झारखंड: आदिवासियों में फूट डालकर ध्रुवीकरण कर रहे हैं बीजेपी-आरएसएस

झारखंड में लंबे समय से आदिवासियों के बीच फूट डालकर ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है। इस काम में आरएसएस के साथ ही बीजेपी और उसके सहयोगी संगठन लगे हुए हैं। लेकिन अब आदिवासी सब समझ चुके हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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ऐशलिन मैथ्यू

ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के मुताबिक सांप्रदायिकता का अर्थ होता है किसी खास समुदाय, धार्मिर गुट आदि से गहरी निष्ठा, जो उग्र व्यवहार को बढ़ावा देती है और दूसरों के साथ हिंसा करती है।

झारखंड में आरएसएस और बीजेपी और इससे जुड़े संगठन दो किस्म की सांप्रदायिकता का इस्तेमाल कर समाज को बांटने की कोशिश कर रहे हैं। एक तरफ वे हिंदू और मुसलमानों के बीच शक की दीवार खड़ी करते हैं, और दूसरी तरफ वे ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों और प्रकृति की पूजा करने वाले सरना परंपरा के अनुयाइयों के बीच खाई पैदा कर रहे हैं।

दरअसल आदिवासी पहचान को धार्मिक आधार पर बांटकर उनका राजनीतिकरण किया जा रहा है। गौरतलब है कि झारखंड के आदिवासी लंबे से मांग कर रहे हैं कि उन्हें सरना के तौर पर माना जाए, लेकिन संघ परिवार की नजर में पिछड़े तबके के हिंदू हैं।

भोजन का अधिकार कार्यक्रम के लिए काम करने वाले एक युवा एक्टिविस्ट का कहना है कि, “जब हम बड़े हो रहे थे तो रांची अभिवादन के लिए नमस्ते या नमस्कार कहने का रिवाज था, लेकिन इसे बदलकर जय श्रीराम कर दिया गया। इससे पता चलता है कि समाज में क्या चल रहा है। अब तो माहौल और भी साम्प्रदायिक होताजा रहा है, खासतौर से मोदी के सत्ता में आने के बाद।”

वह बताता है कि, “इसके लिए प्रशासन को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। पहले अगर दशहरा और ईद या मुहर्रम एक साथ आते थे, तो सबको अपने तरीके से त्योहार मनाने की छूट थी। लेकिन अब तो मुश्किल से ही मुसलमान किसी त्योहार का जुलूस निकालते हैं, क्योंकि प्रशासन उनके सुरक्षा और रक्षा के लिए सामने आता ही नहीं है।”

ध्यान रहे कि जब से बीजेपी सरकार आई है झारखंड में लिंचिंग की 18 घटनाएं हुई हैं, जिनमें 11 लोगों की मौत हुई है। इतना ही नहीं केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने तो लिंचिंग में शामिल रहे दोषी लोगों का फूल-माला से स्वागत सम्मान भी किया है।

आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता जेवियर डियास कहते हैं कि, “गैर-आदिवासियों के प्रसार से पहले कई छोटी आदिवासी जातियां एक-दूसरे के इलाकों में आती-जाती रहती थीं। ये लोग एक दूसरे की भाषाएं नहीं समझते थे, लेकिन फिर भी कभी लिंचिंग की कोई घटना नहीं हुई। इनका मानना है कि एक चींटी में जीवन है और उसका भी महत्व है।”

वह बताते हैं कि, “इसके लिए दुनिया के वित्तीय पूंजीवाद को समझना होगा। ऐसे पूंजीवाद को अपने अस्तित्व के लिए लोकतंत्र और मानवाधिकारों को ध्वस्त करना होता है। पूरी दुनिया में चलन है कि इसका समर्थन करने वाले राजनीतिक दल सत्ता में आ रहे हैं। यहां ऐसे पूंजीवाद को बीजेपी और आरएसएस-वीएचपी जैसे उसके संगठनों की जरूरत है। ये संगठन सत्ता में रहते हुए समाज को बांटने का काम करते हैं। इसीलिए झारखंड में हिंदुत्व के नाम पर समाज को बांटा जा रहा है।”

डियास के मुताबिक, “जब से झारखंड में बाहरी लोगों का दखल बढ़ा है आदिवासियों और दलितों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हुई है। मैंने जमशेदपुर में 1979 का दंगा देखा है। लेकिन अब दंगाइयों ने अपनी रणनीति बदल दी है। वे अब समूहों के बजाय व्यक्तियों पर हमला करते हैं, ताकि एक खास समुदाय को संदेश पहुंच जाए।”

गौरतलब है कि 1979 में झारखंड जब बिहार का हिस्सा था जो जमशेदपुर में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे। तब भी संघ पर सवालिया उंगलियां उठी थीं, क्योंकि मुस्लिम मुहल्लों से राम नवमी का जुलूस निकालने की उसी ने कोशिश की थी।

उनके मुताबिक अब हो यह रहा है कि धार्मिक कामों के लिए चंदा मांगने वाले लड़को को अगर कोई इनकार कर दे तो वे सबसे पहले उसका धर्म पूछते हैं और उनका लहजा धमकी भरा होता है। डियास कहते हैं कि, “मोदी-शाह की यही उपलब्धि है।”

उन्होंने बताया कि बीजेपी सरकार कोशिश करती है कि एससी-एसटी और अल्पसंख्यक मतदान से दूर हे हैं। इससे सत्ता हिंदुत्ववादी ताकतों के हाथ में रहती है। वे सवाल पूछते हैं कि, “आखिर ग्राम सभाओं को क्यों खत्म किया जा रहा है? आखिर पीडीएस का पैसा काटकर गौरक्षकों को क्यों दिया जा रहा है?”

वे बताते हैं कि झारखंड में करीब 60,000 अर्धसैनिक बल हैं, लेकिन इन सबकों खूंटी, चतरा और पश्चिम सिंहभूम में तैनात किया गया है। उनका दावा है कि, “इन इलाकों में अर्धसैनिक बलों की मौजूदगी कश्मीर और फिलिस्तीन के औसत के बराबर है।”

झारखंड की में आदिवासियों की आबादी 27 फीसदी से गिरकर 23 फीसदी रह गई है। डियास के मुताबिक इसका कारण उच्च जाति के लोगों का दूसरे राज्यों से यहां आना है।

रांची विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले कर्मा ओरांव कहते हैं कि, “आदिवासियों के लिए यहां आने वाला हर व्यक्ति बाहरी है।“ वे बताते हैं कि, “सरना और आदिवासी ईसाई दोनों ही एक नस्ल के हैं। आरएसएस इन्हें बांटने की कोशिश कर रही हैं। आरएसएस लोगों को यह कहकर भटकाता है कि सरकारी योजनाओं का सारा फायदा ईसाई उठा रहे हैं।”

ओरांव बताते हैं कि, “आदिवासियों में वर्ण नहीं होता, लेकिन सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उन्हें वर्णों में बांटा जा रहा है।” वे दावा करते हैं कि, “अब झारखंड का वोटर सब समझ चुका है और कोई भी आदिवासियों की पहचान नष्ट करके यहां राज नहीं कर सकता।”

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