लॉकडाउन आंशिक तौर पर खुला भी तो लाखों भूखे-बेरोजगार मजदूरों का जीवन कैसे लौटेगा पटरी पर !
देश के उन हिस्सों में जहां छोटी बड़ी औद्योगिक ईकाइयां हैं वहां अब भुखमरी और दूसरी विपदाओं ने नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं। देश के कई भागों में परिवार का पेट भरने के लिए पैसे के संकट से आत्महत्याओं के बढ़ते सिलसिले ने विशेषज्ञों व श्रम संगठनों को चिंतित कर दिया है।
चार सप्ताह के लॉकडाउन को 20 अप्रैल से चरणबद्ध तरीके से खोलने पर फैसला लेने के लिए राज्यों को दी गई अटॉनमी भले ही कुछ राहत लेकर आ सकती है लेकिन इस कदम से देश भर के सभी प्रदेशों में विस्थापित श्रमिकों की समस्याओं का निदान नहीं निकलने वाला। देश के उन हिस्सों में जहां छोटी बड़ी औद्योगिक ईकाइयां हैं वहां अब भुखमरी और दूसरी विपदाओं ने नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं। देश के कई भागों में परिवार का पेट भरने के लिए पैसे के संकट से आत्महत्याओं के बढ़ते सिलसिले ने विशेषज्ञों व श्रम संगठनों को चिंतित कर दिया है।
केंद्र व राज्य सरकारों के इन दावों के बाद भी कि तालाबंदी के बीच लोगों को भूखे नहीं रहने दिया जाएगा एकदम थोथा साबित हुआ है। समस्या इतनी भर नहीं कि चरणबद्ध तरीके से आर्थिक गतिविधियां दोबारा खोलने की घोषणा मात्र करने सब कुछ ठीक हो जाएगा। देश की प्रमुख ट्रेड यूनियनों को इस बात से निराशा है कि लॉकडाउन के साथ ही रातों रात नौकरी से निकाले गए श्रमिकों को फौरी क्षतिपूर्ति के तौर पर उनके खातों में पहले से ही केंद्र सरकार की ओर से कम से कम 5000 रुपए प्रति श्रमिक के हिसाब से धन आबंटित करने की व्यवसथा कर दी जाती तो उन्हें सरकार के मंसूबों पर कुछ भरोसा होता।
सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) महासचिव व पूर्व राज्यसभा सांसद तपन सेन कहते हैं, "श्रमिकों ने तो कोरोना नहीं फैलाया था। विदेशों से आने वाले लाखों लोगों को सरकार ने वक्त रहते आने से नहीं रोका। केंद्र सरकार की इस लापरवाही की कीमत श्रमिकों ने चैतरफा चुकाई। पहले रोजगार छिना। फिर उनके रहने के ठिकाने और घर व गांव वापस जाने के लिए रेल व सड़कों से जाने की सुविधा इसके पहले ही छीन ली।" सेन कहते हैं कि देशभर के शहरों व औद्योगिक क्षेत्रों से श्रमिकों व उनके परिजनों द्वारा बड़ी तादाद में आत्महत्याओं की घटनाओं को रोका जा सकता था अगर सबके खातों में एक माह के लॉकडाउन के हिसाब से सरकार कुछ पैसा डाल देती।
विशेषज्ञों व श्रमिक संगठनों में इस बात पर भी गहरा रोष है कि केंद्र सरकार की राज्यों के साथ समन्वय बनाकर चलने की नसीहत देकर केंद्र सरकार द्वारा अपने दायित्वों से पीछे हटने की पैंतरेबाजी से अधिक कुछ नहीं। पूर्व रेल मंत्री व तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद दिनेश त्रिवेदी कहते हैं, "आर्थिक गतिविधियां बिना विस्थापित श्रमिकों की मजबूत भागीदारी के बिना कैसे मुमकिन होंगी।" बकौल उनके किसी भी देश की तरक्की को इस बात से भी आंका जाता है कि वह अपने देश के गरीबों व श्रमिकों के हितों का कितना ख्याल रखते हैं। कोरोना के त्रस्त चीन, रूस, और यूरोप के देशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने के लिए हमारी सरकार ने झटपट से विशेष विमान भेज दिए लेकिन अपने देश में लाखों की तादाद में फंसे भूखे प्यासे मजदूरों व गरीबों के लिए जो सबसे ज्यादा जरूरतमंद थे उनको सड़कों पर मरने के लिए लावारिस छोड़ दिया। सरकार को दिसंबर से ही पता था कि पड़ोसी चीन से कोविड-19 का खतरनाक वायरस एक न एक दिन भारत में दस्तक जरूर देगा। हैरत यह है कि सबसे पहले रेल गाड़ियां बंद कर दी गईं। अब सबसे पहले विशेष रेलें चलाई जाएं व जो श्रमिक रोजगार छिन जाने से दर दर भटक रहे हैं, वे जहां जाना चाहें उन्हें वहां जाने के लिए रेल व सड़क यातायात की सुविधाएं दी जाएं।
भारत में इतनी बड़ी महामारी के बाद भी अगर किसी राज्य सरकार ने अपने यहां कार्यरत श्रमिकों का अधिकतम ख्याल रखा है तो वह केरल है। जहां राज्य सरकार ने रोजगार खत्म होने के बावजूद बाहरी प्रदेशों के श्रमिकों को अपने ही राज्य में रहने, खाने और भूख से बचाव के साथ ही मनोरंजन की भी सुविधाएं देकर राज्य में ही रोकने में कुछ हद तक सफलता पायी है। केरल मूल की वरिष्ठ पत्रकार लिज मैथ्यु कहती हैं, "केरल में बाहरी प्रदेशों से आए श्रमिकों के लिए आदरपूर्वक शब्द इजाद किया गया है "गेस्ट श्रमिक" का। जब मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को इस शब्द को प्रयोग में लाने का निर्देश दिया तो कोरोना वायरस के इस बुरे दौर में गेस्ट श्रमिक शब्द नई संस्कृति का हिस्सा बन गया।"
लॉकडाउन खोले जाने के पहले चरण की भी बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों में, कृषि उत्पाद से जुड़ी फैक्ट्री यूनिटों, सूचना प्रौद्योगिकी, हार्डवेयर, ई-कॉर्मस कंपनियों को खोलने की शुरुआत इतनी आसान नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि समूची आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाने का सीधा असर गांवों की इकॉनमी पर पड़ रहा है। शहरों से पलायन कर गांवों में पहुंचे श्रमिक स्थायी व बेहतर रोजगार की गारंटी के बिना वापस शहरों या औद्योगिक ईकाइयों में नहीं लौटना चाहेंगे। जाने माने किसान नेता बीएम सिंह कहते हैं कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा रोजगार की गुंजाइश है लेकिन इसके लिए पहले किसानों को मजबूत और सक्षम बनाना होगा ताकि वे गांवों में भी रोजगार के नए अवसर खोलने के लिए उत्साहित हो सकें।
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