प्रकृति की मार से कराह रहा पूरा उत्तराखंड, चारधाम यात्रा बनी चुनौती
जोशीमठ ही नहीं, एक तरह से पूरा उत्तराखंड कराह रहा है। पर 12 लाख लोगों के इस सीजन में यहां आने की उम्मीद है। इसलिए भविष्य अनिश्चित है।
अभी तक लगभग 6.51 लाख लोग चार धाम यात्रा के लिए अपना पंजीयन करवा चुके हैं। अभी हेलिकॉप्टर सेवा के पंजीयन शुरू हुए नहीं हैं। सरकार ने घोषणा कर रखी है कि उत्तराखंड के स्थानीय लोगों को पंजीयन की जरूरत नहीं हैं। ऐसे में, कुल मिलाकर तीर्थयात्रियों की संख्या दोगुनी हो सकती है। गंगोत्री-यमुनोत्री के पट 22 अप्रैल को खुल जाएंगे जबकि बदरीनाथ के 27 को। इसी साल जनवरी में जोशीमठ शहर का धंसना-फटना शुरू हुआ था जो अब भी जारी है। ऋषिकेश से बदरीनाथ तक का राष्ट्रीय राजमार्ग जोशीमठ होते हुए ही चीन की सीमा पर बसे माणा तक जाता है। इस मार्ग का 12 किलोमीटर हिस्सा जोशीमठ से गुजरता है जो इस समय अनिश्चितता और आशंका के गर्त में हैं। यात्रा शुरू होने पर चमोली से लेकर जोशीमठ तक के रास्तों पर रोजाना औसतन पांच हजार से अधिक वाहन और हजारों लोग गुजरेंगे।
मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई बर्फबारी अप्रैल में भी जारी रही। इससे केदारनाथ के पुनर्निर्माण का काम प्रभावित हुआ है। यहां काम कर रहे मजदूरों को नीचे उतर जाना पड़ा। केदारनाथ मंदिर परिसर में सर्दी के दिनों में चार से पांच फीट बर्फ रहती है। इसकी एक बार साफ-सफाई हो गई थी। मौसम सुधरने पर अब इसकी दोबारा सफाई की जाएगी। इसके लिए हेलिकॉप्टर सेवाओं का उपयोग भी किया जा रहा है। ये हेलिकॉप्टर ही भारी-भरकम मशीनें ढोकर यहां पहुंचाते हैं।
जोशीमठ पहले से अधिक बेहाल है। यहां के 81 परिवारों के 694 लोगों पर नई आफत आ गई है। अब तक तो ये लोग शहर के निरापद हिस्से में बने होटल-धर्मशालाओं के एक-एक कमरे में जैसे-तैसे दिन बिता रहे थे। अब इनको यह स्थान खाली करने को कह दिया गया है क्योंकि चार धाम यात्रियों की बुकिंग आने लगी है। सरकार ने ढाक में कुछ प्री फेब्रिकेटेड मकान बनाए हैं लेकिन अब तक न तो उनका वितरण हुआ है और न ही वे इंसान के रहने लायक हो पाए हैं।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रधानमंत्री से मिलकर जोशीमठ समस्या से निबटने के लिए 2,942 करोड़ रुपये मांगे हैं। स्थानीय लोग व्यापक पुनर्वास पैकेज देने और इलाके में एनटीपीसी पावर प्लांट निर्माण कार्य रोकने की मांग पिछले चार महीने से कर रहे हैं। पर लगता तो नहीं कि इस दिशा में कुछ खास हो पा रहा है। अब इतनी बड़ी संख्या में पर्यटक आए, तो धंसान, भूस्खलन और बाढ़ वगैरह की आशंका बढ़ेगी ही।
लोगों को बहुत दिनों तक दुर्घटनाओं की याद भी शायद नहीं रहती क्योंकि 2013 में हुई केदारनाथ आपदा का शायद ही कोई जिक्र करता दिखता है। पिछले करीब 10 साल में जलवायु परिवर्तन के कारण बदलाव के अतिरिक्त जिस किस्म से निर्माण हुए हैं और चौड़ी सड़कें बनी हैं और बन रही हैं, उस ओर सरकार का ध्यान भी नहीं लगता।
गोचर से बदरीनाथ तक के 131 किलोमीटर हाईवे पर 20 ऐसी जगहें हैं जहां रोजाना भूस्खलन हो रहे हैं। मारवाड़ी क्षेत्र में सर्वाधिक मलवा गिर रहा है। प्रशासन ने भी माना है कि चटवा पीपल से पंच पुलिया के बीच का हिस्सा, नंदप्रयाग का पर्थाडीप का हिस्सा, मैठाणा, कुहड़ से बाजपुर के बीच का हिस्सा, चमोली चाड़ा, बिरही चाड़ा, भनारपानी, हेलंग चाड़ा, रेलिंग से पैनी तक, विष्णुप्रयाग से टैया पुल के पास तक का हिस्सा, खचड़ानाला, लामबगड़ से जेपी पुल तक का हिस्सा, हनुमान चट्टी से रड़ांग बैंड के बीच वाले हिस्से में कभी भी पहाड़ का कोई हिस्सा गिर सकता है।
यमुनोत्री जाने वाले उत्तरकाशी के धरासू से जानकी चट्टी तक के 110 किलोमीटर सड़क को नाम भले ही हाईवे का दे दिया गया हो, डीआईजी गढ़वाल करन नगन्याल खुद यमुनोत्री हाईवे की स्थिति को बेहद खराब बता चुके हैं। वह कह चुके हैं कि हाईवे पर कई स्थानों पर बॉटल नेक है। चौड़ा करने का काम भी चल रहा है। इससे यातायात व्यवस्था प्रभावित हो रही है। जिला प्रशासन ने राना चट्टी और किसाला मोड़ पर हाईवे को संवेदनशील बताया है। इसके अलावा कुथ्नौर पुल, पालिगढ़, नागेला, फूलचट्टी-जैसे सात स्थान भूस्खलन प्रभावित घोषित हैं। केदारनाथ धाम जाने वाले रुद्रप्रयाग-गौरीकुंड का 75 किलोमीटर मार्ग लगातार धंस रहा है। प्रशासन उसमें मलवा भर रहा है लेकिन थोड़ी बरसात होते ही मलवा भी बह जा रहा है और दरारें गहरी हो रही हैं। चिन्यालीसौड से गंगोत्री तक के 140 किलोमीटर लंबे रास्ते के 52 किलोमीटर को मलवा गिरने के खयाल से अतिसंवेदनशील घोषित किया गया है।
उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार छोटे से उत्तराखंड में 6,300 से अधिक स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिह्नित किए गए थे। रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हजारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काटकर या जंगल उजाड़कर ही बन रही हैं और इसी से भूस्खलन जोन की संख्या में इजाफा हो रहा है।
पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित करने और इस हिमालयीन राज्य के संसाधनों पर दबाव को नियंत्रित करने की मांग काफी समय से विभिन्न वर्गों द्वारा की जाती रही है। लेकिन सरकार और अफसर ही नहीं, अधिकांश स्थानीय लोग भी लाभ की लालसा में इस ओर कान नहीं दे रहे। नतीजा सबके सामने है।
पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण संबंधी विषयों पर नियमित तौर पर लिखते हैं।
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