क्या कोल इंडिया को बदनाम कर निजीकरण का बहाना खोज रही है सरकार, आखिर क्या है कोयले की कमी के पीछे का काला सच!
सरकार अगर कोल इंडिया को निजी क्षेत्र को सौंपने से पहले इसे बदनाम करना चाहती है, तो उसे सबसे पहले यह जानना चाहिए कि इसका राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया। कोयला क्षेत्र में रिसर्च, सुरक्षा, आधुनिकीकरण और योजना बनाने की कुशलता भारतीय निजी क्षेत्र में नहीं है।
अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में लगभग पूरे देश में ही लोग चिंतित रहे कि पता नहीं, कब बिजली चली जाए और घंटों बाद लौटे। अफसर कहते रहे कि कोयले की कमी है और इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करने की हर संभव कोशिश की जा रही है। राज्य सरकारें केन्द्र से जल्द-से-जल्द कदम उठाने की गुहार लगाने लगीं। भाजपाई मुख्यमंत्री भी अपने यहां बिजली की स्थिति पर आपातकालीन बैठकें करने लगे। लेकिन केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल, आर के सिंह, प्रह्लाद जोशी और निर्मला सीतारमण एक सुर में कहते रहे कि कोयले की कोई कमी नहीं है। अब तक तो कोई गंभीर स्थिति पैदा नहीं हुई है लेकिन यह देखने की बात है कि इस सिलसिले में ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं या नहीं कि आने वाले दिनों में सचमुच कोई संकट नहीं हो।
कुछ बातें ध्यान में रखने की हैं। कोयले की कमी के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) को जिम्मेदार माना जा रहा है। बिजली कंपनियों पर इसका 20,000 करोड़ बकाया है। बिजली वितरण करने वाली कंपनियों पर बिजली बनाने वाली यूनिटों का 1,10,000 करोड़ रुपये बकाया है। रेलवे और कोयला खदानों वाले राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के बीच समन्वय खत्म हो गया लगता है। तब भी, कोई वजह नहीं है कि देश में कोयला या बिजली संकट की स्थिति बने।
1947 से 2004 के बीच बिजली बनाने की जितनी क्षमता हासिल की जा सकी, उससे कहीं अधिक क्षमता 2004 से 2012 के बीच विकसित की गई। फिर भी, ये पूरी क्षमता में इसलिए उत्पादन नहीं किया जा रहा था कि उतने की मांग नहीं थी। कोयले की कृत्रिम कमी निजी कंपनियों और आयातकों को लाभ पहुंचाती है। इस बात को छिपाया गया कि सरकार को ज्यादा अंशदान देने का सीआईएल पर दबाव बनाया गया और खनन से इतर क्षेत्रों में इसके नकद भंडार को खर्च किया गया। सीआईएल के पास नए खनन या वर्तमान खनन क्षेत्र के विस्तार के लिए कोई राशि नहीं बची।
सीआईएलऔर इसकी सहायक कंपनियों में सरकार ने बड़े पदों पर कई पद खाली रखे हुए हैं। इसमें पूर्ण कालिक चेयरमैन ही एक साल से नहीं है। इससे यह आशंका बढ़ी कि सरकार सीआईएल और इसकी संपत्तियों का निजीकरण करना चाहती है। सीआईएल के पास 2015 में 40,000 करोड़ का नकद भंडार था जो 2019-20 में घटकर सिर्फ 8,000 करोड़ रह गया। 2016 में इसके शेयर के रेट 400 रुपये थे जो अभी लगभग आधे रह गए हैं। इसे तीन उर्वरक इकाइयों में निवेश के लिए बाध्य किया गया और एक पूर्व कोयला सचिव ने दावा किया कि इसके खनन मैनेजरों को शौचालयों के निर्माण का निरीक्षण करने को कहा गया।
सरकार अगर निजी क्षेत्र को सौंपने से पहले इसे बदनाम करना चाहती है, तो उसे सबसे पहले यह जानना चाहिए कि इसका राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया। कोयला क्षेत्र में रिसर्च, सुरक्षा, आधुनिकीकरण और योजना बनाने की कुशलता भारतीय निजी क्षेत्र में नहीं है। सीआईएल अब भी देश के 80 प्रतिशत कोयले की आपूर्ति कर रही है। इसे निजी क्षेत्र को सौंपना आत्मघाती होगा।
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