अज्ञानता और अफवाहों के अंधेरे को सूरज की किरन की तरह खत्म करने का उत्सव था जश्न-ए-रेख्ता
जश्न-ए-रेख्ता जहां उर्दू जुबान का जश्न था तो वहीं समाज के हर धर्म और हर तबके को एक मंच पर लाने का जरिया भी साबित हुआ। शायद इसीलिए कहा गया कि जश्न-ए-रेख़्ता समाज में वायरस से लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता बनाने का काम कर रहा है।
करीब आधा किलोमीटर लंबी लाइन और मोबाइल फोन पर दाखिले का क्यूआर कोड दिखाने के बाद जब राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट स्थित मेजर ध्यानचंद हॉकी स्टेडियम में उर्दू महोत्सव 'जश्न-ए-रेख़्ता' में पैर रखा तो वहां मौजूद जनसमूह और गहमागहमी का माहौल देखकर उम्मीद की एक किरण नजर आई। इस उत्सव ने लोगों के जहनों में जमा अज्ञानता और भ्रम की मुश्किलों को वैसे ही खत्म कर दिया जिस तरह सूरज की किरनें कोहरे को दूर कर देती हैं।
उर्दू जुबान को लेकर हुए किसी और आयोजन की गर्मजोशी कल्पना में भी नहीं आती। इस तीन दिन जश्न में मेज़बान और मेहमान दोनों ठेठ उर्दू वाले सेलिब्रेटी नहीं लगते, लेकिन सच्चाई यह है कि जश्न-ए-रेख़्ता सही मायने में उर्दू और उर्दू प्रेमियों का उत्सव है। कोविड महामारी के चलते लोग ऐसे समारोहों और उत्सव से महरूम थे, ऐसे में जश्न-ए-रेख्ता ने लोगों की उस महरूमी न सिर्फ दूर किया बल्कि उन्हें जानने और समझने का मौका और मकसद दोनों मुहैया कराया।
जश्न-ए-रेख़्ता में कितनी बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए, इसका हिसाब-किताब लगाना तो आंकड़े जमा करने वाले लगाते रहें, लेकिन इस जश्न में शामिल होने वाले तबके ने साफ संदेश दिया कि भारत महरूमी और मायूसी की जगह नहीं है और सांप्रदायिक राजनीतिक ताकतें चाहे कितनी कोशिश कर लें, उनकी पराजय इस हौसले के सामने निश्चित है। जश्न-ए-रेख्ता में उर्दू समझने वाले, न समझने वाले, उर्दू से प्यार करने वाले, उर्दू पहनने वाले और उर्दू की खुश्बू से सराबोर होने वाले जो लोग थे, वे हर तबके और हर धर्म से थे।
इस उत्सव में शामिल होने वाले 90 फीसदी युवा थे। ये युवा अपनी पसंद के परिधानों में थे। बुर्के से ढकी लड़कियां थी तो ऐसी लड़कियां भी थीं जिन्होंने जरूरत भर लिबास पहना था। लेकिन कोई उनके पहनावे पर टिप्पणी नहीं कर रहा था। किसी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था कि ये दकियानूसी पहनावे वालियां यहां क्या कर रही है या इन फिर आधुनिक परिधान पहने लोगों को उर्दू से क्या लेना देना।
प्रवेश द्वार के दाईं ओर एक सुंदर शामियाने से ढका एक मंच था, जिसका नाम 'दयार-ए-इज़हार' था। इस मंच पर युवा सभी तरह के भावों और भावनाओं को पेश कर रहे थे। प्रवेश द्वार के नजदीक ही जहां रेख़्ता के कार्यक्रम का ब्योरा रखा गया था, वहीं कई संस्थाएं किताबें भी बेच रही थीं। फिर स्टेडियम की गोलाकार दीवार के साथ से गुजरते हुए जहां बाईं ओर एक शामियाने के नीचे महफिल खाना यानी 'फेस्टिवल हॉल' था। इसमें हिंदी के लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास की शायरी और कविताएं थी तो कव्वाली और गायन से रस बह रहा था। साथ ही राजनीतिक और साहित्यिक चर्चाएं भी हो रही थीं। यहीं सैफ महमूद के साथ अभिनेता नसीरुद्दीन शाह और उनकी पत्नी रत्ना पाठक शाह दिल धड़कने का सबब शीर्षक से गंभीर मुद्दों पर चर्चा कर रहे थे।
इसी के दाईं तरफ 'सुखन जार' बना हुआ था जिसमें जावेद अख्तर का सफर, हास्य मुशायरा और मुजफ्फर अली के साथ शबाना आजमी की बातचीत और नोंकझोंक नजर आ रही थी।
उतस्व स्थल के केंद्र यानी बीच में एक बहुत बड़ी जगह में किताबों और खाने की दुकानें थी और आखिर में एक जगह 'बज़्म-ए-ख़याल' नाम का एक मंच था जहां उर्दू पत्रकारिता के 200 साल होने और दारा शिकोह पर चर्चा हो रही थी।
उत्सव के हर मंच और शामियाने में खुशी और गहन ज्ञान का एक झरना सा बह रहा था। लोग उर्दू वालों की बातें सुनकर खुश हो रहे थे। लोग मगन थे, उर्दू की मीठी चाशनी में डूबे, लजीज खानों का लुत्फ लेते और उत्सव के हरेक लम्हे को अपने अंदर समा लेना चाहते थे और हर पल को जी भर कर जीना चाहते थे। हिंदी के कवि कुमार विश्वास ने यूं तो बहुत सी बातें की और कई कविताओं के जरिए राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष भी किए, लेकिन उन्होंने रेख़्ता के बारे में एक बात कही कि जश्न-ए-रेख़्ता समाज में वायरस से लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता बनाने का काम कर रहा है।
जावेद अख्तर, ज़फर आगा, मुज़फ्फर अली, फरहत एहसास आदि को सुनने के बाद उर्दू का जो सम्मान बढ़ा है, वह युवा पीढ़ी के लिए एक प्रकाश स्तंभ है। कुमार विश्वास ने कहा कि उर्दू किसी मजहब की भाषा नहीं है और उन्होंने उर्दू से अपने रिश्ते को अपने तरीके से बताया कि उन्होंने महबूबा को मात देने के लिए जो कविताएं लिखीं, वे सिर्फ उर्दू में थीं। लोग गलतियां निकाल सकते हैं लेकिन जश्ने-ए-रेख़्ता न केवल उर्दू के लिए बल्कि आज के भारत के लिए उम्मीद की किरन है। जफर आगा ने ठीक ही कहा है कि उर्दू जीवन का प्रतीक और न्याय की भाषा है।
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