आखिर कैसे महाशक्तियों के दंभ का कब्रिस्तान बन गया अफगानिस्तान!
अफगानिस्तान बड़ी-बड़ी ताकतों का कब्रिस्तान बन चुका है। पहले अंग्रेज हारे, फिर रूसी और अब अमेरिकी। तालिबान के काबिज होने के बाद भी पंजशीर घाटी में विरोध से साफ है कि तालिबान के खिलाफ माहौल था। लेकिन इसका फायद नहीं उठाया गया।
अफगानिस्तान में जितनी आसानी से सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। पिछले रविवार को न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया कि तीन अनुमान- समय, मनोबल और भरोसा- गलत साबित हुए। टाइम्स की एक और रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान 2001 में तबाह हो चुके थे और वे अंतरिम राष्ट्रपति हामिद करजई से समझौता करना चाहते थे। उनकी कोई मांग नहीं थी। वे केवल आम-माफी चाहते थे। तब अमेरिका मानता था कि समर्पणकारी से कैसा समझौता? इनका सफाया करना है। उसके बीस साल बाद अमेरिका ने ऐसा समझौता किया जिसे अपमानजनक और अफगान जनता से विश्वासघात माना जा सकता है।
तालिबान की ताकत
टाइम्स की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि तालिबान को इतनी ताकत कहां से मिली जो उसने बीस साल की जमी-जमाई व्यवस्था को उखाड़ फेंका। बीस साल पहले तालिबान के आर्थिक और सैनिक-स्रोतों को बंद कर दिया गया था। फिर भी वे इतने ताकतवर बन गए कि अपने से चार गुना बड़ी और आधुनिक हथियारों से लैस सेना को हराने में कामयाब हो गए। अमेरिकी सांसद स्टीव कैबॉट ने 22 अगस्त को कहा कि पाकिस्तानी आईएसआई ने तालिबान की जबरदस्त मदद की है। यह तो स्पष्ट है कि तालिबान से समझौता पाकिस्तानी मध्यस्थता से हुआ है। पाकिस्तानी सरकार और मीडिया ही तालिबानी विजय के प्रति पूर्ण आश्वस्त नजर आते थे।
जो बाइडेन के सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने एनबीसी टीवी से कहा, काबु का पतन ‘अवश्यंभावी’ नहीं था। अफगान सरकार ने उस क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया जो अमेरिका ने तैयार की थी। हम दस-बीस साल और रुके रहते, तब भी अफगान सेना अपने बूते देश को बचाने में कामयाब नहीं होती। पर सेंटर फॉर अ न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी के सीईओ रिचर्ड फोंटेन का कहना है, अंतरराष्ट्रीय सेना की मामूली-सी उपस्थिति से जिसमें अमेरिका की भागीदारी बहुत छोटी थी, तालिबान को हराना संभव नहीं था, पर अफगान सरकार को गिरने से बचाया जा सकता था।
जल्दबाजी क्यों?
भागने की ऐसी जल्दी क्या थी? पिछले सात दशक से कोरिया में अमेरिकी सेना जमी है या नहीं जबकि दक्षिण कोरिया अपने आप में इतना समर्थ है कि उत्तर कोरिया को संभाल सके। सवाल तब खड़े हुए थे जब 1 जुलाई को अमेरिकी सेना ने बगराम एयर बेस को स्थानीय प्रशासन को जानकारी दिए बगैर अचानक खाली कर दिया। आसपास के लोग सामान लूटने के लिए पहुंचे, तब अफगान सेना को पता लगा।
न्यूयॉर्क टाइम्स का विश्लेषण अर्धसत्य है। टाइम्स के अनुसार, अमेरिका को लगता था कि उसके पास काफी समय है। अफगान सेना को लेकर अनुमान गलत साबित हुआ। अशरफ गनी पर हमने बहुत ज्यादा भरोसा किया। बाइडेन ने जब फौजों की वापसी की घोषणा की, उसके दो हफ्ते बाद 24 अप्रैल को पेंटागन ने अपने प्लान को अंतिम रूप दे दिया था। पेंटागन ने कहा कि हम बचे-खुचे 3,500 सैनिकों को 4 जुलाई तक निकाल सकते हैं। बाइडेन ने जो तारीख तय की थी, उसके दो महीने पहले।
