ग्राउंड रिपोर्ट: नदियों में तैरती-दबी लाशें दे रही हैं गवाही कि सरकारी आंकड़े झूठे हैं, गांवों में बेकाबू है कोरोना
श्मशानों में अंतिम संस्कार की व्यवस्था नहीं है; भय इस कदर है रिश्तेदारों और गांवों के लोगों को तो छोड़िए, सगे लोग भी शवों को किसी तरह जल्दी-से-जल्दी निबटा देना चाह रहे। उन्हें लग रहा है कि शव जलाने तक रुकने पर हवा से कहीं वे संक्रमित न हो जाएं।
गांवो का जो हाल है, उससे यह पता लगना मुश्किल ही हो गया है कि कोरोना से संक्रमित होने वाली वास्तविक संख्या कितनी है और मौत का वास्तव में क्या आंकड़ा है। न तो लोग टेस्ट करा रहे; कराना भी चाहें, तो उसकी सुविधा नहीं है; और जांच कराए बिना किसी अस्पताल में घुसना भी संभव नहीं। एक तो जब बड़े से लेकर छोटे शहरों तक सामुदायिक स्वास्थ्य ढांचा ढह चुका है, तो समझा जा सकता है कि ब्लॉक और गांव स्तर तक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रकी क्या हालत होगी। बीमारी इस हद तक फैल जाने की कई वजहें हैं। जहां-जहां विधानसभा से लेकर पंचायत स्तर तक के चुनाव हुए हैं, वहां इस महामारी को अपने डैने फैलाने का मौका मिल गया। पिछले साल जिन लोगों ने कोरोना के डर से शादी-ब्याह के समारोह टाल दिए थे, वे इस बार रुक नहीं रहे और यह कोरोना को फैलने-फूलने का मौका दे रहा। सांसद परिवार में थाईलैंड से कॉलगर्ल तो बुलाए ही गए, कई गांवों में नाच-गाने के आयोजन टाले नहीं जा रहे और लोग पहले की तरह उनमें शामिल होते रहे हैं। जब इतना खाद-पानी मिल रहा हो, तो यमराज का नृत्य कैसे रुक सकता है?
गंगा नदी में बहती हुई लाशों से समझा जा सकता है कि इन दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश का हाल क्या है। बिहार में बक्सर के एसडीएम की जांच में मई के दूसरे हफ्ते की शुरुआत तक 71 लाशें गंगा नदी में बहती हुई पाई गईं। यह सरकारी आंकड़ा है। गैरसरकारी आंकड़ा तो सैकड़ों का है। यूपी के गाजीपुर के बारा गांव के पास भी कई लाशें मिली हैं। गाजीपुर जिले में 50 से अधिक लाशें मिल चुकी हैं।
जाने-माने लेखक और पर्यावरणविद पंकज चतुर्वेदी ने अपने फेसबुक पोस्ट में एक और जानकारी दी है। उनका कहना है कि ‘न तो श्मशान घाट में जगह है और न ही लकड़ी। ऐसे में, कानपुर से उन्नाव जाने के रास्ते में शुक्लागंज घाट पर कई लोग बालू खोदकर गड्ढे बना रहे हैं। यहां लोग लाशें लेकर आते हैं और थोड़े नमक के साथ बालू में उन्हें दफन किया जाता है। मई के दूसरे हफ्ते की शुरुआत तक ऐसे लगभग एक हजार शवों को यहां गाड़ दिया गया है। मानसून शुरू होते ही गंगा में जल प्रवाह बढ़ेगा और अधगली लाशें तैरती दिखेंगी।’
इन सबसे कई बातें सामने आती हैं: श्मशानों में अंतिम संस्कार की व्यवस्था नहीं हो पा रही है; संक्रमण का भय लोगों में इस कदर समा गया है कि रिश्तेदारों, आसपास और गांवों के लोगों को तो छोड़िए, सगे लोग भी शवों को किसी तरह जल्दी-से-जल्दी निबटा देना चाह रहे। उन्हें लग रहा है कि शव जलाने तक रुकने पर हवा से कहीं वे संक्रमित न हो जाएं, इसलिए पत्थर बांधकर शव को गंगा और कर्मकाशा नदियों में प्रवाहित कर दे रहे हैं। यह तो मीडिया की वजह से बक्सर चर्चा में आ गया है, न जाने कहां-कहां कितनी लाशों का इस या किसी अन्य तरीके से अंतिम संस्कार हो रहा होगा, नहीं कहा जा सकता।
