युवाओं को रोजगार देने में सरकार की नाकामी कहीं विनाशकारी न बना दे युवा आबादी का लाभ

लगभग 1.3 करोड़ लोग हर साल भारत के कार्यबल में शामिल होने के योग्य हो जाते हैं, लेकिन विंडबना है कि हर 10 स्नातकों में से केवल एक ही रोजगार योग्य है।

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आदित्य आनंद

जो विशाल आबादी भारत की मजबूती हो सकती थी, वह विनाशकारी न भी हो तो, कमजोरी तो बन ही गई है। इसकी तमाम वजहें हैं- खराब स्कूली शिक्षण और प्रशिक्षण, सामाजिक अशांति और सांप्रदायिक दुराव तथा बढ़ता बहुसंख्यवाद। ये सब निवेश के माहौल और रोजगार अवसर के लिए रुकावटें खड़ी कर रहे हैं। ऐसे में, अगर संभावित विनाश को टालना है तो इस चक्रव्यूह से निकलना होगा। वैसे भी, अगले साल भारत आबादी के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ने वाला है।

2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में तब 58.3 फीसद आबादी 29 साल से कम वालों की थी। 2021 में यह घटकर 52.9 हुई और 2036 में इसके और भी गिरकर 42.9 फीसद हो जाने का अनुमान है। फिर भी हमारे पास युवाओं की अच्छी-खासी आबादी है और यह आगे भी रहने वाली है। लेकिन चिंता की बात है कि वे या तो रोजगार पाने के काबिल नहीं या उनके लिए हमारे पास रोजगार नहीं। कह सकते हैं कि भारत के सामने ‘जनसांख्यिकीय आपदा’ खड़ी है।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, अगले साल भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी। हालांकि सीएमआईई (सेटेंर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के महेश व्यास इसमें फायदा देखते हैं। इंडिया स्पेंड से साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘ऐसा कई पीढ़ियों में एक बार होता है जब आपके सामने ऐसी खिड़की खुले जिसमें इतनी बड़ी आबादी कामकाजी लोगों की हो।’ युवाओं को रोजगार मिलता है तो उनकी घरेलू आय, खपत और मांग के साथ-साथ बचत भी बढ़ती है और यह अर्थव्यवस्था को गति देता है।

पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने हाल के कॉलम में रोजगार की बुरी हालत और उसके सामाजिक असर का जिक्र किया है। उन्होंने कहा है कि भारत में एक चौथाई लोगों के पास किसी तरह का कोई निजी परिवहन-साधन नहीं, साइकिल भी नहीं। 75 फीसद के बूते में एयर कूलर या एयर कंडीशनर नहीं। स्मार्ट फोन और पर्सनल लैपटॉप 70 फीसद आबादी तक पहुंच भी नहीं सके हैं।

शिक्षा की भी स्थिति चिंताजनक है। जबकि मध्यम वर्ग के बच्चों की जरूरतों को कुछ खर्च करने पर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और कोटा की कोचिंग फैक्टरी पूरा कर देते हैं, ग्रामीण इलाकों और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों की विशाल संख्या पीछे छूट जाती है। अच्छे शिक्षकों और डॉक्टरों की हर जगह मांग है लेकिन सरकार इस जरूरत को पूरा करने में असमर्थ है।

वायु सेना ने हाल ही में अपनी पीठ थपथपाते हुए बयान दिया कि अग्निवीरों के 3,000 पदों के लिए 17 से 21 वर्ष आयु के रिकॉर्ड 7.5 लाख युवाओं ने आवेदन किया। साफ है, बयान का अंतर्निहित संदेश यह था कि देखो, ‘अग्निपथ’ योजना कितनी लोकप्रिय है। सरकारी नौकरियों के लिए इस तरह लोगों का उमड़ना कोई हैरानी की बात नहीं क्योंकि इन्हें ऐसी नौकरी के तौर पर देखा जाता है जिसमें सामाजिक सुरक्षा होती है और अगर पेंशन न भी मिले तो समय पर वेतन तो मिल ही जाए। जैसा कि रेलवे भर्ती के दौरान हुए दंगों में हमने देखा, बड़ी संख्या ऐसे आवेदकों की थी जिनकी योग्यता पद के हिसाब से काफी अधिक थी। कुछ ने तो पीएचडी भी कर रखी थी। लेकिन सरकार के थिंक-टैंक को नीति आयोग को बेरोजगारी की स्थायी समस्या का हल अस्थायी रोजगार से करने का भरोसा है। उसे उम्मीद है कि 10 साल में अस्थायी रोजगार अवसरों से नौ करोड़ लोगों को काम मिल सकेगा। अभी यह आंकड़ा 80 लाख से 1.8 करोड़ है।


आयोग का कहना है कि ‘न्यू एज वर्कफोर्स’ कंस्ट्रक्शन, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, लॉजिस्टिक्स और ट्रांसपोर्टेशन क्षेत्र में काम करेगा। आयोग जो बात छिपा रहा है, वह यह है कि ये नौकरियां कम मेहनताने वाली होंगी और इनमें न कोई सामाजिक सुरक्षा होगी न बीमा, इलाज वगैरह की सुविधाएं और ये कर्मचारी के तरक्की के लिहाज से भी निराशाजनक ही होंगी।

