महाराष्ट्र: शिंदे सरकार का जनसुरक्षा अधिनियम से अर्बन नक्सल के नाम पर क्या विपक्ष को डराने का है इरादा!
इस अधिनियम को महायुति सरकार के चुनावी हथकंडे के रूप में देखा जा रहा है। ध्यान रहे कि हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में महायुति को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है, और विधानसभा चुनावों के बाद राज्य के सत्ता परिवर्तन के भी कयास लग रहे हैं।
महाराष्ट्र सरकार ने स्पेशल पब्लिक सिक्यूरिटी बिल यानी विशेष जन सुरक्षा अधिनियम पेश किया है। कहा जा रहा है कि इस बिल के जरिए किसी को भी अर्बन नक्सल घोषित कर सकती है। वैसे तो इस बिल पर अभी विधानसभा में न तो कोई चर्चा हुई है और न ही इसे पारित किया गया है, फिर भी विधानसभा चुनावों से महज तीन महीने पहले लाए गए इस बिल का तीखा विरोध हो रहा है। महाराष्ट्र में अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने हैं।
यहां मुद्दा यह है कि इस बिल को लाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या महाराष्ट्र में नक्सली गतिविधियों में वृद्धि हुई है? जवाब है न। क्या नक्सलियों की मदद करने वाले या उन्हें पनाह देने वाले लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं? इसका जवाब भी न ही है। और अगर ऐसा है तो इसके कोई सबूत तो सामने नहीं आए हैं। तो फिर इस बिल को ऐन चुनाव से पहले लाने का मकसद क्या है। कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि बिल के जरिए विपक्ष दलों पर दबाव डालना मकसद है ताकि उन्हें पुलिस को अधिकार देकर प्रताड़ित किया जा सके। वैसे तो बिल पर चर्चा के बाद विधानसभा से ही पारित किया जाना है, लेकिन इसे अध्यादेश के माध्यम से भी अमल में लाया जा सकता है। लेकिन फिर इसे 6 महीने के अंदर कानून बनाना होगा। अगर ऐसा होता है तो पुलिस के असीमित अधिकार मिल जाएंगे जिसके आधार पर वह किसी भी संगठन को अवैध घोषित कर उससे जुड़े लोगों को प्रताड़ित कर सकेगी।
कई वकीलों और एक्टिविस्ट ने इस बिल में दी गई परिभाषाओं पर भी सवाल उठाए हैं, जिसके मनमाने अर्थ निकाले जा सकते हैं। बिल में खतरनाक, शांति व्यवस्था और कानून व्यवस्था के लिए खतरा आदि को परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे पुलिस को अपने तरीके से इसका इस्तेमाल करने की शक्ति मिल सकती है।
इस बिल में हालांकि व्यवस्था दी गी है कि एक सलाहकार बोर्ड पुलिस कार्रवाई की निगरानी करेगा, और इस बोर्ड में किसी भी मौजूदा या सेवानिवृत जज को शामिल किया जाएगा। इस व्यवस्था के चलते पुलिस अपने पसंदीदा लोगों को इस सलाहकार परिषद में रख सकती है।
इस अधिनियम के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता कॉलिन गोंजाल्विस ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा कि अगर मैं किसी सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहा हूं या किसी पेड़ को काटे जाने का विरोध कर रहा हूं या किसी अन्य पर्यावरण के मुद्दे पर प्रदर्शन कर रहा हूं, पुलिस मुझे गिरफ्तार कर लेगी और तीन साल के लिए जेल में डाल देगी। भले ही मैं कहता रहूं कि प्रदर्शन में शामिल कुछ लोगों को मैं नहीं जानता था लेकिन मेरी बात नहीं सुनी जाएगी क्योंकि मुझे किसी संदिग्ध संगठन का हिस्सा मान लिया जाएगा। उन्होंने लिखा है कि इस अधिनियम के जरिए लोगों की बोलने की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इस बिल में शामिल सारे प्रावधान यूएपीए और एनएसए में पहले से ही मौजूद हैं।
तो फिर आखिर इस बिल की जरूरत क्यों है? याद करिए कि भीमा-कोरेगांव केस में पुणे पुलिस ने कैसे मुंबई, दिल्ली, नागपुर और रांची में छापे मारकर 2018 में तमाम लोगों को गिरफ्तार किया था। उन पर वाम विचारधारा के चरमपंथियों की मदद करने का आरोप था। पुलिस को प्रोफेसर जी एन साइबाबा, फादर स्टैन स्वामी, वकील सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा और लेख आनंद तेलतुम्बडे जैसे लोगों को गिरफ्तार करने के लिए किसी नए कानून की जरूरत नहीं पड़ी थी। इन सभी लोगों पर अभी तक मुकदमा शुरु नही हुआ है और इन्हें अर्बन नक्सल कहा जा रहा है। लगातार इन्हें जमानत देने से इनकार किया जा रहा है। पुलिस ने अपनी कथित जांच के दौरान एक पत्र की भी बात की थी जिसमें दावा किया गया था कि इस पत्र में प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश का जिक्र था।
इस बिल के बारे में महाराष्ट्र में सीपीएम के सचिव उदय सरकार का कहना है कि महाराष्ट्र में शिंदे-फडणविस-अजित पवार सरकार सिर्फ विपक्षी दलों पर दबाव बनाने के लिए इस बिल को लेकर आई है। इसी तरह नेशनल अलाएंस ऑफ पीपुल्ल मूवमेंट (एनएपीएम) ने भी बिल का विरोध किया है। एनएपीएम ने कहा है कि इस बिल का मकसद अपराध रोकना नहीं बल्कि लोगों को डराना है।
इस अधिनियम को महाराष्ट्र राज्य के मकोका (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट) से भी ज्यादा कठोर माना जा रहा है। विपक्ष के तीखे विरोध के चलते फिलहाल यह अधिनियम विधानसभा में पारित नहीं हुआ है। इस बारे में पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस विधायक पृथ्वीराज चव्हाण के साथ विपक्ष के नेता विजय वडेट्टिवार ने इसे जनविरोधी और लोगों की आवाज दबाने वाला अधिनियम बताया है।
राजनीतिक तौर पर इस अधिनियम को महायुति सरकार के चुनावी हथकंडे के रूप में देखा जा रहा है। ध्यान रहे कि हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में महायुति को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है, और विधानसभा चुनावों के बाद राज्य के सत्ता परिवर्तन के भी कयास लग रहे हैं।
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