वैसे, बिहार के गांवों में बड़ी संख्या में लोग सर्दी-बुखार की चपेट में हैं। चूंकि लोग कोरोना जांच करा नहीं रहे तो वास्तविक स्थिति का अंदाजा नहीं लग पा रहा। मुजफ्फरपुर के पास सहदानी गांव के एक व्यक्ति का कहना है कि इस बार लगभग सभी घर में लोगों को सर्दी-बुखार हो रहा है। लेकिन कोई कोरोना की जांच नहीं करा रहा और ज्यादातर घरेलू उपचार कर रहे हैं। बेगूसराय के घघड़ा गांव में एक व्यक्ति ने बताया कि पिछले साल कोरोना की धमक के बाद बाहर से आने वालों या बीमार हो गए लोगों के लिए मेडिकल कैंप बनाए गए थे जहां एक डॉक्टर कम-से-कम दिन भर उपलब्ध रहता था। इस बार तो दस दिनों में दो लोगों की मृत्यु होने और कई लोगों के बीमार हो जाने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग से कोई झांकने तक नहीं आया है। लेकिन स्वास्थ्य विभाग के लोग करें भी तो क्या? सोशल मीडिया पर वैशाली, बेतिया में शादी समारोहों में कॉलगर्ल बुलाकर नृत्य समारोह कराने के वायरल वीडियो देखकर समझा जा सकता है कि खुद लोग कितने गंभीर हैं।
डीह बाबा के भरोसे
यूपी की हालत कुछ ज्यादा ही खराब है क्योंकि यहां हाल में पंचायत चुनाव हुए। इस वजह से मौतों का सिलसिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से लेकर मुख्यमंत्री योगीआदित्यनाथ के गृह जनपद गोरखपुर तक थमता नहीं दिख रहा। जिन गांवों में साल भर में 10 मौतें होती थीं, वहां इतना आंकड़ा 10 दिनों में पहुंच रहा है। वाराणसी में पंचायत चुनाव के बाद शायद ही ऐसा कोई गांव हो जहां अब तक 5 से 15 मौतें नहीं हुई हों। चिरई गांव ब्लॉक में 110 गांव हैं। यहां के प्रखंड प्रमुख सुधीर सिंह पप्पू का दावा है कि ‘हर गांव में 10 दिन के अंदर पांच से दस लोगों की मौतें हुई है। सरकारी अस्पतालों में न ऑक्सीजन है, न दवाएं; न वैक्सीन हैं, न एंटीजन किट। आरटी-पीसीआर की रिपोर्ट मरीज की मौत के बाद आ रही है।’ पत्रकार आशुतोष सिंह कहते हैं कि ‘गावों में डोर टु डोर सर्वे कराया जाए तो आधी आबादी संक्रमित मिलेगी।’ ऐसे में, गांवों में लोगों ने अब ‘कोरोना माई’ और डीह की पूजा-अर्चना करना शुरू कर दी है।
गांवों में अलबत्ता तो लोग कोरोना टेस्ट करवाते नहीं हैं और जो कराना चाहते हैं, उनका होता ही नहीं है। वैक्सिनेशन भी इक्का- दुक्का लोगों का ही हुआ है। ग्रामीण लोग बीमार होने पर आसपास के झोलाछाप डॉक्टरों से दवा ले लिया करते हैं। काफी लोग ठीक भी हो जाते हैं लेकिन मौतें भी हो रही हैं। आशा कार्यकर्ताओं की ड्यूटी तो लगाई गई है लेकिन उनके पास अपनी ही सुरक्षा के साधन नहीं होते। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है।
मरघटी सन्नाटा
