गन्ने का बकाया, महंगी बिजली और कर्ज की मार से परेशान यूपी के किसान आ डटे हैं गाजीपुर बॉर्डर पर
किसान आंदोलन जारी है। सरकार के साथ शनिवार को हुई बातचीत भी बेनतीजा रही। अगली बैठक अब 9 दिसंबर को होगी। इस बीच दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर यूपी और उत्तराखंड के किसानों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है। ये किसान गन्ने के बकाए, महंगी बिजली और कर्ज से परेशान हैं।
उत्तर प्रदेश में इटावा के रहने वाले राम लखन को इस सीजन में चने की फसल के दाम सिर्फ एक हजार रुपए कुंतल ही मिल पाए। पिछले साल उसने अपना चना 1800 रुपए प्रति कुंतल के दाम से बेचा था। लेकिन इस बार उसकी लागत भी नहीं निकल पाई।
लखन के पास एक एकड़ से भी कम जमीन का एक टुकड़ा है और इस तरह के नुकसान के चलते ही वह अपने जैसे तमाम किसानों के साथ दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए आ पहुंचा है। वह बहुत ही छोटा किसान है और घर चलाने के लिए उसे दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करना पड़ता है।
लखन का कहना है कि, “अब खेती बहुत महंगा काम हो गया है, लेकिन अगर में खेती नहीं करूंगा तो मेरा परिवार भूख से ही मर जाएगा। मैं कोई पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूं, लेकिन इतना जानता हूं कि हम जैसे किसानों का क्या हाल होने वाला है। ठेके की खेती ने पहले ही यूपी में किसानों को तोड़कर रख दिया है। गरीब किसान कहां जाए। अब तो यूपी से और भी किसान इस आंदोलन में हिस्सा लेने आ रहे हैं। हमारी जो हालत हो गई है योगी-मोदी राज में हम ही जानते हैं।”
दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे पर यूपी, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के करीब 5000 किसानों ने डेरा जमा लिया है। यह सभी अपने बाकी साथी किसानों की तरह तीनों कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं जिन्हें मोदी सरकार ने पास किया है।
इन कानूनों के आने के बाद से यूपी के किसानों की हालत और पतली हो गई है। वे पहले से ही गन्ने के बकाए, बिजली के बढ़े दामों और स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट में दी गई सिफारिशें लागू न होने से टूट चुके हैं।
इन किसानों ने वहीं डेरा जमाया है जहां 2018 में जमा होकर किसान क्रांति यात्रा निकाली थी। उस समय उनकी मांग स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करने और सिंचाई के लिए मुफ्त में बिजली दिए जाने की थीं। 2018 में उन पर लाठीचार्ज किया गया था और दिल्ली पुलिस ने उन्हें गाजीपुर बॉर्डर पर ही रोक दिया था।
असल में यूपी के किसान 2017 से ही बेचैन हैं। उस साल बीजेपी ने चुनावी प्रचार में वादा किया था कि सरकार बनने पर मार्च 2016 से पहले के सारे कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। योगी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पहली कैबिनेट बैठक में ढोल-ताशों के साथ करीब 94 लाख छोटे और हाशिए के किसानों के 36,359 करोड़ रुपए के कर्ज मा करने का ऐलान भी किया था। इसमें ऐसे 7 लाख किसानों का 5,620 करोड़ रुपया भी शामिल था जिनके खाते ठप हो चुके थे और बैंकों द्वारा एनपीए घोषित हो गए थे।
लेकिन धीरे-धीरे साफ हो गया कि इस घोषणा के बहाने किसानों को मूर्ख बनाया गया। मथुरा के एक किसान को तो महज एक पैसे का ही कर्ज माफ हुआ था जबकि बहुत से किसानों का सिर्फ 15 रुपए का कर्ज माफ हुआ था। बाद में खबरें आई थी कि 4,814 किसानों के सिर्फ 1 रुपए से 100 रुपए के बीच, 6,895 किसानों का 100 से 500 रुपए के बीच और 5,553 किसानों का 500 से 1000 रुपए के बीच कर्ज माफ किया था।
2017 में सत्ता संभालते ही योगी आदित्यनाथ सरकार ने बिजली के दाम बढ़ा दिए थे, जिसमें 2019 में फिर से बढ़ोत्तरी कर दी गई। 2017 में उत्तर प्रदेश बिजली नियामक आयोग ने बिजली दरों में करीब 12 फीसदी बढ़ोत्तरी की थी और 2019 में फिर 8 से 12 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई।
इतना ही काफी नहीं था कि किसानों के गन्ने का बकाया आज भी नहीं चुकाया गया है। सितंबर 2020 तक उत्तर प्रदेश में किसानों का 2019-20 सीज़न का गन्ने का 10,174 करोड़ रुपए बकाया था। यह बात सरकार ने संसद में बताई थी। अगस्त में किसानों ने भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले गन्ने के बकाए के लिए आंदोलन किया था क्योंकि लॉकडाउन के दौरान उनकी हालत और खराब हो चुकी है।
बुलंदशहर के जगवीर सिंह के पास 6 एकड़ जमीन है। उन्होंने गन्ने की फसल लगाई जिस पर 294 रुपए प्रति कुंतल की लागत आई, लेकिन उन्हें फसल बेचकर मिले सिर्फ 325 रुपए प्रति कुंतल। वे कहते हैं कि इसमें मेरी और मेरे परिवार की मेहनत का तो हिसाब ही शामिल नहीं है। वे ऑल इंडिया किसान सभा के बैनर तले आंदोलन में शामिल हैं।
जगवीर सिंह कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में पहले से तय है कि सरकार से मान्यता प्राप्त मिले किसानों से कितना गन्ना खरीदेंगी। अगर फसल अच्छी भी हो तो भी मिल ज्यादा गन्ना नहीं खरीदते हैं। ऐसे में हमें बाकी फसल खुले बाजार में बेचना पड़ती है जो हमें सिर्फ 200 रुपए प्रति कुंतल का ही दाम देता है। ऐसे में कैसे घर चलेगा?”
ऐसी कड़वी सच्चाइयां किसानों के चेहरे पर साफ दिखती हैं। जगवीर सिंह का कहना है कि तीनों नए कृषि कानूनों ने पूरी पीढ़ी को गरीबी में धकेलने का काम किया है। वे कहते हैं, “ऐसा लगता है कि जिंदगी को लेकर हमारा संघर्ष कभी खत्म ही नहीं होगा। सरकार कहती है कि खेती-किसानी ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लेकर आएगी, लेकिन वह तो हमें मार ही देना चाहती है।”
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