सीएमआईई ने कहा है कि अकेले जून, 2022 में वेतनभोगी नौकरियों में 25 लाख कमी का अनुमान है जबकि नौकरियों का नुकसान छोटे व्यापारियों और दैनिक वेतन भोगियों को हुआ। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि जून में कामकाजी उम्र की 36 फीसद से भी कम आबादी नौकरी में थी।

विश्व आर्थिक मंच के आंकड़ कहते हैं कि भारत में हर साल करीब 1.3 करोड़ लोग कार्यबल में शामिल होते हैं। लेकिन चार में से केवल एक मैनेजमेंटे प्रोफेशनल, पांच में से एक इंजीनियर और हर 10 स्नातकों में केवल एक रोजगार के काबिल होते हैं। हम जिन स्थितियों का सामना कर रहे हैं, उनमें नौकरी छूटना एक हकीकत है। यहां तक कि महामारी के दौरान जिन स्टार्ट-अप्स ने बड़ी संख्या में लोगों को काम दिया, अब वे भी लोगों को निकाल रहे हैं। स्टार्टअप के 11,000 से ज्यादा कर्मचारियों ने हाल ही में नौकरियां खो दीं और अंदाजा है कि वर्ष के अंत तक यह संख्या 60,000 तक पहुंच सकती है।

द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से पता चलता है कि मई 2022 में 2.61 करोड़ ग्रामीण परिवारों ने मनरेगा के तहत काम का लाभ उठाया। न केवल यह संख्या वर्ष 2021 की समान अवधि में योजना के तहत काम पाने वाले परिवारों की संख्या (2.22 करोड़) से अधिक है बल्कि यह महामारी से पहले के आंकड़ों से भी काफी अधिक है। मई, 2019 के दौरान मनरेगा के तहत काम पाने वाले परिवारों की संख्या 2.1 करोड़ थी।


अर्थशास्त्री और ऐक्टिविस्ट अजीत अभ्यंकर कहते हैं, ‘भारत के दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने पर बहुत गर्व करने वाली सरकार के समय देश अनिश्चितताओं से घिरा दिखता है।’ एक ओर तो आम लोग परेशान हैं क्योंकि आय कम हो रही है, नौकरी जा रही है और महंगाई बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर सरकार ने जान-बूझकर मुंह फेर रखा है।’ उधर, निजी क्षेत्र की अपनी मजबूरी है। उसका कहना है कि वह ऐसे लोगों को रोजगार नहीं दे सकता जिनके पास उसके काम का हुनर नहीं।

गोवा के शिक्षाविद डॉ मनोज कामत कहते हैं, यह अपने आप में अजीब स्थिति है कि कंपनियां अपने काम के लोगों की तलाश करते थक रही हैं और युवा नौकरी खोजते। कुशल लोगों की कमी चिंताजनक है। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) समर्थित एनजीओ ‘टूरिज्म एंड हॉस्पिटैलिटी स्किल काउंसिल’ का भी कहना है कि भारतीय हॉस्पिटैलिटी सेक्टर व्यवसाय लगभग 3,50,000 कर्मचारियों की कमी का सामना कर रहा है।

गोवा ट्रैवल एंड टूरिज्म इंडस्ट्री एसोसिएशन के राल्फ डिसूजा कहते हैं, ‘व्यवसाय के वापस सामान्य होने के बाद हुनरमंद लोगों की मांग बढ़ रही है। लेकिन महामारी के दौरान नौकरी खो चुके कई कर्मचारी अब वापस नहीं आना चाहते।’ बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा, ‘अगर सरकार के दावे के मुताबिक बेरोजगारी कम हो रही है तो खपत में वृद्धि होनी चाहिए थी।’ सबनवीस का कहना है कि कॉरपोरेट सेक्टर में भी नौकरियां कम हुई हैं। इसके अलावा श्रम बल की भागीदारी दर भी 2016 में 47 फीसद के मुकाबले 2021 में घटकर 40 हो गई है। वह कहते हैं, ‘हॉस्पिटैलिटी सेक्टर या मॉल आज क्या पहले जितने लोगों को काम पर रख रहे हैं? संभवतः नहीं।

सबनवीस कहते हैं कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर ने ऑफिस असिस्टेंट, कैंटीन स्टाफ जैसे तमाम रोजगारों का गला घोंट दिया है। बैंक चाहते नहीं कि ग्राहक शाखा में आएं। वे चाहते हैं कि लोग घर बैठे ही इंटरनेट बैंकिंग से काम चलाएं। केवल मैन्युफैक्चरिंग ही ऐसा क्षेत्र है जिसमें लोगों के लिए फैक्टरी में जाकर काम करना जरूरी होता है। कह सकते हैं कि तकनीक लोगों की जगह लेकर उन्हें बेकार करती जा रही है। सबनवीस के मुताबिक, भारत जैसे विशाल देश में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स का बढ़ता चलन बेहद खतरनाक साबित होने जा रहा है।

जाने-माने अर्थशास्त्री और 14वें वित्त आयोग के सदस्य डॉ. एम. गोविंदा राव कहते हैं- ‘ ज्यादातर वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में आई है जो कम रोजगार देते हैं।’ इसके बाद भी शहरों में आपको अच्छे इलेक्ट्रिशियन या कारपेंटेर नहीं मिलेंगे। कहना मुश्किल है कि भारत का गुस्साया युवा वर्ग कब तक उम्ममीद या धैर्य नहीं खोता।

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