इस बैठक में इंटेलिजेंस का अनुमान था कि अफगान सेना तालिबान को एक से दो साल तक रोक कर रख सकती है। चार महीने के भीतर सारी योजना धराशायी हो गई। व्हाइट हाउस की 50 से ज्यादा बैठकों का नतीजा सिफर रहा। पिछले महीने 8 जुलाई को एक अमेरिकी रिपोर्टर ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से पूछा था, क्या तालिबान का आना तय है? उन्होंने जवाब दियाः नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अफगानिस्तान के पास अच्छी तरह प्रशिक्षित और हथियारों से लैस तीन लाख से ज्यादा सैनिक हैं।
टूटा मनोबल
अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के विशेषज्ञ मैक्स बूट ने सवाल किया है कि अमेरिका ने करीब 83 अरब डॉलर खर्च करके जिस सेना को खड़ा किया, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर क्यों गई? फिर कहा कि इसका जवाब नेपोलियन बोनापार्ट की एक उक्ति में छिपा है, ‘युद्ध में नैतिक और भौतिक के बीच का मुकाबला दस से एक का होता है।’ अफगान सेना ने पिछले बीस साल में एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिका का हाथ पकड़कर काम करना सीखा था। अमेरिकी सेना की अचानक वापसी से वह बुरी तरह हतोत्साहित थी।
मनोबल टूटने की शुरुआत फरवरी, 2020 से हुई जब ट्रंप प्रशासन ने अफगानिस्तान के लिए विशेष दूत जलमय खलीलजाद को नियुक्त किया और अफगानिस्तान सरकार को हाशिये पर रखकर तालिबान से सीधी बातचीत शुरूकी। इससे तालिबान का हौसला बढ़ा। उन्हें विजय की गंध आने लगी। उधर, अशरफ गनी के प्रशासन के भीतर अंदरूनी टकराव था जो बढ़ गया।
कोई योजना नहीं
वैश्विक-मीडिया में यह बात बार-बार कही जाती है कि अफगानिस्तान बड़ी-बड़ी ताकतों का कब्रिस्तान साबित हुआ है। पहले अंग्रेज हारे, फिर रूसी और अब अमेरिकी। ध्यान दें, इस बार तालिबान ने अफगानों को हराया है। तालिबान के काबिज होने के बावजूद नागरिकों के प्रतिरोध और खासतौर से पंजशीर घाटी को देखते हुए लगता है कि तालिबान के खिलाफ माहौल था। उसका मोर्चा बनाने की कोशिश नहीं की गई। अमेरिकी सेना के एक रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल एच आर मैकमास्टर का कहना है कि हमने पराजय का वरण किया और अफगान नागरिक हमारे किए का परिणाम भुगत रहे हैं।
अमेरिकी सैनिक ही नहीं, सहयोगी देशों के आठ हजार सैनिक और ठेके पर काम करने वाले अठारह हजार कर्मी भी चले गए जो रख-रखाव और लॉजिस्टिक्स में मदद करते थे। अफगान सेना को लगा, वह निहत्थी हो गई है। मनोबल ही नहीं टूटा, वह दूर-दराज चौकियों तक रसद-पानी पहुंचाने में भी असमर्थ हो गई। कुछ यूनिटों ने आखिर तक लड़ा, पर उन्होंने निरुद्देश्य जान देने के बजाय हट जाने में ही भलाई समझी।
ट्रेनिंग पर भी हैं सवाल
भारतीय मिलिट्री इंटेलिजेंस के पूर्व डायरेक्टर जनरल आर के साहनी ने एक वीडियो-चर्चा में कहा कि जब शुरू में अफगान सेना के गठन की बात चल रही थी, तब हमसे भी सलाह ली गई। हमारी सलाह थी कि परंपरागत सेना के सभी अंग इसमें होने चाहिए। पर अफगान सेना एंटी-इनसर्जेंसी फोर्स के रूप में गठित की गई। वह ज्यादा से ज्यादा पैरा-मिलिट्री फोर्स थी। वॉशिंगटन पोस्ट के अफगान पेपर्स प्रोजेक्ट में सेना और पुलिस कर्मियों की संख्या 3,52,000 दर्ज है जबकि अफगान सरकार ने 2,54,000 की पुष्टि की। कमांडरों ने फर्जी सैनिकों की भरती कर ली और उन सैनिकों के हिस्से का वेतन मिल- बांटकर खा लिया। इस भ्रष्टाचार को रोकने में अमेरिका ने भी दिलचस्पी नहीं दिखाई।
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