गुजरातः इस बार जनता के साथ हवा भी BJP के खिलाफ, सत्ता जाती देख भगवा पार्टी ने सियासी प्रबंधन के सारे घोड़े खोले

गुजरात प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गढ़ है। सच भी है, गुजरात में इन दोनों की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। इसलिए बीजेपी किसी भी हाल में गुजरात की सत्ता पर कुंडली मारे रहना चाहती है और इसके लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं। फिर भी दिक्कत है।

फोटोः PIB
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आर के मिश्रा

पुरानी कहावत है- ‘प्रतीक अदृश्य वास्तविकताओं के दिखने वाले संकेत होते हैं’। 27 अगस्त को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दो दिन के गुजरात दौरे पर गए तो उन्होंने हमेशा की तरह पहले पन्ने की सुर्खियां बटोरीं। लेकिन जिस दिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राज्य में बूथ स्तर के 50,000 कार्यकर्ताओं को संबोधित किया, अखबारों ने अपने पहले पन्ने पर इस खबर को जगह ही नहीं दी।

एक समाचार पोर्टल के संपादक ने अखबारों के पहले पन्ने की तस्वीरों को व्यंग्यात्मक टोन के साथ ट्ववीट किया और ऐसे संपादकीय फैसले पर आश्चर्य जताया। दरअसल, बीजेपी ने ‘मीडिया मैनेजमेंट’ के जरिये जनता को भुलावे में रखकर चुनावी नैया पार लगाने की रणनीति अपना रखी है। अगर यह कहें कि आगामी विधानसभा चुनाव आम लोगों में हताशा-निराशा और बीजेपी की हर जुगत भिड़ाकर हालात को काबू में करने की कोशिशों के बीच है, तो शायद गलत न हो। अब देखना है कि चुनाव में ऊंट किस करवट बैठता है।

प्रधानमंत्री को मूर्तियों, पाथ-वे, समुद्री विमानों का उद्घाटन और साबरमती रिवरफ्रंट के उन्नयन कार्यक्रम का फीता काटना पसंद है। इसलिए जब उन्होंने एक फुटब्रिज का उद्घाटन किया तो कोई हैरानी नहीं हुई। एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक ने अपने पहले पन्ने पर अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट पर एक सजे-संवरे फुटब्रिज की सीढ़ियों से मोदी की उतरती हुई तस्वीर छापी। इस ब्रिज का नाम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखा गया है।

उसी अखबार में मोदी की उस तस्वीर के बिल्कुल बगल में एक आदिवासी महिला के अपने पति के मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए 9 साल के संघर्ष की कहानी पांच कॉलम में छपी थी। खैर, अब तो यह मामला हाईकोर्ट में चल रहा है। तीन दिन बाद उसी अखबार ने छापा कि उस फुटब्रिज के इस्तेमाल के लिए लोगों को 30 रुपये खर्च करने पड़ेंगे और टिकट 30 मिनट के लिए वैध होगा। बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों को 50 फीसद रियायत दी जाएगी, जबकि दिव्याांग को कोई पैसे नहीं देने होंगे।


इस फुटब्रिज को बनाने में करदाताओं के 74 करोड़ रुपये खर्च हुए। विडंबना यह है कि अगर आप नदी के किसी भी पुल को पार करने के लिए ऑटो-रिक्शा लेते हैं, तो यह प्रति यात्री 5 रुपये का किराया लेता है। लेकिन आपको अटल फुटब्रिज को पार करने के लिए छह गुना अधिक भुगतान करना पड़ता है।

अखबार में इसी पन्ने पर यह खबर छपी थी कि राज्य में प्रति लाख आबादी पर आर्थिक अपराध 2020 के 4.5 के मुकाबले 2021 में बढ़कर 5.7 हो गया है और साइबर अपराध के मामलों में पिछले पांच वर्षों में 235 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अलावा नशीले पदार्थों की रिकॉर्ड जब्ती से गुजरात को एक ‘मॉडल राज्य’ के तौर पर बताने-दिखाने की सारी कोशिशों की असलियत भी सामने आ गई है।

