बेरोजगारों की बढ़ती संख्या से बेपरवाह सरकार, क्या सचमुच सरकारी नौकरी के दिन लद गए?
आम धारणा है कि सरकारी कर्मचारियों को उनके परिश्रम की तुलना में अधिक पैसे मिलते हैं और वे उतना काम नहीं करते जितने करना चाहिए। ये कर्मचारी ऑफिस देर से आते हैं, निर्धारित अवधि से पहले चले जाते हैं। लेकिन यह भी धारणा है कि सरकार के पास कम कर्मचारी हैं।
वाकचातुर्य या शब्दाडंबर वास्तविकता का विकल्प नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री, सरकार और तमाम बीजेपी नेता तरह-तरह से प्रभावी ढंग से बोल रहे हैं कि देश को जॉब गिवर्स (नौकरी देने वालों) की जरूरत है, जॉब सीकर्स (नौकरी की इच्छा रखने वालों) की नहीं। दूसरी तरफ, बेरोजगारों की संख्या बढ़ गई है। स्टार्ट अप और कंपनियों को पंजीकृत कराकर धन पैदा करने की अभिलाषा रखने वाले या उद्यमी बढ़े तो हैं, पर वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या नहीं बढ़ी है। उद्यमियों ने ऋण ले लिए हैं और अपने लिए नौकरी सुनिश्चित कर ली है लेकिन इस बात के अब तक कोई सुबूत नहीं हैं कि उन लोगों ने दूसरे लोगों के लिए वेतन वाली नौकरियां तैयार की हैं।
बेरोजगार, खास तौर से शिक्षित बेरोजगार, सुरक्षित और संभवतया परिश्रम से अधिक पैसे वाली नौकरी चाह रहे हैं। और अगर सरकार अपनी प्राथमिकताएं सही रख रही है, तो उसे सात अतिरिक्त बुलेट ट्रेन-जैसी चमकीली और दिखावे वाली परियोजनाओं में पैसे खर्च करना रोक देना चाहिए और ज्यादा डॉक्टरों, नर्सों तथा शिक्षकों को रोजगार देना शुरू कर देना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निवेश मौसमी, अस्थायी और अधिकांशतः कम स्किल वाली नौकरियां पैदा करता है और यह बेरोजगारी संकट का बहुत अधिक समाधान भी नहीं करता। साफ तौर पर सरकारी सेक्टर में अधिक नौकरियों के अवसरों की तत्काल जरूरत है।
क्या सरकार में अधिक स्टाफ हैं? सरकार के अंदर और बाहर रह रहे अधिकांश लोग ऐसा ही सोचते लगते हैं। आम धारणा है कि सरकारी कर्मचारियों को उनके परिश्रम की तुलना में अधिक पैसे मिलते हैं और कि वे उतना काम नहीं करते जितने की उनसे अपेक्षा है। ये कर्मचारी ऑफिस देर से आते हैं, निर्धारित अवधि से पहले चले जाते हैं और जब वह ड्यूटी पर भी होते हैं, तो गॉसिप वगैरह करने या अपने निजी काम में अधिक समय बिताते हैं। लेकिन यह भी धारणा है कि सरकार के पास वस्तुतः कम कर्मचारी हैं; कि हमें अधिक शिक्षकों, अधिक पुलिस वालों, अधिक जजों, अधिक डॉक्टरों, अधिक नर्सों, रिसर्चरों, सफाई कर्मचारियों और वस्तुतः हर क्षेत्र में अधिक जमीनी कर्मचारियों की जरूरत है।
भारत में ऐसा अनुमान है कि श्रमशक्ति का लगभग 4 फीसदी हिस्सा सरकारी क्षेत्र में है। सरकारी क्षेत्र में नौकरी पाए लोगों की संख्या अमेरिका में 15.8, ब्रिटेन में 21.5, फ्रांस में 24.9, जर्मनी में 12.9 और यहां तक कि बांग्लादेश में भी 8 प्रतिशत है। अगर आप ध्यान दें, तो दूसरे देशों से अलग भारत में रेलवे और काफी सारे औद्योगिक प्रतिष्ठान सार्वजनिक क्षेत्र में हैं और इस तरह से तुलना करें, तो यहां तस्वीर और अधिक निराशाजनक है। बांग्लादेश के अनुपात को हासिल करने में भी भारत को और 15 करोड़ लोगों को अपनी ‘सार्वजनिक श्रमशक्ति’ में जोड़ना होगा।
