गया तो वह इस घोटाले में येदियुरप्पा की भूमिका का पर्दाफाश कर देंगे।
यहां तक कि उन्होंने बीएसवाई, जैसा कि येदियुरप्पा को लोकप्रिय रूप से जाना जाता है, की तुलना महाभारत के शकुनि के दुष्ट और चालाक चरित्र से की और विजयेंद्र द्वारा तैयार की गई राज्य पदाधिकारियों की सूची को ‘केजेपी-2’ करार दिया। गौरतलब है कि 2012 में येदियुरप्पा ने विधायक और भाजपा के मुख्य व्हिप के पद से इस्तीफा देकर कर्नाटक जनता पार्टी (केजेपी) की स्थापना की थी।
बीएसवाई के धुर आलोचक यतनाल तब से और अधिक आक्रामक हो गए हैं जब से बीएसवाई के बेटे को राज्य भाजपा अध्यक्ष और उनके वफादार आर. अशोक को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया है। यतनाल नाराज हैं कि वंशवाद की राजनीति से पूरी ताकत से लड़ने के भाजपा के सार्वजनिक दावों के बावजूद बीएसवाई की कमान उनके बेटे को सौंप दी गई है।
‘कोविड घोटाले’ के आरोप ऐसे समय में भाजपा के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी के रूप में सामने आए हैं जब वह 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए रणनीति बना रही है। हंगामे के बीच, पूर्व मंत्री वी. सोमन्ना जैसे नेता कांग्रेस की ओर झुक रहे हैं। सोमन्ना के बारे में कहा जाता है कि वह पार्टी द्वारा उनके साथ किए गए बुरे बर्ताव से नाराज हैं।
बीता गलबहियों का दौर
बेंगलुरु भारत की सिलिकॉन वैली है। पिछले कुछ वर्षों में शहर देश के अग्रणी आईटी केन्द्र के रूप में उभरा है जिसका मुख्य कारण उद्योग को मिली रियायतें हैं। कर्नाटक देश का एकमात्र राज्य है जिसने आईटी/आईटीईएस (सूचना प्रौद्योगिकी/सूचना प्रौद्योगिकी-सक्षम सेवाएं) उद्योगों को औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 के प्रावधानों से छूट दी है। 2014 से लागू इस छूट का समय इस साल मई में समाप्त होने वाला है।
तमाम शिकायतों के बाद कांग्रेस सरकार इस छूट को रद्द करने पर विचार कर रही है। मनमाने ढंग से लोगों को नौकरी से निकालने, आईडी ब्लॉकिंग, बड़े पैमाने पर छंटनी, काम के घंटों से अधिक देर तक काम लेने के साथ-साथ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों को छूट पर फिर से विचार करने का आधार बताया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कर्नाटक में 8,785 सूचना प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी फर्मों में लगभग 18 लाख पेशेवर काम करते हैं। कोविड-19 के बाद राज्य के श्रम विभाग में अनुचित व्यापार प्रथाओं का आरोप लगाने वाले तकनीकी पेशेवरों की शिकायतों में वृद्धि देखी गई। श्रम विभाग के प्रधान सचिव मोहम्मद मोहसिन के हवाले से स्थानीय मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विभाग शिकायतों की जांच करने की प्रक्रिया में है और छूट को रद्द करने पर फैसला लेने के लिए जल्द ही हितधारकों की बैठक बुलाएगा।
उभरते उद्योगों के रूप में मान्यता देते हुए आईटी/आईटीईएस, बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग और नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग फर्मों को उनके विकास में तेजी लाने के लिए श्रम नियमों से छूट दी गई थी। यह काम कर गया और इस क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई जिसने देश के निर्यात में एक बड़ा योगदान भी दिया।
उद्योग विशेषज्ञों का तर्क है कि छूट बंद करने से क्षेत्र और ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की रैंकिंग पर बुरा असर पड़ेगा। हालांकि कर्नाटक राज्य आईटी/आईटीईएस कर्मचारी संघ ने इन छूटों को आगे बढ़ाए जाने का विरोध किया है।
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