राजकोट के एक पत्रकार पर इस वजह से मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है कि उसने खबर प्रकाशित की जिसमें कहा गया था कि गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की छुट्टी होने जा रही है। यह खबर बिल्कुल हवाई भी नहीं थी। दो महत्वपूर्ण विभागों के मंत्रियों को अचानक हटा दिया गया था। देखने वाली बात यह भी है कि खुद भूपेंद्र पटेल को भी तो विजय रूपाणी को अप्रत्याशित तरीके से हटाकर उनकी जगह बैठाया गया था।

लोगों में राज्य सरकार के प्रति काफी असंतोष है। सड़कों पर आवारा घूमने वाले पशुओं के मामले में गुजरात हाईकोर्ट सख्त रहा है। अगर सरकार ने हाईकोर्ट के कहने पर सही समय पर सही कदम उठाए होते, तो शायद बीजेपी नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल के घायल होकर अस्पताल में भर्ती होने की नौबत नहीं आती। बीजेपी की तिरंगा यात्रा के दौरान नितिन आवारा पशु के हमले से घायल हो गए थे।

गुजरात में शहर की सड़कों पर मवेशियों की समस्या एक प्रमुख मुद्दा रहा है। हाईकोर्ट ने 2017 में मामले में कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी थी। तब प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल ने आवश्यक कार्रवाई का आश्ववासन दिया था। राज्य विधानसभा ने इस साल 1 अप्रैल को आठ नगर निगमों और 162 शहरों में आवारा पशुओं की समस्या से निपटने के लिए एक विधेयक पारित किया था।

लेकिन इससे पशुपालक या ‘मालधारी’ समुदाय खासा नाराज हो गया और उसने आने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के बहिष्कार की धमकी दे दी। इसका नतीजा यह हुआ कि विधेयक पारित होने के बमुश्किल एक हफ्ते के भीतर ही 8 अप्रैल को इसके कार्यान्वयन को रोक दिया गया। वह तो 30 अगस्त को हाईकोर्ट की सख्ती के बाद अहमदाबाद नगर निगम को मजबूरन कार्रवाई करनी पड़ी। लेकिन इससे किसी को भी हैरानी नहीं हुई क्योंकि राज्य में नीतियां बनाने की बात हो या फिर किसी फैसले पर अमल करने की, यह सब चुनावों को ध्यान में रखकर ही किया जाता रहा है और ऐसा लंबे समय से होता रहा है।


क्या कहती है बीजेपी की सीटों में यह गिरावट

गुजरात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गढ़ है। सच भी है, गुजरात में इन दोनों की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। इसलिए बीजेपी किसी भी हाल में गुजरात की सत्ता पर कुंडली मारे रहना चाहती है और इसके लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं। फिर भी दिक्कत है। बीजेपी विधानसभा में अपनी सीटों में गिरावट को थाम नहीं पा रही है। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में वर्ष 2001 में कार्यभार संभाला और उसके बाद का विधानसभा चुनाव 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुआ। बीजेपी ने इसमें 127 सीटें हासिल कीं जबकि कांग्रेस के खाते 51 सीटें आईं। पिछले 20 वर्षों में यह बीजेपी द्वारा हासिल सर्ववाधिक सीटें थीं।

इसके बाद वर्ष 2017 में बीजेपी की सीटें घटकर 117 रह गईं जबकि कांग्रेस की सीटें बढ़कर 59 हो गईं। 2012 में बीजेपी को 116 सीटें मिलीं तो कांग्रेस के खाते में 60 सीटें आईं। 2017 में बीजेपी की सीटें 17 कम होकर 99 रह गईं जबकि कांग्रेस की सीटें बढ़कर 77 हो गईं। चुनाव बाद जोड़-तोड़ का नतीजा है कि आज विधानसभा में बीजेपी के 111 विधायक हैं जबकि कांग्रेस के 63, भारतीय ट्राइबल पार्टी के 2 और एनसीपी के 1 विधायक हैं। इस विधानसभा में 4 निर्दलीय हैं और 4 सीटें रिक्त हैं।

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