भारत-चीन विदेश मंत्रियों के साझा बयान में जो बात नहीं लिखी है, वह यह कि युद्ध का खतरा टला नहीं है

भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान से क्या नतीजा निकाला जाए? आशावादी होकर देखें तो गतिरोध को तोड़ने के लिए राजनीतिक नेतृत्व आगे आया जिसका फायदा भारत को ही होगा। जबकि दूसरा नजरिया कहता है कि इसमें एक ऐसा अस्पष्ट ढांचा तैयार करने की बात है जिसका फायदा तो चीन को ही मिलेगा।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया

पिछले साल बुकर जीतने वाली कनाडाई लेखिका मार्गरेट एटवुड का कहना है कि युद्ध तभी होता है जब बातचीत विफल हो जाती है। जहां तक भारत और चीन की बात है, फिलहाल तो बातचीत के जरिये मामले को सुलझाने की कोशिशें होती दिख रही हैं। इसी क्रम में मॉस्को में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत हुई और यह एक सकारात्मक पहलू है। लेकिन इस बैठक के बारे में जो संकेत मिल रहे हैं, उससे यही लगता है कि दोनों देश हाल- फिलहाल एलएसी पर आक्रामक पेशबंदियों में कमी नहीं करने जा रहे और यह चिंता की बात है।

शंघाई कोऑपरेशन आर्गनाइजेशन (एससीओ) सम्मेलन के दौरान दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच 10 सितंबर को हुई इस बैठक से कुछ ही दिन पहले मॉस्को में ही भारत और चीन के रक्षा मंत्रियों की बैठक भी हो चुकी है जिसमें चीनी रक्षा मंत्री ने एलएसी पर तनाव के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए राजनाथ सिंह को याद दिलाया था कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि भारत की एक इंच भी जमीन पर कब्जा नहीं हुआ।

खैर, विदेश मंत्रियों की इस बैठक का इतना ही नतीजा निकला कि दोनों नेता मिले, बातचीत हुई और संयुक्त बयान जारी हुआ जो कूटनीतिक ज्यादा था। दोनों नेताओं ने माना कि एलएसी पर गतिरोध किसी के भी पक्ष में नहीं और सेनाओं को बातचीत जारी रखते हुए जल्दी से जल्दी सेनाओं को वापस बुलाने की ओर बढ़ना चाहिए और एक-दूसरे से दूरी बनाते हुए तनाव घटाना चाहिए। बयान में कहा गया कि “दोनों मंत्री इस बात पर सहमत हैं कि जैसे ही हालात बेहतर होते हैं, सीमा से लगते इलाकों में शांति और स्थिरता बहाल करने के लिए दोनों पक्ष परस्पर विश्वास बढ़ाने के उपायों में तेजी लाएंगे।”

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने शंघाई इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल स्टडीज में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ लियू जोंगयी के हवाले से संयुक्त बयान को एक सकारात्मक घटना बताया लेकिन यह भी कहा कि आगे क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि भारतीय सेना क्या करती है। लियू ने कहा, “क्या भारत की सेना भी गतिरोध को दूर करने के लिए चीन के दो कदम के जवाब में दो कदम उठाने को तैयार है? गलवान और पैंगोंग त्सो में तनाव के बाद दोनों देशों के बीच सैन्य और राजनीतिक स्तर पर कई बार बातचीत हो चुकी है। लेकिन भारतीय रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के कहने और करने में आसमान-जमीन का अंतर है। हमें होशियार रहना होगा और हर स्थिति के लिए तैयार भी।”


यह जरूर है कि संयुक्त बयान से यह पता नहीं चल रहा कि बैठक में ठीक-ठीक क्या बातचीत हुई, अंदरखाने कैसी तोलमोल हुई लेकिन किसी भी दिन युद्ध छिड़ने की जो आशंका बन आई थी, वह फिलहाल टल गई दिखती है। वैसे, नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में चीनी अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर कोंडापल्ली श्रीकांत का मानना है कि चीन, दरअसल, युद्ध की तैयारी कर रहा है क्योंकि उसने अपनी वायु सेना को सेकंड अलर्ट पर डाल रखा है और उसके वेस्टर्न थिएटर कमांड ने भारत पर एलएसी में एकतरफा बदलाव का आरोप लगाया है। श्रीकांत कहते हैं, यह पहली बार है जब चीन खुद को पीड़ित बता रहा है। वह कहते हैं, “युद्ध किस स्तर का होगा, यह कहना तो मुश्किल है” लेकिन वह इसके साथ ही एक साथ चीन और पाकिस्तान- दोनों मोर्चों पर युद्ध की आशंका से इनकार भी नहीं करते। माना जाता है कि भारत 2009 से ही दोनों मोर्चों पर एक साथ युद्ध को ध्यान में रखते हुए तैयारी कर रहा है लेकिन यह कितनी कारगर है, यह देखने की बात है।

