हल्द्वानी हिंसा: सिर्फ एक समुदाय पर ही बुलडोज़र कार्रवाई करने की हड़बड़ी से बिगड़े हालात!
हल्द्वानी में मस्जिद और मजार तो गिरा दी लेकिन पास ही के मंदिर और आरएसएस के स्कूल को छुआ तक नहीं।
‘उत्तरांचल दीप’ सांध्य अखबार के संपादक सलीम खान 9 फरवरी को उस वक्त घर पर नहीं थे जब पुलिस ने उनकी पत्नी रिजवाना और दो बेटियों और उनकी भाभी की लाठी-डंडों से पिटाई की। वे पुलिस को बताती रहीं कि 8 फरवरी को मरियम मस्जिद और अब्दुक रज्जाक जकारिया मदरसे को ढहाने के खिलाफ हुए पथराव से उनका कोई वास्ता नहीं। रिजवाना ने यह भी बताया कि उनके पति वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी पुलिस के तमाम अफसरों से रोजाना ही बातचीत होती है। फिर भी उन्हें नहीं बख्शा गया।
उसी दिन महिला पुलिसकर्मी समीरा के घर आ धमकीं। उसे अपने पिता को पेश करने को कहा गया लेकिन समीरा ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वह काफी बीमार हैं। इस पर समीरा को पीटा गया जिसमें उनकी कलाई टूट गई।
शहाना अपनी दो बेटियां के साथ घर में थी जब पुलिस यह पता करने आई कि उसका पति कहां है। उन्होंने बताया कि उनके पति और बेटे कुछ दिन पहले एक शादी में शामिल होने गए हैं। शहाना की भी सफाई काम न आई और पुलिस ने उनकी पिटाई कर दी।
हल्द्वानी में ऐसे तमाम लोग हैं जिन पर पुलिस ने 8 फरवरी को हुए विरोध प्रदर्शन में कथित तौर पर शामिल होने के लिए जुल्म ढाए। हालांकि पुलिस महानिदेशक अभिनव कुमार ने दावा किया कि ‘8 फरवरी की घटना और उसकी वजह से जो कुछ हुआ, उसके बारे में झूठी कहानी गढ़ी गई है। पुलिस कानून के मुताबिक और बिना किसी पूर्वाग्रह के कार्रवाई कर रही है।’
पुलिस ने 5000 लोगों पर एफआईआर की है लेकिन केवल 18 नामजद हैं। इससे पुलिस को यूएपीए के तहत व्यावहारिक रूप से किसी को भी गिरफ्तार करने की खुली छूट मिल गई और उन्हें बड़े पैमाने पर लोगों को परेशान करने का बहाना भी मिल गया।
हालांकि जब सलीम खान ने सिटी मजिस्ट्रेट ऋचा सिंह सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के सामने मामले को उठाया तो उन्होंने माना कि ‘यह गलती से हो गया।’ यह पूछे जाने पर कि क्या वह जवाबी एफआईआर दर्ज कराएंगे, सलीम खान ने सीधा जवाब नहीं दिया, बस इतना कहा, ‘हमारे समुदाय ने राम मंदिर के निर्माण और यूसीसी पारित होने का विरोध नहीं किया था। हम इस विध्वंस को भी मंजूर कर लेते, लेकिन किसी भी समुदाय को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए।’
महिलाओं को निशाना क्यों बनाया गया, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। नगर पालिका द्वारा मस्जिद और मदरसे को ढहाने के आदेश के खिलाफ प्रदर्शनों में महिलाएं आगे थीं। इनका निर्माण 2002 में हुआ था और इसकी देखभाल अब्दुल मलिक और उनकी पत्नी सफिया करते थे। जब महिलाओं ने ध्वस्तीकरण रोकने की कोशिश की तो उन पर लाठीचार्ज किया गया। इससे उनके पीछे खड़े लोग नाराज हो गए। फिर पथराव शुरू हो गया और भीड़ ने कई पुलिस वाहन फूंक डाले।
‘मलिक का बागीचा’ के पास रहने वाले चश्मदीद फार्मासिस्ट हसनैन खताबी ने कहा, ‘प्रशासन ने किसी को भी भरोसे में नहीं लिया। न ही इमाम या मौलवियों से बात की। उन्होंने सोचा होगा कि यह आसानी से हो जाएगा। हमें बाद में पता चला कि पुलिस को खुफिया रिपोर्टें मिली थीं जिसमें उन्हें आगाह किया गया था कि चूंकि चंद दिनों पहले ही विधानसभा में समान नागरिक संहिता पारित हुई है जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ में व्यापक बदलाव किए गए हैं, तो ऐसे माहौल में किसी भी तरह की कार्रवाई सही नहीं होगी।’