संपन्न पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हाल इस मामले में पिछड़े पूर्वांचल-जैसा ही है। महानगरों की तरह इस इलाके के लोग भी अब अंतिम संस्कारों में जाने से बच रहे हैं। बिजनौर मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर मानपुर में 21 अप्रैल से 7 मई के बीच 14 लोगों की मौत हो चुकी है। गांव के विजय सिंह पहलवान ने बताया कि पंचायत चुनाव में ही लोगों को बुखार आना शुरू हो गया लेकिन 19 अप्रैल को हुए अंतिम चरण के चुनाव के बाद अचानक लोग बीमार पड़ना शुरू हुए और एक-एक कर 14 लोगों की मौत हो गई। पहले तो 10-12 लोग गंगा घाट पर साथ जाते थे लेकिन बाद में परिवार के ही इक्का-दुक्का लोग क्रिया-कर्म के लिए जाने लगे। गांव वालों के हजार कहने के बाद भी न तो स्वास्थ्य विभाग की टीम आई, न सेनेटाइजेशन किया गया और न कोई दवा ही बांटी गई।
भारतीय किसान यूनियन के युवा प्रदेश अध्यक्ष दिगंबर सिंह ने बताया कि खुद उनके गांव में किसान नेता विजय सिंह की मौत कोरोना से हुई। सैदपुरी गांव मुस्लिम बहुल है। यहां भी आधा दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है। इसी जनपद के गांव नींदड़ू में भी आधा दर्जन के करीब लोगों की मौत हो चुकी है और कोई घर ऐसा नहीं जिसमें बुखार पीड़ित न हो।
कुंभ का असर अब दिख रहा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड तक में कुंभ का असर अब दिख रहा। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए), देहरादून के अध्यक्ष डॉ अमित सिंह ने तो कहा भी कि धार्मिक- सामाजिक आयोजनों में जिस तरह की ढील दी गई, उसका खामियाजा लोग अब भुगत रहे हैं। उत्तराखंड में संक्रमण किस तरह से बढ़ रहा है, इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। पिछले साल मार्च में जब लॉकडाउन लगा तो बड़ी संख्या में पहाड़ के लोग भी अपने गांवों की तरफ लौटे। लेकिन जो आता था, उसे 14 दिनों के क्वारंटाइन में रहना पड़ता था, भले वह संक्रमित न हो। इस बार वैसा कुछनहीं हो रहा। ग्रामीण इलाकों में आरटी-पीसीआर टेस्ट की कोई व्यवस्था नहीं है। अगर कोई कराना चाहे तो उसे पहाड़ के मैदानी इलाकों या जिला मुख्यालयों तक जाना होगा और जरूरी नहीं कि वहां टेस्ट हो ही जाए। इसलिए लोग टेस्ट के बखेड़े में नहीं पड़ते। उत्तराखंड के ही एक समाचार पत्र कर्मी के अनुसार, अल्मोडा के एक गांव में टेस्टिंग कराई गई तो कई लोग पॉजिटिव मिले जिसके बाद पूरा गांव सील कर दिया गया।
दिल्ली के गांव तक बदहाल
दूरदराज के गांव तो छोड़िए, देश की राजधानी दिल्ली के गांवों की हालत भी कोई अच्छी नहीं है। यहां के हरियाणा से सटे ग्रामीण इलाकों में महज तीन अस्पताल हैं। वे भी कामचलाऊ। यहां दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा के गांवों के मरीज आते हैं। एक तो सुविधाओं के नाम पर ये अस्पताल वैसे ही दयनीय हैं, ऊपर से इन दिनों लोगों का बोझ। इन इलाकों में केंद्र सरकार का एक भी अस्पताल नहीं है। घोषणा कई बार हुई लेकिन अस्पताल बने नहीं। वहीं दिल्ली सरकार ने नरेला, पूठंखुर्द एवं जाफरपुर कलां गांवों में अस्पताल बना रखे हैं और इनमें करीब सौ-सौ बेड की व्यवस्था है लेकिन ये अस्पताल डिस्पेंसरी-जैसे ही हैं। अलीपुर, कंझावला, महरौली में नगर निगम ने करीब छह दशक पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए थे। इन केंद्रों में बेड की भी व्यवस्था की गई थी लेकिन ये केंद्र अब डिस्पेंसरी में तब्दील हो चुके हैं।
(इनपुटः कुमार संतोष, राम शिरोमणि शुक्ला, अनिल कुमार, कृष्ण सिंह)
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