उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ के प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह का निधन
दूधनाथ सिंह की रचनाओं में अपने वक्त के सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक वातावरण से एक मोहभंग की भावना है। उन्हीं के शब्दों में, ‘सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध यह एक तरह से राजनीतिक विरोध है’।
हिंदी साहित्य के वरिष्ठ कथाकार, कवि और आलोचक दूधनाथ सिंह का लंबी बीमारी के बाद 11 जनवरी की देर रात निधन हो गया है। उन्होंने अपने पैतृक शहर इलाहाबाद में देर रात 12 बजे के करीब आखिरी सांस ली।पिछले कई दिनों से वह इलाहाबाद के फीनिक्स हॉस्पिटल में भर्ती थे। प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित दूधनाथ सिंह को 10 जनवरी की रात को हार्टअटैक आया था।
हिंदी में अपने लेखकों का सम्मान करने या उनके साथ एक व्यक्तिगत रिश्ता रखने की परंपरा कम ही रही है, जबकि ये वही लेखक हैं जिन्होंने ना सिर्फ हिंदी साहित्य और आलोचना को एक व्यवस्थित रूप दिया और उसे संवर्धित किया बल्कि इन्होंने पत्रकारिता को भी एक निश्चित स्वरुप देने में अहम् भूमिका निभाई है। ना जाने क्यों, हम हिंदी भाषियों की स्मृति खास तौर पर अपने साहित्यकारों के प्रति कमजोर ही रही है। हमें शायद विस्मृति अधिक भाती है- यह एक दुखद प्रवृति है। खैर, यह हिंदी के साहित्यकारों का जीवट ही है कि विस्मृतियों, विरोधाभासों और विडम्बनाओं से जूझते हुए भी वे लगातार सृजनशील रहते हैं।
इलाहबाद से बेहद लगाव रखने वाले दूधनाथ सिंह इस शहर को भी अपने लेखक बनने का श्रेय देते हैं। उनका कहना था कि हिंदी के तीन महत्वपूर्ण कवियों – सुमित्रानंदन पन्त, निराला और महादेवी वर्मा के सान्निध्य और इलाहबाद शहर के माहौल ने उनके भीतर छिपी रचनात्मकता को ना सिर्फ गढ़ा बल्कि पोषित भी किया। इलाहबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में ही दूधनाथ सिंह प्राध्यापक रहे और रिटायर होने के बाद सारा समय लेखन को समर्पित कर दिया।
दूधनाथ सिंह ने सिर्फ कहानियां या उपन्यास ही नहीं लिखे, उन्होंने कवितायें भी लिखीं और हिंदी आलोचना में भी गंभीर काम किये। 2012 में एक ब्लॉग ‘पहली बार’ ने उनके साथ बातचीत पर आधारित एक आलेख छापा था, जिसमें उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया और संसार के बारे में चर्चा की थी। धर्मवीर भारती को अपना गुरु मानने वाले दूधनाथ सिंह के लेखन के प्रारंभिक सरोकार आजादी के बाद धीरे-धीरे परिवारों का टूटना, युवा वर्ग का शहरों की ओर पलायन और स्त्री-पुरूष संबंधों में खटास थे। उन्हीं के शब्दों में यह दरअसल ‘उस वक्त के सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक वातावरण से एक मोहभंग की भावना’ है। ‘यह एक तरह से राजनीतिक विरोध भी है, सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध एक प्रोटेस्ट भी है’।
अयोध्या कांड के बाद लिखा गया उनका उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ उनकी अपनी प्रिय रचनाओं में से एक था। यह उपन्यास बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद के सांप्रदायिक माहौल का सजीव चित्रण करता है। उन्हीं के शब्दों में, “तत्सत पाण्डेय का किरदार एक प्रतिरोध है साम्प्रदायिकता के खिलाफ। उसका कोई रूप नहीं है। हालांकि, तत्सत पाण्डेय के किरदार की प्रेरणा मुझे सीपीआई के वरिष्ठ नेता होमी दाजी से मिली। मैंने जब लिखना शुरू किया तो मुझे लगा कि मैं होमी दाजी को एक प्रतिरोध की शक्ति के रूप में दर्ज कर रहा हूं। लेकिन वह सिर्फ एक प्रतिरोध है सांप्रदायिकता के खिलाफ। इसे लिखने से पहले मैं ऐसे ही बिना पूर्व योजना के अयोध्या चला गया था। वहां कार-सेवकों के टेंट लगे हुए थे। एक तरह से प्रथम दृष्टि में यह मेरा देखा हुआ था सब कुछ।”
आज के सांप्रदायिक माहौल में जहां धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति बहुत चलन में है, यह उपन्यास और भी प्रासंगिक हो चला है। आज के कथाकारों में ज्ञान रंजन को वे बहुत पसंद करते हैं। उदय प्रकाश की कुछ कहानियों को भी वे उच्च कोटि की रचनाएं मानते हैं और विश्व साहित्य में टॉलस्टॉय के प्रशंसक रहे हैं।
लेखकों को अक्सर अपने भीतर चल रहे इस संघर्ष से लगातार जूझना होता है कि वे जो लिख रहे हैं, क्या वह समाज को किसी भी तरह से प्रभावित कर पाएगा। नयी खेप के लेखकों को लेखन पर निष्ठा बनाए रखने के लिए दूधनाथ सिंह का यह कथन हमेशा प्रेरित करता रहेगा-
“एक लेखक का दायित्व है कि वह अपने समय की सामाजिक समस्याओं का चित्रण करे। उन समस्याओं के प्रति प्रतिबद्ध रहे। लेकिन कोई भी लेखक समाज को बदलने का अगर सपना देखता है तो वह पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि समाज एक लेखक की रचनाओं से नहीं बदलता, उसके बदलने के अपने तर्क होते हैं।”
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