उस दिन हालात जल्द ही काबू से बाहर हो गए और पुलिस ने 350 राउंड फायरिंग की जिसमें कई लोगों को सीने में गोलियां लगने की बात कही जा रही है। खताबी कहते हैं, ‘अगर उन्होंने हमारी भावनाओं के प्रति थोड़ी भी संवेदनशीलता दिखाई होती तो इतने लोगों की हत्या और तबाही को टाला जा सकता था।’ वहीं, पार्षद शकील सलमानी ने कहा, 'पंकज उपाध्याय पांच साल से नगर आयुक्त थे और वह 31 दिसंबर, 2023 को सेवानिवृत्त हुए। अपने कार्यकाल में उन्होंने इस पर कुछ नहीं किया। सेवानिवृत्ति के बाद, अचानक उन्होंने मुद्दा उठाया कि यह मस्जिद और मदरसा नजूल भूमि पर कैसे बने और ‘मलिक का बगीचा’ कथित तौर पर अवैध बस्ती थी।
हालांकि आधा हल्द्वानी नजूल भूमि पर बसा है जिसमें आम्बेडकर नगर, गांधी नगर, बरेली रोड, सनी बाजार और हीरा नगर जैसी प्रमुख कॉलोनियां शामिल हैं। शकील ने कहा, ‘(मरियम) मस्जिद से 200 मीटर दूर ही गोपाल मंदिर है। वह भी नजूल जमीन पर है। इसके अलावा आरएसएस द्वारा चलाया जा रहा स्कूल ‘सरस्वती बाल विद्यालय’ भी वहीं पास में है। इन्हें छुआ तक नहीं गया। हकीकत तो यह है कि जब प्रदर्शन हिंसक हो गया तो मुस्लिम समूहों ने सुनिश्चित किया कि मंदिर को कोई नुकसान न हो।’
पिछले साल जनवरी में 4,000 से अधिक ऐसे घरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया गया था जिन्होंने कथित तौर पर रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण कर रखा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि 50,000 लोगों को ‘रातों-रात उजाड़ा’ नहीं जा सकता।
बनभूलपुरा क्षेत्र में खौफ का आलम है और मलिक का बागीचा के ज्यादातर लोग आसपास के शहरों में अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए हैं। इलाके में केवल बूढ़े और विकलांग ही बचे हैं। जिनका कोई ठौर नहीं, वे जंगलों में जा छिपे हैं।
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पूरी घटना संवेदनशील मुद्दे से निपटने में प्रशासन के अड़ियल रवैये को दिखाती है। निगम ने इस साल 30 जनवरी को मलिक परिवार को तोड़फोड़ का नोटिस दिया। 6 फरवरी को सफिया मलिक ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि जिस जमीन पर निर्माण है, उसे 1937 में पट्टे पर लिया गया और 1994 में खरीदा गया। उन्होंने विध्वंस के खिलाफ अंतरिम राहत मांगी थी और इस पर 14 फरवरी को सुनवाई थी।
फिर संरचनाओं को गिराने की जल्दी क्या थी? मुसलमानों का मानना है कि यह इस्लामी संरचनाओं को गिराने की एक बड़ी नीति का हिस्सा है जिसमें तीन महीने में 300 से ज्यादा मजारें तोड़ी गई हैं। सीपीआई (एमएल) के महासचिव इंद्रेश मैखुरी ने न्यायिक जांच की मांग की है। सरकार ने मजिस्ट्रेट जांच का आदेश दिया लेकिन यह सब यह दिखाने के लिए किया जा रहा है कि मुसलमान दोषी हैं।
पुलिसिया कहानी यह है कि अब्दुल मलिक और उनका बेटा हिंसा के ‘मास्टरमाइंड’ हैं। मलिक को गिरफ्तार कर लिया गया है। मलिक को सरकारी संपत्ति के नुकसान के रूप में 15 फरवरी तक 2.44 करोड़ रुपये जमा कराने को कहा गया है। पुलिस कहती है कि अगर किसी को तकलीफ है तो अपनी बात मजिस्ट्रेट जांच के दौरान रख सकता है।
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