श्रीकांत का मानना है कि भारत पहाड़ी इलाकों में लड़ाई के लिए तैयार है क्योंकि उसके पास 11 माउंटेन डिवीजन हैं। पहाड़ों में लड़ाई का नियम है कि ऊंचाई और नीचे स्थिति सेनाओं का अनुपात 1:8 होना चाहिए, यानी चीन को पहाड़ी पर तैनात एक भारतीय को बेदखल करने के लिए आठ सैनिकों की जरूरत होगी। इस लिहाज से चीन को वहां 40,000 या इससे अधिक ही सैनिकों को तैनात करना होगा।

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व प्रमुख हॉरमिस थरकान का कहना है कि लद्दाख के हालात के बारे में उन्हें जो भी पता है, वह मीडिया में आई खबरों पर आधारित है। उनका कहना है कि भारतीय सैनिक 1962 की तर्ज पर “एलएसी” पर हैं और इसी कारण चीन भड़का हुआ है। वह कहते हैं, 1962 के विपरीत इस बार चीन का मुकाबला करने में भारत कहीं मजबूत है। यह पूछे जाने पर कि अगर दोनों देशों में युद्ध हुआ तो क्या बाकी देश भारत के समर्थन में आएंगे, उन्होंने कहा कि दुनिया तो अभी कोविड-19 से लड़ने में व्यस्त है और मुझे नहीं लगता कि बाहर से कोई बड़ी मदद आएगी।


भारत-चीन सीमा और दक्षिण चीन सागर में शी जिनपिंग सरकार के आक्रामक रवैये की बात करते हुए जेएनयू के प्रोफेसर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस को याद करते हैं। उस बैठक से साफ है कि अब चीन का नया एजेंडा वैश्विक मंच पर अमेरिका की जगह लेने का है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीति विदेश में युद्ध नहीं लड़ने की है और इस कारण पश्चिम एशिया से अमेरिका की वापसी का लाभ चीन को मिलेगा।

जेएनयू में स्कूल ऑफ ईस्ट एशियन स्टडीज में प्रोफेसर अलका आचार्य कहती हैं कि चीन की आंतरिक समस्याओं और सीमा पर आक्रामक रुख के बीच सीधे तौर पर कोई रिश्ता निकालना थोड़ा मुश्किल है। दोनों देशों के बीच हालात को “युद्ध जैसा” करार देते हुए वह कहती है कि 1999 में हुए कारगिल युद्ध और आज के हालात में अंतर है। तब स्थितियां भारत के अनुकूल थीं। भारत-चीन के बीच आज के सीमा-संघर्ष में न तो किसी की स्पष्ट जीत होगी और न ही हार। उनका भी मानना है कि गतिरोध में कोई और नहीं कूदने जा रहा क्योंकि अमेरिका तो राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त है जबकि अन्य देश“चीन के खिलाफ सीधे सामने आने से कतराएंगे।

चीन मामलों की विशेषज्ञ और ‘इंडिया क्वाटर्ली’ की संपादक प्रोफेसर मधु भल्ला का मानना है कि 15 जून की हिंसक झड़प के बाद स्थिति निस्संदेह खराब हुई है। वह कहती हैं कि चीन से निपटने का एक ही तरीका है कि स्थानीय स्तर पर पूरी मुस्तैदी के साथ चीनी सैनिकों का मुकाबला करके उन्हें खदेड़ दिया जाए। उनका मानना है कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति खासी कमजोर है क्योंकि उसके पास चीन की बराबरी करने के लिए कूटनीतिक, सैन्य और आर्थिक ताकत नहीं है।

प्रोफेसर भल्ला और श्रीकांत- दोनों का मानना है कि अगर चीन की उम्मीदों के मुकाबले कुछ विपरीत परिणाम भी निकले तो शी जिनपिंग के नेतृत्व के लिए कोई संकट नहीं क्योंकि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के काम करने का तरीका ऐसा नहीं।

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