लेकिन ट्रेन्ड यह हो गया है कि ठेकेदारों या मजदूर सप्लाई करने वालों के जरिये लोगों को आउटसोर्स किया जाए और ये लोग काम के लिए निम्नतम दर पर काम की बोली लगाते हैं। रिक्तियां नहीं भरी जातीं और सरकार किसी तरह काम चलाते रहने के लिए शिक्षामित्र, विजिलेंट ग्रुप, वॉलंटियर और लोगों को ठेके पर नियुक्त कर अपने लिए गड्ढा खोद रही है। स्पष्ट कमी धन की है। लगातार होने वाले वेतन पुनरीक्षण, बढ़ते दैनंदिन खर्चे को बेअसर करने वाले उदारता वाले डीए तथा अन्य उदार एलाउंस ने प्रति कर्मचारी औसत खर्च को इस हद तक बढ़ा दिया है कि उनकी रक्षानहीं की जा सकती और काफी सारी नौकरियों को आउटसोर्स किया जा रहा है। आउटसोर्सिंग ठेका प्रथा के जरिये की जा रही है और सबसे कम बोली को स्वीकार करने का सिद्धांत गुणवत्ता की बलि ले रहा है। रेलवे कैटरिंग और सफाई सेवाएं इनके उदाहरण हैं। लेकिन सरकारी नौकरी लोगों के मूड को बढ़ाने, मांग में बढ़ोतरी और बाजार के सेन्टिमेंट में मदद करती है। इसलिए, वास्तविकता में, सरकार क्या कुछ कर सकती है?
यह ग्रुप सी और डी में निश्चित मानदेय पर ठेके पर अगले पांच साल के लिए बीस लाख अतिरिक्त लोगों को नौकरी दे सकती है। यह मानदेय इस तरह हो सकता हैः बेसिक का 50 प्रतिशत और उस समान पद वाले वेतनमान का डीए। काम पर रखे जाने का कॉन्ट्रैक्ट पांच साल का होगा जिसकी समाप्ति होने पर काम संतोषजनक स्तर का पाए जाने की शर्त पर नियमित नौकरी का प्रस्ताव दिया जाना चाहिए।
जिस तरह नियमित चयन होता है, उन्हीं प्रक्रियाओं का पालन करते हुए ही इन पदों पर चयन किया जाना चाहिए। पांच साल की इस अवधिके दौरान नियमित रिक्तियों को भरे जाने की जरूरत नहीं है। इन सबमें सरकार को 35,000 करोड़ हर साल से अधिक का खर्च नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकार को हर साल इतनी राशि खर्च करनी होगी, पर वह रिक्तियां नहीं भरकर पैसे भी बचाएगी।
मनरेगा योजना को नमूना बनाते हुए शहरी न्यूनतम रोजगार गारंटी कार्यक्रम से शहरी गरीब को तत्काल राहत मिलेगी और वे शहरी क्षेत्रों में कई विकास और मेन्टिनेंस काम पा जाएंगे। वैसे भी, इस स्कीम पर खर्च किया जाने वाला लगभग पूरा धन अर्थव्यवस्था में मांग से जुड़ेगा।
रोजगार पैदा करने के एक अन्य अवसर के तहत विशेष, पूरक सेना में हर साल लगभग दस लाख लोगों को रोजगार देना होगा जिन्हें स्टाइपेन्ड दिया जाएगा। सैन्य प्रशिक्षण के अलावा इन्हें फिटर, प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन आदि कामों में प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत होगी। पांच साल की अवधि समाप्त होने पर स्वतंत्र तौर पर काम करने के लिए अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उन्हें एकमुश्त रकम दी जा सकती है।
सरकार रोजगार पैदा करने के अपने उत्तरदायित्व से पैर नहीं खींच सकती। यह भी नंगी सच्चाई है कि कॉरपोरेट सेक्टर भी तब ही निवेश करेगा जब मांग वर्तमान सुस्ती को पाटने वाले स्तर तक बढ़ता है।
वैसे भी, बेरोजगारों की संख्या जिस तरह और जितनी बढ़ रही है, उसे पाटने की निजी क्षेत्र से गंभीर उम्मीद किसी भी तरह नहीं की जा सकती।
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